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पश्चिमी घाट: विकास बनाम पर्यावरण सरंक्षण

  • 06 Mar 2017
  • 9 min read

सन्दर्भ

विदित हो कि तीन वर्षों में दूसरी बार पर्यावरण मंत्रालय ने पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी संवेदनशीलता को गंभीरता से नहीं लिया है। सरकार एक बार फिर ऐसा कानून बनाने में असफल रही है जो जैव-विविधता से भरपूर पश्चिमी घाट के 56,825 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को औद्योगिक कार्यों के लिये प्रतिबंधित कर पाता। गौरतलब है कि सरकार द्वारा जारी मसौदा अधिसूचना, जो यह निर्दिष्ट करता है कि पश्चिमी घाट के कितने और कौन से भाग में विकास कार्यों के नाम पर अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है, हाल ही में रद्द हो गया है। सरकार कैसे पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी संवेदनशीलता के प्रति असंवेदनशील प्रतीत हो रही है यह समझने के लिये पहले हमें मसौदा अधिसूचना के बारीकियों और उसकी पृष्ठभूमि पर गौर करना होगा।

पृष्ठभूमि

  • भारत की पश्चिमी घाट पर्वतीय श्रृंखला को संयुक्त राष्ट्र की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया जा चुका है। पश्चिमी घाट पर्वतीय श्रृंखला को विश्व में जैव विविधता के 8 सर्वाधिक संपन्न क्षेत्रों में से एक माना जाता है। इस श्रृंखला के वन भारतीय मानसून की स्थिति को प्रभावित करते हैं। गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा से शुरू होने वाली पश्चिमी घाट श्रृंखला महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल से होकर गुज़रती है तथा कन्याकुमारी में समाप्त होती है। गौरतलब है कि इस क्षेत्र को यूनेस्को ने मानव का प्राकृतिक पर्यावास कहा है।
  • पश्चिमी घाट के पर्यावरण को लेकर सरकार ने पहले माधव गाडगिल समिति गठित की। इस समिति ने 2011 के मध्य तक रिपोर्ट की प्रक्रिया पूरी कर उसे सरकार को सौंप दिया था, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने लम्बे समय तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की और न ही इसे सार्वजनिक चर्चा के लिये जारी किया। अंत में न्यायालय ने इन सिफारिशों पर काम करने के लिये सरकार को दिशा-निर्देश जारी किये। तब सरकार ने आगे की दिशा तय करने के लिये कस्तूरीरंगन समिति का गठन किया, जिसने अप्रैल, 2013 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी।
  • प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाले नौ सदस्यीय समूह का गठन केरल सहित कई राज्यों के विरोध को देखते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने किया था। इन राज्यों ने माधव गाडगिल समिति की रिपोर्ट का विरोध किया था जिसने पश्चिमी घाटों को पारिस्थितिकी के लिये पूरी तरह संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया था और सीमित खनन एवं अन्य विकास गतिविधियों का पक्ष लिया था।
  • उल्लेखनीय है कि कस्तूरीरंगन समिति ने ईएसजेड(ecology sensitive zone) के तहत पश्चिमी घाट के 37 प्रतिशत हिस्से को चिन्हित किया था, जो 60,000 वर्ग किलोमीटर का है। वहीं गाडगिल समिति ने लगभग समूचे पश्चिमी घाट को ईएसजेड बनाने की सिफ़ारिश की थी। संरक्षित क्षेत्र में चलाई जाने वाली गतिविधियों की अनुमति की सूची के मामले में गाडगिल समिति की सिफारिशें काफी व्यापक थीं, जिसमें कृषि क्षेत्रों में कीटनाशकों और जीन संवर्द्धित बीजों के उपयोग पर प्रतिबंध  से लेकर पनबिजली परियोजनाओं को हतोत्साहित करना और वृक्षारोपण के बजाय  प्राकृतिक वानिकी को प्रोत्साहन देने जैसी सिफारिशें शामिल थीं। हालाँकि सरकार ने कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशें मान लीं।

प्रमुख चिंताएँ

  • कस्तूरीरंगन समिति की सिफारिशों में पश्चिमी घाट के 60,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को ईएसजेड के अंतर्गत शामिल करना था, केरल सरकार ने इसका विरोध किया और केंद्र सरकार ने ईएसजेड की व्यापकता को कम करते हुए  56,825 वर्ग किलोमीटर कर दिया, हालाँकि तब भी ईएसजेड क्षेत्र में और कमी लाने की राज्यों की माँग जारी रही और वर्ष 2014 में पश्चिमी घाट के 56,825 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को ईएसजेड के अंतर्गत लाने के लिये तैयार मसौदा अधिसूचना रद्द हो गई, फिर से इसे वर्ष 2015 में इन्ही बातों के साथ ज़ारी किया गया जो इस वर्ष 4 मार्च तक किसी भी निष्कर्ष तक पहुँचे बिना ही समाप्त हो गया, अर्थात सरकार इस संबंध में कानून बनाने में असफल हो गई है।
  • पश्चिमी घाट में फिलहाल 5000 से ज़्यादा पौधे तथा 140 स्‍तनपायी हैं जिसमें से 16 स्‍थानिक यानी केवल उन्ही क्षेत्रों में पाए जाने वाले हैं। पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से काफी संवेदनशील क्षेत्र के रूप में देखा जाता है जिसमें करीब 56 प्रजातियाँ लुप्‍त होने के कगार पर हैं। पर्यावास बदलने, अधिक दोहन होने, प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन ऐसे प्रमुख कारण हैं जिससे जैव-विविधता को नुकसान पहुँच रहा है।

क्या हो आगे का रास्ता?

  • सरकार को करना यह चाहिये कि वह पहले राज्यों के साथ विवाद के मूद्दे को सार्थक बातचीत के माध्यम से सुलझाए, जैसे पश्चिमी घाट में मौज़ूद राष्ट्रीय जैविक उद्यानों और अभयारण्य के अलावा वे कौन से हिस्से हैं जो ईएसजेड के अंतर्गत आएंगे। गाडगिल समिति ने एक राष्ट्रीय प्राधिकरण की सिफारिश की थी, जिसमें राज्य और ज़िला स्तर पर भी प्रतिनिधि रखने की बात की गई थी, गाडगिल समिति के इस अहम् सुझाव पर अमल किया जा सकता है। पश्चिमी घाट में बड़ी संख्या में लोग भी रहते हैं और यह उन क्षेत्रों में भी हैं, जिन्हें ईएसजेड के रूप में श्रेणीबद्घ किया गया है, इसके लिये एक विशेषीकृत  क्षेत्र बनाना होगा, हालाँकि घनी आबादी को देखते हुए यह आसान नहीं होगा।

निष्कर्ष

  • गौरतलब है कि समूची दुनिया में अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि पर्यावरण और विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और उन्हें एक-दूसरे के प्रतियोगी नहीं बल्कि पूरक के रूप में देखने की आवश्यकता है अन्यथा जलवायु परिवर्तन की दहलीज तक पहुँच चुकी मानव सभ्यता के लिये यह एक दिन बर्बादी का सबसे बड़ा कारण होगा। भारत जैसे विशाल देश के विभिन्न हिस्सों की पारिस्थितिकी में अत्यधिक भिन्नता है। पश्चिमी घाट की इन सभी क्षेत्रों में अपनी एक विशिष्ट पहचान है । पश्चिमी घाट की जैव विविधता को बनाए रखने के लिये वन एवं वन्य जीवों की रक्षा ज़रूरी है।
  • चूँकि स्वयं मानव का विकास विभिन्न चरणों में विभिन्न प्राणी जगत से होते हुए आगे बढ़ा है अतः हमारे शरीर की रचना में इनके अंश निहित हैं। दरअसल, पर्यावरण एवं जैव विविधता में कमी के कारण आए दिन हमें नई-नई बीमारियों के बारे में सुनने को मिलता है क्योंकि ऐसे रोगों के प्रतिरोधक अंश हमें इन जीवों एवं वनस्पतियों से प्राप्त होते थे। इसलिये विकास के नाम पर पर्यावरण एवं जैव विविधता के साथ खिलवाड़ मानव सभ्यता को विनाश की ओर ले जाने वाला साबित होगा। अतः हमें अपनी ज़रूरतों और उपलब्ध संसाधनों के मध्य सामंजस्य बैठाना होगा और सरकारों को इस बात को समझना होगा।
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