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कृषि

सतत् पशुधन क्षेत्र पर पुनः ध्यान केंद्रित करना

  • 10 Oct 2022
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 04/10/2022 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Refocusing our lens to view wildlife health holistically” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में पशु स्वास्थ्य की वर्तमान स्थिति और संबंधित मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

पशुपालन भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण उप-क्षेत्र है। भारत पशुधन की विशाल आबादी से समृद्ध देश है जिन्हें विविध उत्पादन प्रणालियों और कृषि-जलवायु परिस्थितियों के अंतर्गत पाला जाता है।

  • पशुधन क्षेत्र भारत में 60% से अधिक ग्रामीण आबादी को आजीविका सहायता प्रदान करने में एक बहुआयामी भूमिका निभाता है और भारत की पोषण सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • हालाँकि देश की इस जीवंत परिसंपत्ति को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें आहार एवं चारे की कमी, बीमारी का प्रकोप (गाँठदार त्वचा रोग), बदतर पशुधन विस्तार सेवाएँ, पशुधन उत्पादों के लिये असंगठित बाज़ार आदि शामिल हैं, जो पशुधन स्वास्थ्य और उत्पादकता को समग्र रूप से देखने हेतु गंभीर ध्यान देने की आवश्यकता रखते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुधन का योगदान

  • आर्थिक सर्वेक्षण-2021 के अनुसार, कुल कृषि और संबद्ध क्षेत्र सकल मूल्य वर्धित (स्थिर मूल्यों पर) 24.32% (2014-15) से बढ़कर 28.63% (2018-19) हो गया है।
  • रोज़गार और लैंगिक समानता: मौद्रिक लाभ और घरों के लिये आहार एवं राजस्व की एक स्थिर धारा प्रदान करने के अलावा पशुधन ग्रामीण परिवार को रोज़गार प्रदान करते हैं, फसल की विफलता के दौरान बीमा के रूप में कार्य करते हैं और पशुधन का स्वामित्व समुदाय में किसान की सामाजिक स्थिति को भी निर्धारित करता है।
    • डेयरी भारत में सबसे बड़ा कृषि पण्य है। यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में 5% का योगदान देता है और 80 मिलियन डेयरी किसानों को प्रत्यक्ष रूप से रोज़गार प्रदान करता है।
    • महिलाओं के लिये अवसर पैदा कर यह लैंगिक समानता में भी योगदान देता है।
  • मृदा उर्वरता में वृद्धि: यह स्वस्थाने खाद सृजित कर मृदा उर्वरता को बढ़ाता है। यह फसल या कृषि-उद्योगों से अपशिष्ट उत्पादों और अवशेषों को पुनर्चक्रित भी करता है।

भारत में पशुधन से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ

  • पशु रोगों में वृद्धि: पशुओं में संचारी रोगों में वृद्धि देखी जा रही है। हाल ही में भारत के विभिन्न राज्यों में मवेशियों में गाँठदार त्वचा रोग (lumpy skin disease- LSD) का प्रकोप देखा गया है।
    • राजस्थान में 10 लाख से अधिक मवेशियों में गाँठदार त्वचा रोग पाया गया है। दक्षिण भारत में केरल में पशुओं में अफ्रीकी स्वाइन बुखार के मामले दर्ज किये गए।
  • आहार और चारे की कमी: तीव्र शहरीकरण और सिकुड़ते भूमि आकार (पीढ़ी दर पीढ़ी बँटवारे के साथ जोत आकारों में आई कमी) के कारण पशुधन क्षेत्र आहार और चारे की गंभीर कमी का सामना कर रहा है।
    • इसके अलावा, भारत में चारा उत्पादन के तहत कृषि योग्य भूमि का केवल 5% ही उपयोग किया जाता है। स्थायी चरागाहों और चराई भूमि के अंतर्गत कुल क्षेत्रफल का महज 3.30% शामिल है और इनमें भी लगातार कमी आ रही है।
    • ICAR-IGFRI की एक रिपोर्ट के अनुसार सूखे चारे की उपलब्धता में 23.40% और हरे चारे की उपलब्धता में 11.24% की कमी है।
  • अपर्याप्त वित्तीय ध्यान: पशुधन क्षेत्र पर उसकी क्षमता के अनुरूप अभी तक पर्याप्त नीतिगत और वित्तीय ध्यान नहीं दिया गया है। कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर कुल सार्वजनिक व्यय का केवल 12% ही इसे प्राप्त होता है जो कृषिगत सकल घरेलू उत्पाद में इसके योगदान की तुलना में व्यापक रूप से कम है।
  • अविकसित उत्पाद बाज़ार: भारतीय पशुधन उत्पाद बाज़ार प्रायः अविकसित है, यहाँ अनिश्चितता व्याप्त है और पारदर्शिता की कमी है तथा यहाँ प्रायः अनौपचारिक बाज़ार मध्यस्थों का प्रभुत्व देखा जाता है।
    • बाज़ारों तक पहुँच की कमी किसानों को उन्नत तकनीक और गुणवत्तापूर्ण इनपुट अपनाने के प्रति निरुत्साहित करती है। डेयरी एकमात्र उत्पाद है जिसमें सार्वभौमिक रूप से परिवर्तन देखने को मिलते हैं, जबकि अन्य उत्पाद बहुत पीछे हैं।
  • क्रॉस-ब्रीडिंग से संबंधित मुद्दे: यद्यपि क्रॉस-ब्रीडिंग से उत्पन्न दुधारू मवेशी अपने जनक नस्लों की ख़ूबियों को बनाए रखते हैं और उत्पादन क्षमता में वृद्धि प्रदर्शित करते हैं, लेकिन इसके साथ ही विभिन्न बीमारियों, पोषण संबंधी कमियों और पर्यावरण अनुकूलन के संबंध में भेद्यता भी रखते हैं।
  • पशुधन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: गर्म और आर्द्र परिवेश ‘हीट स्ट्रेस’ का कारण बनता है जो पशुधन में व्यवहारगत एवं चयापचय भिन्नता को प्रभावित करता है और कुछ मामलों में मृत्यु दर को भी बढ़ाता है।
    • मानसून का बदलता पैटर्न उनके प्रजनन मौसम को बाधित करता है और बाढ़ जैसी आपदाओं के समय में पशुओं को भी मानव आबादी के ही समान आघात, भूख, प्यास, विस्थापन, बीमारी और तनाव जैसे विकट प्रभावों को झेलना पड़ता है। लेकिन चूँकि वे अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त नहीं कर सकते, बचाव और राहत के मामले में उन्हें पीछे रहना पड़ता है।
  • पर्याप्त विस्तार सेवाओं का अभाव: पशुधन विस्तार सेवा में उपयुक्त पशु चिकित्सा सेवाएँ (टीकाकरण, रोग से बचाव एवं नियंत्रण), पशुधन जागरूकता और कृमिहरण (Deworming) शामिल हैं।
  • जबकि फसल उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने में विस्तार सेवाओं की भूमिका को व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है, पशुधन विस्तार पर कभी भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया और यह भारत के पशुधन क्षेत्र की कम उत्पादकता के प्रमुख कारणों में से एक रहा है।

आगे की राह

  • चारा सुरक्षा: नागरिकों के लिये खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ उपलब्धता, अभिगम्यता और संवहनीयता मानकों को बनाए रखते हुए चारा सुरक्षा (Fodder Security) पर भी समान रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
    • नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (MNRE) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत प्रति वर्ष औसतन 500 मिलियन टन फसल अवशेष उत्पन्न करता है, जिसमें से 92 मिलियन टन प्रति वर्ष जला दिया जाता है, जिसका संभावित रूप से पशुओं के चारे के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
      • चारे की कई उच्च उत्पादक किस्में मौजूद हैं, जबकि फसल अवशेष के साइलेज (silage) निर्माण, हे (hay) निर्माण और यूरिया-शीरा उपचार (urea- molasses treatment) जैसी प्रौद्योगिकियों का भी लाभ उठाया जा सकता है।
  • आनुवंशिक निगरानी: भारत में पशुधन के लिये आनुवंशिक निगरानी (Genetic Surveillance), विशेष रूप से विषाणुओं की, को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। चूँकि गाँठदार त्वचा रोग का प्रकोप उच्च मृत्यु दर के साथ तेज़ी से फैल रहा है, इस समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये इसकी आनुवंशिक संरचना की जाँच करने और इसके व्यवहार का विश्लेषण करने की आवश्यकता है।
  • एकीकृत पशुधन बाज़ार: विभिन्न प्रकार के पशुधन उत्पादों में उद्योग-किसान संबंधों को (जैसा संबंध ‘अमूल’ के रूप में डेयरी क्षेत्र में है) सशक्त बनाया जाना महत्त्वपूर्ण है, ताकि पशुधन उत्पादन के वाणिज्यीकरण को बढ़ाया जा सके और किसानों को अतिरिक्त आय सुरक्षा प्रदान की जा सके। आय सुरक्षा बढ़ने से वे अपने पशुओं के स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने के लिये भी प्रेरित होंगे।
  • स्वदेशी नस्ल के जीन बैंक: रोगों और भंगुर जलवायु परिस्थितियों के प्रति अनुकूलन क्षमता तथा इनके दूध के पोषण मूल्य को देखते हुए देशी नस्ल को संरक्षित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • इस उद्देश्य से जीन बैंक बनाए जा सकते हैं जो विभिन्न अनुसंधान संस्थानों की सहायता करने के साथ-साथ स्वदेशी नस्लों के संरक्षण में मदद करेंगे।
  • पशु एम्बुलेंस सेवा और अनिवार्य पशुधन टीकाकरण: घायल/बीमार पशुओं को तत्काल प्राथमिक उपचार प्रदान करने के लिये पशु चिकित्सालयों में एम्बुलेंस सेवाओं का विस्तार किया जाना चाहिये।
    • इसके अलावा, पशुधन का प्राथमिक टीकाकरण अनिवार्य किया जाना चाहिये और समयबद्ध तरीके से नियमित पशु चिकित्सा निगरानी की जानी चाहिये।
  • ‘वन हेल्थ’ दृष्टिकोण की ओर: ‘वन हेल्थ’ दृष्टिकोण को चिह्नित करने और मानवों, पशुओं, पादपों एवं उनके साझा पर्यावरण के बीच के अंतर्संबंध को समझने की आवश्यकता है। इसके साथ ही, मानव स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य, पादप, मृदा, पर्यावरण और पारितंत्र जैसे विभिन्न विषयों में कई स्तरों पर अनुसंधान और ज्ञान की साझेदारी में सहयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जो स्वास्थ्य संवहनीयता (Health Sustainability) की प्राप्ति के साथ ही ज़ूनोटिक रोगों से निपटने में मदद कर सकते हैं ।

अभ्यास प्रश्न: हाल के गाँठदार त्वचा रोग प्रकोप के आलोक में भारत में पशुधन क्षेत्र से संबंधित प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

 Q.1 भारत की निम्नलिखित फसलों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2012)

  1. लोबिया
  2. हरा चना
  3. पिज़न मटर

 उपर्युक्त में से कौन-सा/से दाल, चारा और हरी खाद के रूप में उपयोग किया जाता है/हैं?

 (A) केवल 1 और 2
 (B) केवल 2
 (C) केवल 1 और 3
 (D) 1, 2 और 3

 उत्तर: (A)

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