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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

मुद्दे, जो जी-20 की पहुँच के बाहर हैं

  • 08 Jul 2017
  • 9 min read

सन्दर्भ
कहते हैं कि किसी की क्षमताओं का सम्पूर्ण आकलन करना हो तो यह मत देखिये कि वह क्या कर सकता है, बल्कि यह देखिये कि वह क्या नहीं कर सकता। दुनिया के शक्तिशाली देशों का एक मंच पर आना अपने आप में कई संभावनाओं को जगाने वाला है। लेकिन, आज वैश्विक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि जी-20 की जद से बाहर की चीज़ें भी ही उतनी महत्त्वपूर्ण हैं, जितनी कि इसके दायरे में आने वाली। आज हम इस लेख में ऐसे ही कुछ पहलुओं पर गौर करेंगे, लेकिन उससे पहले नज़र दौड़ाते हैं जी-20 से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर।

जी-20 से संबंधित महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ ?

  • बीस सदस्य देशों का समूह जी-20 एक अंतर्राष्ट्रीय मंच है, जो दुनिया के बीस प्रमुख औद्योगिक और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को एक मंच पर लाता है। जी-20 विश्व के सकल घरेलू उत्पाद के 85 प्रतिशत और कुल आबादी के दो तिहाई हिस्से का प्रतिनिधित्त्व करता है।
  • विदित हो कि वर्ष 1999 में जी-20 का गठन हुआ था। तब यह केवल सदस्य देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गर्वनरों का संगठन हुआ करता था। पहला जी-20 शिखर सम्मेलन बर्लिन में दिसंबर 1999 में हुआ, जिसे जर्मनी और कनाडा के वित्त मंत्रियों ने आयोजित किया था।
  • गौरतलब है कि वर्ष 2008 में आई वैश्विक मंदी से निपटने के लिये जी-20 में बड़े बदलाव हुए और इसे शीर्ष नेताओं के संगठन में तब्दील कर दिया गया। 2008 में अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन पूरी तरह वित्तीय बाज़ारों और विश्व अर्थव्यवस्था की हालत दुरुस्त करने पर केंद्रित था।
  • जी-20 के सदस्य देशों की बात करें तो इसमें कुल बीस सदस्य हैं : जर्मनी, अमेरिका, फ्रॉन्स, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, चीन, भारत, रूस, सऊदी अरब, जापान, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, इंडोनेशिया, इटली और मैक्सिको।
  • विदित हो कि जी-20 की बैठकें वार्षिक आधार पर होती हैं। हालाँकि वर्ष 2009 और 2010 में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुज़र रही थी, तब सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने वर्ष में दो बार मुलाकात की थी।
  • हालाँकि इन देशों की मुलाकात अनौपचारिक होती है लेकिन जी-20 के सदस्य देशों द्वारा लिये गए फैसलों में वज़न होता है। दुनिया के 20 औद्योगिक और विकासशील देशों जिनका की वैश्विक उत्पादन में 90 फीसदी हिस्सा है, वे अंतर्राष्ट्रीय कारोबार, वैश्विक विकास और जलवायु परिवर्तन को भी प्रभावित करते हैं।
  • दरअसल, जी-20 का कोई स्थायी अध्यक्ष नहीं होता। हर साल एक नया सदस्य संगठन का अध्यक्ष बनाया जाता है और वही सम्मेलन का आयोजन करता है। पिछली साल जी-20 का शिखर सम्मेलन चीन में किया गया था।
  • उल्लेखनीय है कि अध्यक्षता और शिखर सम्मेलन की मेजबानी कर रहे सदस्य के पास खुद का एजेंडा तय करने और चर्चाओं का नेतृत्व करने का एक अवसर होता है। साल 2018 में अर्जेंटीना जी-20 के शिखर सम्मेलन का आयोजन करेगा।
  • जी-20 की काफी आलोचना भी होती है। आलोचकों का आरोप है कि यह "स्वघोषित" मंच संयुक्त राष्ट्र, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक जैसी विश्व संस्थाओं की भूमिका को कम करता है। प्रत्येक वर्ष, शिखर सम्मेलन में देशों के शीर्ष नेताओं के अलावा बड़ी संख्या में सामाजिक कार्यकर्त्ता भी पहुँचते हैं, जो गरीबी, पर्यावरण, भेदभाव जैसे मुद्दों पर विरोध प्रदर्शन करते हैं।

क्या नहीं कर पायेगा जी-20

  • भारी असहमतियों के बीच जर्मन शहर हैम्बर्ग में आरम्भ हो चुके जी-20 सम्मलेन में मेज़बान एंजेला मर्केल ने कहा था कि जी-20 के मंच का इस्तेमाल "मुक्त बाज़ारों को प्रोत्साहन देने और संरक्षणवाद पर लगाम लगाने के लिये किया जाएगा।
  • हालाँकि ऐसा कुछ घटित हो इसके आसार कम हैं, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कभी भी उन नीतियों का अनुसरण करने से पीछे नहीं हटेंगे, जिनका वादा कर वह सत्ता में आए हैं। ऐसे में पुरी संभावना है कि ट्रंप और ट्रंप के दोस्त यानी अमेरिका और अमेरिका के घनिष्ठ मित्र देशों के प्रतिनिधि, सम्मलेन में मुक्त बाज़ार पर बातचीत के दौरान कंसर्ट हाल के बाहर जलपान करते पाए जाएं।
  • विदित हो कि अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते से बाहर हो चुका है, लेकिन कई बड़े देशों ने पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। हालाँकि बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका, अन्य सदस्यों को प्रतिबद्धता जताते देख जब मुँह दबाकर हँसेगा, तो क्या इन परिस्थितियों में कोई सार्थक निष्कर्ष सामने आएगा? जबकि ट्रंप ने पहले ही घोषणा कर रखी है कि अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर होने के अपने निर्णय से टस से मस नहीं होगा।
  • जी-20 सम्मेलन में प्रवासन का मुद्दा बड़े जोर-शोर से उठाया जाएगा, लेकिन यहाँ भी शायद ही सफलता मिले। अमेरिका एच-1 वीज़ा के मुद्दे पर अपने रुख में कोई परिवर्तन  नहीं लाने जा रहा है, इटली अपने यहाँ बड़ी संख्या में आने वाले अफ्रीकी शरणार्थियों से परेशान है, तुर्की यूरोपीय संघ से इस वज़ह से खार खाए बैठा है कि उसने तुर्की में मौज़ूद शरणार्थियों को अपने यहाँ प्रवेश करने से मना कर दिया है। इन परिस्थितियों में प्रवासन का मुद्दा शायद ज़्यों का त्यों ही बना रहे।

उलझी हुई हैं वैश्विक परिस्थियाँ

  • यूरोपीय संघ ने अमेरिका और रूस दोनों से ही बराबर दूरी बनाकर चलना चाहता है, जबकि अन्य देशों के अपनी-अपनी परिस्थितियों के हिसाब से अपने-अपने एजेंडे हैं। चीन, जलवायु परिवर्तन और मुक्त व्यापार के मोर्चे पर अमेरिका के विरोध में हैं, अमेरिका भी चीन से नाराज़ है कि वह उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश नहीं लगाना चाहता।
  • चीन ने रूस की दो बड़ी सरकारी कंपनियों को ऋण दिया है, जबकि रूस भारत का एक मज़बूत साथी है। इन परिस्थितियों में भारत किंकर्तव्यविमूढ़ सा महसूस कर रहा है कि क्या उसे चीन को नियंत्रित करने के लिये अमेरिका के साथ जाना चाहिये? लेकिन अमेरिका तो पेरिस समझौते से हट गया है, जिसकी कीमत भारत जैसे विकासशील देश को ज़्यादा चुकानी पड़ सकती है।
  • भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हर एक के साथ मित्रवत संबंध रखने का निर्णय लिया है। भारत न तो अमेरिका के ही विरोध में बोलेगा और न ही रूस के। कुल मिलाकर कहें तो वर्तमान वैश्विक परिस्थितियाँ उलझी हुई सी हैं, जहाँ यह निर्णय करना मुश्किल है कि कौन किसके साथ जाए।

निष्कर्ष
वर्तमान में जो परिस्थितियाँ बन रही हैं, हैम्बर्ग शायद जी-20 सम्मलेन का अब तक का सबसे नीरस सम्मेलन साबित हो। अंतिम घोषणा पत्र में बेशक वैश्विक स्वास्थ्य, डिजिटलीकरण, लिंग समानता, अफ्रीकी देशों में विकास को बढ़ावा और आतंकवाद के खात्मे जैसी अर्थपूर्ण बातें की जाएं, लेकिन दुनिया बहुध्रुवीय हो रही है और जी-20 में वैसे मुद्दों में लगातार कमी आ रही है, जिन पर कि आपसी सहमति बन सके।

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