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आधार अधिनियम का धन विधेयक के तौर पर पेश किया जाना कितना तर्कसंगत?

  • 27 Feb 2017
  • 12 min read

संदर्भ

विदित हो कि आधार एक्ट को पिछले साल मनी बिल के तौर पर पेश किया गया था। आधार एक्ट को मनी बिल के तौर पर पेश किये जाने को मनी बिल से संबंधित प्रावधानों का उल्लंघन मानते हुए इसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की गई थी। गौरतलब है कि अब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दायर किये गए रिट याचिका के संबध में याचिकाकर्ता को अपना पक्ष रखने का अंतिम अवसर देने वाला है। अतः यह उपयुक्त समय है यह देखने का कि क्या सच में आधार एक्ट को मनी बिल के तौर पर पेश किया जाना उचित नहीं है? और इस बारे मे कानूनी प्रावधान क्या कहते हैं? उपयुक्त अवसर तो यह भी देखने का है कि ‘आधार’ जिसे सरकार नए भारत का आधार बता रही है दरअसल वह निजता के अधिकार की कीमत चुकाकर लाया गया है, लेकिन पहले बात करते हैं आधार को मनी बिल के तौर पर पेश किये जाने के संबंध में।

कब और कैसे बदल गया आधार का स्वरूप

  • दरअसल, आधार का आरम्भ इस उद्देश्य से किया गया था कि प्रत्येक भारतीय को एक विशेष पहचान संख्या दे दी जाए जिसकी मदद से सरकार द्वारा प्रदान किये जाने वाले लाभों का एक समान वितरण सुनिश्चित किया जा सके। इस योजना के तहत भारत सरकार एक ऐसा पहचान पत्र देती है जिसमें 12 अंकों का विशेष नंबर दिया जाता है। अब किसी व्यक्ति के बारे में अधिकांश बातें 12 अंकों वाले एक कार्ड के जरिये प्राप्त की सकती है। जिसमे उसका नाम, पता, उम्र, जन्म दिनांक, उसके  उँगलियों के निशान यानी फिंगरप्रिंट और आँखों की स्कैनिंग तक शामिल है।
  • विदित हो कि आधार योजना को यूपीए सरकार ने पहले बिना किसी कानूनी सरंक्षण के ही जारी कर दिया था, हालाँकि बाद में सरकार को अपनी गलती का एहसास हुआ और वर्ष 2010 के दिसम्बर महीने में ‘आधार’ को कानूनी आधार देने के उद्देश्य से एक साधारण विधेयक लाया गया। साधारण विधेयक लाने का अर्थ यही था कि राज्य सभा और लोक सभा दोनों सदनों में पारित हो जाने के पश्चात् ही यह कानून का रूप ले सकता था। दोनों सदनों में आधार को लेकर खूब हो हल्ला मचा, आधार और निजता के अधिकार को लेकर एक व्यापक बहस छिड़ गई।
  • संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में आधार को लेकर अहम् चिंताएँ व्यक्त कीं और सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर किये गए। तब माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आधार को अनिवार्य किये जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया और कहा कि सरकार की कुछ ही योजनाओं में आधार की अनिवार्यता बनी रहनी चाहिये। वर्ष 2014 में सत्ता में आते ही एनडीए सरकार ने आधार को हर मर्ज़ की दवा समझ लिया और धीरे-धीरे सभी योजनाओं में आधार अनिवार्य करने की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। हालाँकि इस संबंध में न्यायालय के आदेशों का जमकर उल्लंघन भी हुआ। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए सरकार ने वर्ष 2016 के आरम्भ में आधार एक्ट को मनी बिल के तौर पर पेश कर दिया।

क्या है मनी बिल?

  • आधार एक्ट का मनी बिल के तौर पर पेश किया जाना उचित है या अनुचित, यह जानने के पहले यह समझना आवश्यक है कि मनी बिल वास्तव में है क्या? मनी बिल वो होता है जिसमें केवल धन से जुड़े हुए प्रस्ताव हों, इसके तहत राजस्व और खर्च से जुड़े हुए मामले आते हैं। ऐसे विधेयकों पर राज्य सभा में चर्चा तो हो सकती है लेकिन उस पर कोई वोटिंग नहीं हो सकती। मनी बिल पर राज्य सभा सिर्फ सलाह दे सकती है। लोक सभा उनकी सलाहों को मानने और नहीं मानने के लिये स्वतंत्र है। इस पर अंतिम फैसला लोकसभा ही लेती है। चौदह दिनों में अगर राज्य सभा मनी बिल को लोक सभा वापस नहीं भेजती है तो उसे पारित मान लिया जाता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 110(3) के अनुसार कोई बिल मनी  बिल है या नहीं उठता है इसका फ़ैसला लोकसभा का स्पीकर करता है। स्पीकर का निर्णय अंतिम होता है। यदि किसी बिल में धन से जुड़े हुए प्रस्तावों के अंतर्गत राजस्व और खर्च के अलावा और भी प्रस्ताव शामिल हैं तो उसे फाइनेंशियल बिल कहा जाता है। गौरतलब है कि फाइनेंसियल बिल को साधारण बिल की तरह पेश किया जाता है। आधार एक्ट को मनी बिल के तौर पर पेश किये जाने के संबंध में सरकार ने अपना पक्ष यह कहते हुए रखा कि स्पीकर का कौन सा बिल मनी बिल है, कौन सा नहीं? यह निर्धारित करने का अधिकार न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर है।

क्या कहते हैं संबंधित प्रावधान 

  • ‘मोहम्मद सईद सिद्दिक्की बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की खंडपीठ ने वर्ष 2014 में निर्णय दिया था कि मनी बिल के पहचान के संबंध में लोक सभा के स्पीकर का अधिकार न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आता। यदि मनी बिल की पहचान गलत तरीके से की गई हो तब भी स्पीकर का यह अधिकार न्यायिक समीक्षा से दायरे के बाहर है। हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद सईद सिद्दिक्की बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी मामले में अपने ही एक पुर्वादेश पर गौर नहीं किया है।
  • विदित हो कि ‘राजा राम पाल बनाम लोक सभा स्पीकर मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने वर्ष 2008 में निर्णय दिया था कि न्यायपालिका संसदीय कार्यवाहियों की समीक्षा कर सकती है और इसमें लोक सभा के स्पीकर द्वारा लिये गए वैसे निर्णय भी शामिल हैं जिसमें न्यायपालिका को यह महसूस हो कि बड़े स्तर पर कुछ अनुचित हो रहा है। अतः यह देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या रुख अपनाता है।
  • हालाँकि यदि आधार एक्ट को मनी बिल की कसौटियों पर कसा जाए तो हम पाते हैं कि इसे फाइनेंसियल बिल के तौर पर पेश किया जा सकता था। निजता के अधिकार और साइबर सुरक्षा के स्तर पर आधार को चिंतामुक्त बनाए जाने को लेकर व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता थी जो निश्चित ही आधार एक्ट को मनी बिल के तौर पर पेश करने से हाथ से निकल गई है।

क्यों आधार पर चर्चा ज़रूरी है?

  • अमरीका में एडवर्ड स्नोडेन के किये गये रहस्योद्घाटन के बाद से ही सर्वेलेंस और निजता पर गंभीर बहस शुरू हो गई है। स्नोडेन ने उजागर किया कि अमरीका ख़ुद अपने नागरिकों की निगरानी कराता रहा है। यह स्थिति तब है जब अमरीका में निजता की रक्षा के लिए कड़े क़ानून और प्रावधान हैं। चिंताजनक बात ये है कि भारत में निजता संबंधी कोई क़ानून नहीं है। यानी आधार परियोजना एक तरह के क़ानूनी निर्वात में काम कर रही है। हम सबकी निजता की सीमाएँ होती हैं और हम नहीं चाहते कि दूसरे उसका उल्लंघन करें चाहे वह सरकार ही क्यों न हो। लोग केवल सिर पर छत के लिये घर नहीं बनाते, बल्कि उन्हें निजता भी चाहिये होती है।
  • आधार के अंतर्गत किसी व्यक्ति की संवेदनशील जानकारियाँ कितनी सुरक्षित हैं, यह आधार के आरम्भ से ही एक प्रमुख चिंता बनी हुई थी। लेकिन हाल ही में कुछ ऐसी घटनाएँ सामने आई हैं जिनमें आधार आँकड़ों के व्यापक पैमाने पर लीक होने की आशंका उत्पन्न हुई है। सबसे पहले तकनीकी क्षेत्र के एक स्टार्ट अप ने (इसका नाम है आधार सक्षम ट्रस्ट ब्यूरो) यह दिखाया कि वह किसी भीड़ भरी सड़क पर लगे क्लोज्ड सर्किट टेलीविज़न की फुटेज से चेहरों को अलग से पहचान सकता है। इन तस्वीरों पर आधार के आँकड़े चस्पा थे जबकि कुछ खास हिस्सों को अधूरा छोड़ दिया गया था। अब जब लगभग सरकार की प्रत्येक योजना ‘आधार’ आधारित हो गई है तो ऐसे में साइबर खतरे पहले से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण बन गए हैं। अतः आधार पर एक व्यापक चर्चा तो होनी ही चाहिये थी।

निष्कर्ष

  • गौरतलब है कि आधार एक कल्याणकारी उद्देश्यों वाली योजना है, जिसकी सहायता से “डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर” जैसे उपक्रमों को आसान बनाया जा सकता है, भ्रष्टाचार में कमी लाई जा सकती है और अपराधियों को कानून की जद में लेना आसान बनाया जा सकता है लेकिन इससे जुड़ी हुई तमाम चिंताओं को नज़रन्दाज करना उचित नहीं कहा जा सकता है।
  • दरअसल, इस संबंध में लम्बे समय से बहस होती आ रही है कि पहले सुधारों के लिये आवश्यक वातावरण का निर्माण किया जाए या सुधार और सुधारों के लिये आवश्यक वातावरण का निर्माण दोनों एक साथ चलता रहे। आधार के संबंध में सरकार की प्रयास निश्चित ही सराहनीय है लेकिन लोगों की निजी सूचनाएँ निजी ही बनी रहें, इसके लिये न्यायपालिका अथवा विधायिका को निजता संबंधी ठोस कानून लाना होगा।
  • यह जानकर हैरानी के साथ-साथ दुःख भी होता है कि हमारे देश में निजता या डाटा की सुरक्षा का कोई कानून तक नहीं है। आधार एक्ट को मनी बिल के तौर पर पेश करना उचित था या नहीं यह निर्णय तो अब न्यायालय को देना है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि आधार एक संवेदनशील मुद्दा है और इसे गंभीरता से लिये जाने की ज़रूरत है।
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