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जैव विविधता और पर्यावरण

विरासत के रूप में वन

  • 18 Oct 2022
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 13/10/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “We need a forest-led COP27” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में वन संरक्षण की स्थिति और प्रौद्योगिकी अनुकूलीकरण के साथ वन अनुकूलीकरण के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

भारत न केवल अपने उत्कृष्ट स्थापत्य निर्माणों और संस्कृति के लिये प्रसिद्ध है, बल्कि अपने सघन एवं विशाल वन विरासत के लिये भी प्रसिद्ध है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021 (State of India Forest Report 2021) के अनुसार देश का कुल वन क्षेत्र इसके भौगोलिक क्षेत्र का 21.71% है।

  • लेकिन वन-आधारित उत्पादों की बढ़ती मांग और परिणामी जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और अतिक्रमण ने इस मूल्यवान संपत्ति को गंभीर क्षति पहुँचाई है। नीति आयोग के अनुसार प्रत्येक वर्ष लगभग 13 मिलियन हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं।
  • इस परिदृश्य में समय की मांग है कि यह समझा जाए कि वन संवहनीयता (forest sustainability) एक विकल्प नहीं है, बल्कि अनिवार्यता है।

वनों का क्या महत्त्व है?

  • पृथ्वी पर एक तिहाई भूमि वनों से आच्छादित है, जो जल चक्र को बनाए रखने, जलवायु को विनियमित करने और जैव विविधता के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • निर्धनता उन्मूलन के लिये भी वन महत्त्वपूर्ण हैं। वन 86 मिलियन से अधिक हरित रोज़गार प्रदान करते हैं। ग्रह के प्रत्येक जीव का वनों से किसी न किसी रूप में संपर्क बना रहा है।
  • वे भारत की आप्लावित मानव जाति—आदिवासियों के घर भी हैं। आदिवासी जन पारिस्थितिक और आर्थिक रूप से वन पर्यावरण का अभिन्न अंग रहे हैं।
  • वन रेशमकीट पालन, खिलौना निर्माण, पत्ती प्लेट निर्माण, प्लाईवुड, कागज और लुगदी जैसे कई उद्योगों के लिये कच्चा माल प्रदान करते हैं।
  • वे प्रमुख और लघु वनोपज भी प्रदान करते हैं:
    • प्रमुख वनोपज में इमारती लकड़ी, गोल लकड़ी, लुगदी-लकड़ी, काष्ठ कोयला और जलावन लकड़ी शामिल हैं
    • लघु वनोपज में बाँस, मसाले, खाद्य फल एवं सब्जियाँ शामिल हैं।

वनों के संबंध में संवैधानिक प्रावधान

  • वनों को भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची में शामिल किया गया है।
    • 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से वनों और वन्यजीवों एवं पक्षियों के संरक्षण के विषय को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित कर दिया गया।
  • संविधान के अनुच्छेद 51A (g) में कहा गया है कि वनों एवं वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण एवं संवर्द्धन प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य होगा।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के तहत अनुच्छेद 48A में कहा गया है कि राज्य पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्द्धन और देश के वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।

वन संरक्षण के लिये सरकार की प्रमुख पहलें

भारत में वन प्रबंधन से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ

  • अपर्याप्त वन आवरण: भारत की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, पारिस्थितिक स्थिरता बनाए रखने के लिये आदर्शतः वन क्षेत्र के अंतर्गत कुल भौगोलिक क्षेत्र का कम से कम 33% होना चाहिये।
    • लेकिन वर्तमान में यह देश के केवल 21.71% भौगोलिक क्षेत्र को कवर करता है और दिन-ब-दिन घटता जा रहा है।
  • अनियमित चराई: भारत में 412 मिलियन से अधिक की पशुधन आबादी है जिसमें से 270 मिलियन गोजातीय पशु हैं और इनका लगभग दसवाँ भाग चराई के लिये वनों पर निर्भर है।
    • कठोर चराई विनियामक ढाँचे की कमी के कारण भारत के कई हिस्सों में अत्यधिक चराई वनों को गंभीर क्षति पहुँचा रही है।
  • जलवायु परिवर्तन का खतरा: जलवायु परिवर्तन कीट प्रकोप, आक्रामक प्रजाति, वनाग्नि और तूफान जैसे वन व्यवधानों की आवृत्ति और त्वरा को प्रभावित करता है। ये बाधाएँ वन उत्पादकता को कम करती हैं और वृक्ष प्रजातियों के वितरण को बदल देती हैं।
    • वर्ष 2030 तक भारत के 45-64% वन जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के प्रभावों का अनुभव कर रहे होंगे।
    • हिमालय क्षेत्र में कई वन प्रजातियाँ पहले से ही उच्च तुंगता की ओर पलायन कर रही हैं और कुछ प्रजातियाँ विलुप्त होने का खतरा भी झेल रही हैं।
      • लाल पूँछ वाला चूहा (Bramble Cay melomys) जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में विलुप्त होने वाला पहला स्तनपायी है।
  • निम्न उत्पादकता: भारत में लकड़ी और लकड़ी आधारित उत्पादों की खपत और उत्पादन के बीच का अंतराल तेज़ी से बढ़ रहा है। 2.1 घन मीटर/हेक्टेयर/वर्ष के वैश्विक औसत उत्पादकता के मुकाबले भारतीय वनों की उत्पादकता मात्र 0.7 घन मीटर/हेक्टेयर/वर्ष है।
    • वन विकास निगमों के विनियमन में व्याप्त खामियाँ निम्न उत्पादकता का एक प्रमुख कारक है। इसके साथ ही, भारत में पूर्वोत्तर क्षेत्र में वनों का एक बड़ा भाग अभी भी अनदेखा रहा है और यह औषधीय क्षेत्र बन सकने की क्षमता रखता है।
  • जनजातियों के साथ अन्याय: भारतीय सभ्यता की पहचान रहे आदिवासी समुदाय अपने अस्तित्व के लिये वन क्षेत्रों पर निर्भरता रखते हैं। यद्यपि वे वन क्षेत्रों में अलग-थलग रहते हैं, फिर भी वनों और प्रजातियों के साथ उनके सौहार्दपूर्ण संबंध हैं।
    • लेकिन वनों की निरंतर कटाई, राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों एवं इको-पार्कों का विकास आदि उनके पर्यावास पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। उनके पर्यावास एवं आजीविका में हस्तक्षेप उन्हें मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार बना रहा है।
      • वर्ष 2014 में स्वदेशी बैगा और गोंड समुदाय के लगभग 450 परिवारों को कान्हा टाइगर रिज़र्व में बाघों के संरक्षण के लिये उनकी भूमि से बेदखल कर दिया गया।
      • वर्ष 2017 में बोडो, राभा और मिशिंग आदिवासी समुदायों के 1,000 से अधिक लोगों को ओरंग राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र से बलपूर्वक बाहर कर दिया गया।

आगे की राह

  • समर्पित वन गलियारा (Dedicated Forest Corridor): वन्य पशुओं के सुरक्षित अंतर्राज्यीय एवं अंतराराज्यीय आवागमन के लिये और बाहरी दखल से उनके पर्यावास की रक्षा के लिये समर्पित वन गलियारों की स्थापना की जा सकती है। इससे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की स्थिति का निर्माण हो सकता है।
  • संसाधन मानचित्रण और वन अनुकूलीकरण: अनन्वेषित वन क्षेत्रों में संभावित संसाधन मानचित्रण किया जा सकता है और वन सघनता एवं स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए उन्हें वैज्ञानिक प्रबंधन एवं संवहनीय संसाधन निष्कर्षण के तहत लाया जा सकता है।
  • आदिवासियों को वन उद्यमी के रूप में देखना: वन विकास निगमों (Forest Development Corporations- FDCs) का पुनरुद्धार करने की आवश्यकता है ताकि वनों के वाणिज्यीकरण को व्यवस्थित रूप दिया जा सके और वन-आधारित उत्पादों की खोज, निष्कर्षण एवं संवृद्धि में आदिवासी समुदायों को ‘वन उद्यमी’ के रूप में संलग्न किया जा सके।
  • वन अपशिष्ट से वन संपदा की ओर: अपशिष्टों को कम करने और उनके पुनर्चक्रण के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जा सकता है। अपशिष्ट के रूप में बड़ी मात्रा में वनों में फेंकी जाने वाली घटिया लकड़ी का अनुकूलन एवं संरक्षण उपचार के माध्यम से बेहतर उपयोग किया जा सकता है।
    • इसके साथ ही, लकड़ी के उत्पादों के लिये मानकों और संहिताओं को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • व्यापक वन प्रबंधन: वन संरक्षण में वनों की रक्षा एवं संवहनीय प्रबंधन के सभी घटक शामिल होने चाहिये, जैसे वनाग्नि पर नियंत्रण के उपाय, समय-समय पर सर्वेक्षण, वनवासी-समर्पित नीतियाँ, मानव-पशु संघर्षों को कम करना और संवहनीय वन्यजीव स्वास्थ्य उपाय।
  • प्रकृति आधारित समाधानों की ओर आगे बढ़ना: नील-हरित अवसंरचना (ग्रीन रूफ, रेन गार्डन या संरचित आर्द्रभूमि) जैसे प्रकृति-आधारित समाधान हवा से CO2 जब्त कर और इन्हें पौधों, मृदा एवं तलछट में जमा कर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम कर सकते हैं।
    • यह वनों के फिर से उगने और आर्द्रभूमि की पुनर्बहाली में भी योगदान कर सकता है।
    • इसके अलावा, दासगुप्ता समीक्षा (जैव विविधता के अर्थशास्त्र पर एक स्वतंत्र समीक्षा) यह पुष्टि करती है कि हरित अवसंरचना (green infrastructure) ग्रे अवसंरचना (grey infrastructure) की तुलना में 2-5 गुना सस्ती है। देश को इस दृष्टिकोण के साथ भी आगे बढ़ने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: वन संवहनीयता एक विकल्प नहीं बल्कि अनिवार्यता है। स्पष्ट करें।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

 Q1.  राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए कौन सा मंत्रालय नोडल एजेंसी है?  (वर्ष 2021)

 (A) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
 (B) पंचायती राज मंत्रालय
 (C) ग्रामीण विकास मंत्रालय
 (D) जनजातीय मामलों के मंत्रालय

 उत्तर-(D)


प्रश्न 2.  भारत में एक विशेष राज्य में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं: (वर्ष 2012)

  1. यह उसी अक्षांश पर स्थित है जो उत्तरी राजस्थान से होकर गुजरती है।
  2. इसका 80% से अधिक क्षेत्र वन आच्छादित है।
  3. इस राज्य में 12% से अधिक वन क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क का गठन करता है।

निम्नलिखित में से किस राज्य में उपरोक्त सभी विशेषताएँ हैं? 

 (A) अरुणाचल प्रदेश
 (B) असम
 (C) हिमाचल प्रदेश
 (D) उत्तराखंड

 उत्तर: (A)

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