इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय राजनीति

देश को मिला पहला लोकपाल

  • 22 Mar 2019
  • 13 min read

संदर्भ

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पिनाकी चंद्र घोष का चयन देश के पहले लोकपाल के लिये किया, जिसे राष्ट्रपति ने विधिवत मंज़ूरी दे दी है। लोकपाल में अध्यक्ष के अलावा चार न्यायिक और चार गैर-न्यायिक सदस्य भी नियुक्त किये गए हैं। न्यायिक सदस्यों में जस्टिस दिलीप बी. भोसले, जस्टिस प्रदीप कुमार मोहंती, जस्टिस अभिलाषा कुमारी और जस्टिस अजय कुमार त्रिपाठी हैं। SSB की पूर्व प्रमुख अर्चना रामसुंदरम और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव दिनेश कुमार जैन तथा महेन्द्र सिंह और इंद्रजीत प्रसाद गौतम को भी गैर-न्यायिक सदस्य बनाया गया है। इसके साथ ही देश में लोकपाल नाम की संस्था अस्तित्व में आ गई है।

लंबे समय से लटका हुआ था मामला

लगभग साढ़े पाँच साल पहले संसद ने लोकपाल कानून पारित कर दिया था, लेकिन इसके बावजूद लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पा रही थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी लोकपाल के नाम पर सहमति देने वाली समिति के सदस्य हैं। दरअसल, लोकपाल की नियुक्ति की जो प्रक्रिया है, उसमें विपक्ष के नेता को भी एक सदस्य के रूप में शामिल किये जाने का प्रावधान है। 2014 के आम चुनाव के बाद लोकसभा का जो गणित बना था, उसमें किसी भी दल को विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं मिला। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने के लिये लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या का कम-से-कम 10% होना ज़रूरी है। ऐसे में कॉन्ग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को लोकसभा अध्यक्ष ने प्रतिपक्ष का नेता नहीं माना। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में दिये एक फैसले में स्पष्ट कर दिया था कि संसद में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता ही नेता प्रतिपक्ष कहलाएगा। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार लोकसभा में कॉन्ग्रेस सबसे बड़ा विपक्षी दल था, लेकिन उसके नेता को केंद्र सरकार ने समिति का विशेष आमंत्रित सदस्य बना दिया। मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह सदस्यता स्वीकार नहीं की और विरोधस्वरूप लोकपाल चयन समिति की बैठकों का बहिष्कार करते रहे।

लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ

  • केंद्र में लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्त होंगे।
  • लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्य होंगे, जिनमें से 50 प्रतिशत न्यायिक सदस्य होंगे।
  • लोकपाल के 50 प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाति /जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होंगे।
कुछ सुरक्षा उपायों के साथ प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में लाया गया है। प्रधानमंत्री के खिलाफ जाँच के लिये लोकपाल की पूर्ण बेंच अध्यक्ष की अगुवाई में बैठगी और दो-तिहाई के बहुमत से फैसला करने पर ही प्रधानमंत्री के खिलाफ जाँच होगी। यह कार्रवाई गोपनीय होगी और अगर शिकायत जाँच लायक नहीं पाई जाएगी तो उसे सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। 
  • सभी श्रेणियों के सरकारी कर्मचारी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएंगे।
  • प्रत्‍येक जनसेवक के लिये इस अधिनियम में वर्णित प्रावधान के अनुसार अपनी परिसंपत्तियों और देनदारियों की घोषणा करना अनिवार्य है और इसमें केंद्र सरकार के कर्मचारी भी शामिल हैं। 
  • विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (FCRA) के संदर्भ में विदेशी स्रोत से 10 लाख रुपए वार्षिक से अधिक का अनुदान प्राप्त करने वाले सभी संगठन लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में होंगे।
  • ईमानदार और सच्चे सरकारी कर्मचारियों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की गई है।
  • CBI सहित किसी भी जाँच एजेंसी को लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की निगरानी करने और निर्देश देने का लोकपाल को अधिकार होगा।
  • लोकपाल द्वारा CBI को सौंपे गए मामलों की जाँच कर रहे अधिकारियों का तबादला लोकपाल की मंज़ूरी से होगा।
  • भ्रष्टाचार के ज़रिये अर्जित संपत्ति की कुर्की करने और उसे ज़ब्त करने का अधिकार, चाहे अभियोजन की प्रक्रिया चल रही हो।
  • प्रारंभिक पूछताछ, जाँच और मुकदमे के लिये स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित की गई है और इसके लिये विशेष न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान है।
  • इस कानून के लागू होने के 365 दिनों के अंदर राज्य विधानसभाओं द्वारा कानून के माध्यम से लोकायुक्तों की नियुक्ति की जानी अनिवार्य होगी।
इस कानून की एक अन्‍य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सिविल सोसाइटी सहित सभी हितधारकों के साथ बार-बार विचार-विमर्श के बाद इसे यह स्वरूप मिला है। स्‍वतंत्र भारत के इतिहास में लोकपाल और लोकायुक्‍त अधिनियम एकमात्र ऐसा कानून है जिस पर संसद के बाहर और भीतर इतने बड़े पैमाने पर विचार-विमर्श किया गया है और इसके कारण भ्रष्‍टाचार से निपटने के लिये लोकपाल जैसी एक प्रभावकारी संस्‍था की आवश्‍यकता के बारे में जनता के मन में जागरूकता पैदा हुई है।

लोकपाल के प्रमुख अधिकार

कोई भी व्यक्ति जनसेवकों के भ्रष्टाचार को लेकर लोकपाल से शिकायत कर सकेगा। शिकायत किस प्रकार से की जाएगी, यह लोकपाल तय करेगा और इसकी जानकारी दी जाएगी। भ्रष्टाचार के मामले में लोकपाल खुद भी संज्ञान लेने में सक्षम होगा।

  • अनुशासनात्मक कार्रवाई: लोकपाल जाँच के दौरान आरोपी अधिकारियों के तबादले, अनुशासनात्मक कार्रवाई या निलंबन का आदेश भी दे सकेगा।
  • सज़ा: भ्रष्टाचार के मामलों में दो से 10 साल तक की सज़ा संभव।
  • ज़ब्ती: जाँच में लोकसेवक के भ्रष्ट तरीकों से अर्जित संपत्ति का पता चलने पर लोकपाल उसे ज़ब्त करेगा।
  • शाखाएँ: लोकपाल देश के अन्य हिस्सों में भी अपनी शाखाएँ खोलने का निर्णय ले सकता है।
मुकदमे की प्रक्रिया: 1. जाँच में दोषी पाए गए अधिकारी के खिलाफ लोकपाल मुकदमा चलाने की अनुमति देगा; 2. संयुक्त सचिव स्तर एवं ऊपर के अधिकारियों के मामले में सरकार से अनुमति लेनी होगी; 3. लोकपाल को मुकदमा चलाने की अनुमति देने के अलावा मुक़दमे को बंद करने का भी अधिकार होगा और 4. एक अभियोजन निदेशक की नियुक्ति CVC की मदद से की जाएगी जो लोकपाल के मुकदमों को देखेगा।

1963 में सामने आई थी लोकपाल की अवधारणा

  • हमारे देश में 1963 में पहली बार लोकपाल की स्पष्ट अवधारणा सामने आई थी। इससे पहले के.एम. मुंशी ने 1960 में संसद में लोकपाल के मुद्दे को उठाया था।
इसके बाद प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग की 1966 की सिफारिश पर 9 मई, 1968 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सरकार में लोकपाल विधेयक पहली बार संसद में पेश हुआ था। उस वक्त लोकपाल विधेयक के दायरे में प्रधानमंत्री को भी रखा गया था। यह विधेयक लोकसभा में पारित भी हुआ, लेकिन राज्यसभा में पारित नहीं हो सका।
  • 1971 में पेश विधेयक में प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के दायरे से हटा लिया गया।
  • 1977 और 1985 में पेश विधेयक में प्रधानमंत्री पद को फिर से लोकपाल के दायरे में लाया गया।
  • 1989 के विधेयक में वी.पी. सिंह सरकार ने इसमें वर्तमान और निवर्तमान प्रधानमंत्री को शामिल कर लिया।
  • 1996 में एच.डी. देवगौड़ा और फिर 1998 व 2001 में भाजपा सरकार ने भी इस विधेयक में प्रधानमंत्री पद को शामिल किया था। हालाँकि तब तक लोकसेवक (Bureaucrats) इस विधेयक के दायरे में शामिल नहीं थे।
  • इसके बाद 2005 में वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया गया। इस आयोग ने भी लोकपाल की जरूरत सरकार के सामने रखी।
  • लोकपाल विधेयक 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005, 2008  और 2011 में पेश किया गया, लेकिन पारित नहीं हो सका।
भारत का लोकपाल विधेयक 17 दिसंबर, 2013 को राज्यसभा और 18 दिसंबर, 2013 को लोकसभा में पारित हो गया। दोनों सदनों में पारित होने के बाद राष्ट्रपति ने भी तत्काल इसे मंज़ूरी प्रदान कर दी थी, लेकिन इसके बावजूद भारत को पहला लोकपाल मिलने में सवा पांच साल का समय लग गया।

राजनीति परिणाममूलक रहे, इसके लिये ज़रूरी है कि राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था लोक की निगरानी में रहे। गांधी जी ने कहा था, ‘सच्चा स्वराज थोड़े से लोगों द्वारा सत्ता हासिल कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग हो, तब सब लोगों द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता जगाकर ही प्राप्त किया जा सकता है।’ अब लोकपाल अस्तित्व में आ गया है तो उम्मीद की जानी चाहिये कि निरंकुश जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों पर कठोर कार्रवाई संभव हो सकेगी। साथ ही लोकपाल से संबद्ध जो पूरक विधेयक लंबित हैं, उनके प्रारूप को भी वैधानिक दर्जा मिलना जरूरी है, तभी लोकपाल जैसे सशक्त प्रहरी की वास्तविक सार्थकता सामने आएगी। लोकसेवकों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का समावेश भी तभी परिलक्षित होगा।

135 से अधिक देशों में है लोकपाल

दुनिया में सबसे पहला लोकपाल 1809 में स्वीडन में गठित किया गया था। स्वीडन समेत दुनिया के अन्य देशों में लोकपाल को ऑम्बड्समैन (Ombudsman) कहा जाता है। इसे नागरिक अधिकारों का संरक्षक माना जाता है और यह एक ऐसा स्वतंत्र और सर्वोच्च पद है जो लोकसेवकों के विरुद्ध शिकायतों की सुनवाई करता है। साथ ही संबंधित जाँच-पड़ताल कर उसके खिलाफ उचित कार्रवाई के लिये सरकार को सिफारिश भी करता है।
स्वीडन के बाद धीरे-धीरे ऑस्ट्रिया, डेनमार्क तथा अन्य स्केंडिनेवियन देशों में और फिर अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका व यूरोपीय देशों में भी ऑम्बड्समैन नियुक्त किये गए। भारत से पहले, 135 से अधिक देशों में ‘ऑम्बड्समैन‘ की नियुक्ति की जा चुकी है।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2