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जैव विविधता और पर्यावरण

आर्कटिक क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

  • 07 Oct 2022
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 03/10/2022 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित “Fast-melting Arctic ice is turning the ocean acidic, threatening life” लेख पर आधारित है। इसमें आर्कटिक क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और अन्य संबंधित मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

उत्तरी ध्रुव के चारों ओर का विशाल क्षेत्र जिसे आर्कटिक क्षेत्र (Arctic region) के रूप में जाना जाता है, पृथ्वी के कुल भू-भाग के लगभग छठे हिस्से में विस्तृत है। यह पर्यावरणीय, वाणिज्यिक और रणनीतिक बाह्य वैश्विक शक्तियों से लगातार प्रभावित हो रहा है और बदले में वैश्विक मामलों की दशा-दिशा को आकार देने में अधिकाधिक वृहत भूमिका निभाने के लिये तैयार है।

  • अभी तक के परिदृश्य के अनुसार, जलवायु परिवर्तन और आर्कटिक आइस कैप का तेज़ी से पिघलना सबसे महत्त्वपूर्ण परिघटना है जो आर्कटिक पर वैश्विक परिप्रेक्ष्य को पुनर्परिभाषित कर रही है।
  • आर्कटिक क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव तटीय राज्यों से भी अधिक गंभीर है। आर्कटिक के संरक्षण, शासन और अन्वेषण के संबंध में मौजूदा चुनौतियों का जवाब देने के लिये वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है।

Arctic-Regions

आर्कटिक क्षेत्र का महत्त्व

आर्थिक महत्त्व:

  • खनिज संसाधन और हाइड्रोकार्बन: आर्कटिक क्षेत्र में कोयले, जिप्सम और हीरे के समृद्ध भंडार के साथ ही जस्ता, सीसा, सोना और क्वार्ट्ज के पर्याप्त भंडार मौजूद हैं। अकेले ग्रीनलैंड में ही विश्व के दुर्लभ मृदा तत्व भंडार का लगभग एक चौथाई भाग मौजूद है।
    • आर्कटिक में अनन्वेषित हाइड्रोकार्बन संसाधनों का खजाना भी है जो विश्व के अप्राप्त प्राकृतिक गैस का 30% है।
    • भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोगी देश है और यह तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश भी है। बढ़ते हुए हिम-गलन से ये संसाधन निष्कर्षण के लिये अधिक सुलभ और व्यवहार्य हो गए हैं।
    • इस प्रकार, आर्कटिक संभावित रूप से भारत की ऊर्जा सुरक्षा आवश्यकताओं और सामरिक एवं दुर्लभ मृदा खनिजों की कमी को संबोधित कर सकता है।
  • भौगोलिक महत्त्व: आर्कटिक विश्व भर में ठंडे और गर्म जल को स्थानांतरित कर विश्व की महासागरीय धाराओं को प्रसारित करने में मदद करता है।
    • इसके अलावा आर्कटिक समुद्री बर्फ ग्रह के शीर्ष पर एक विशाल श्वेत परावर्तक के रूप में कार्य करता है जो सूर्य की कुछ किरणों को अंतरिक्ष में परावर्तित कर देता है, जिससे पृथ्वी को एक समान तापमान पर रखने में मदद मिलती है।
  • भू-राजनीतिक महत्त्व:
    • आर्कटिक से चीन का मुकाबला: आर्कटिक बर्फ के पिघलने के साथ भू-राजनीतिक तापमान भी उस स्तर तक बढ़ गया है जैसा शीत युद्ध के बाद से नहीं देखा गया था। चीन ने ट्रांस-आर्कटिक शिपिंग मार्गों को ‘पोलर सिल्क रोड’ के रूप में संदर्भित किया है और इसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के लिये तीसरे परिवहन गलियारे के रूप में चिह्नित करता है। वह परमाणु आइस-ब्रेकर का निर्माण कर रहा विश्व का दूसरा देश है (रूस के अतिरिक्त)।
    • नतीजतन आर्कटिक में चीन के सॉफ्ट पावर दाँव का मुकाबला करना महत्त्वपूर्ण है; इस क्रम में भारत भी आर्कटिक राज्यों में अपनी आर्कटिक नीति के माध्यम से गहरी दिलचस्पी ले रहा है।
  • पर्यावरणीय महत्त्व:
    • आर्कटिक-हिमालय लिंक: आर्कटिक और हिमालय हालाँकि भौगोलिक रूप से दूर हैं, लेकिन वे परस्पर जुड़े हुए हैं और सदृश चिंताएँ साझा करते हैं।
    • आर्कटिक का पिघलना वैज्ञानिक समुदाय को हिमालय में हिमनदों के पिघलने को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर रहा है। उल्लेखनीय है कि हिमालय को प्रायः 'तीसरा ध्रुव' भी कहा जाता है और उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के बाद यह मीठे जल का सबसे बड़ा भंडार रखता है।
    • इस प्रकार आर्कटिक का अध्ययन भारतीय वैज्ञानिकों के लिये महत्त्वपूर्ण है। इसी क्रम में भारत ने वर्ष 2007 में आर्कटिक महासागर में अपना पहला वैज्ञानिक अभियान लॉन्च किया था और स्वालबार्ड द्वीपसमूह (नॉर्वे) में हिमाद्री अनुसंधान बेस की स्थापना की थी जहाँ अनुसंधान कार्य से सक्रियता से संलग्न है।

आर्कटिक क्षेत्र से संबंधित हाल की चुनौतियाँ

  • आर्कटिक प्रवर्धन (Arctic Amplification): हाल के दशकों में आर्कटिक में वार्मिंग दुनिया के शेष हिस्सों की तुलना में बहुत तेज़ रही है।
    • आर्कटिक में स्थायी तुषार या पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है और इस क्रम में कार्बन और मीथेन मुक्त कर रहा है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों में शामिल हैं, जो बर्फ के पिघलने की दर को और बढ़ा देता है, जिससे आर्कटिक प्रवर्धन की स्थिति बनती है।
  • बढ़ते समुद्र स्तर से संबद्ध चिंता: आर्कटिक की बर्फ के पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है, जो फिर तटीय कटाव को बढ़ाता है और तूफान की संभावनाओं में वृद्धि करता है क्योंकि गर्म हवा और समुद्र का तापमान अधिक आवर्ती और तीव्र तटीय तूफान का संकट उत्पन्न करते हैं।
    • यह भारत को वृहत रूप से प्रभावित कर सकता है जो 7,516.6 किमी लंबी तटरेखा रखता है और जहाँ उसके महत्त्वपूर्ण बंदरगाह शहर अवस्थित हैं।
    • विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट ‘वर्ष 2021 में वैश्विक जलवायु स्थिति’ के अनुसार भारतीय तटरेखा के साथ समुद्र का जल स्तर वैश्विक औसत दर की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ रहा है।
  • उभरते ‘रेस कोर्स’: आर्कटिक में शिपिंग मार्गों और संभावनाओं के द्वार खुलने से संसाधन निष्कर्षण की दौड़ को बल मिल रहा है जो भू-राजनीतिक ध्रुवों का निर्माण कर रहा है और अमेरिका, चीन तथा रूस इस क्षेत्र में अपनी स्थिति और प्रभाव की वृद्धि के लिये होड़ कर रहे हैं।
  • टुंड्रा की अवनति: टुंड्रा अपनी दलदली स्थिति में लौट रहा है क्योंकि अचानक आने वाले तूफान तटीय इलाकों (विशेष रूप से आंतरिक कनाडा और रूस) को तबाह कर रहे हैं और वनाग्नि की घटनाएँ टुंड्रा क्षेत्रों में पर्माफ्रॉस्ट को क्षति पहुंचा रही हैं।
  • जैव विविधता के लिये खतरा: वर्ष भर जमे रहने वाले बर्फ की अनुपस्थिति और उच्च तापमान आर्कटिक क्षेत्र के पशु, पादप और पक्षियों के अस्तित्व को कठिन बना रहे हैं।
  • ध्रुवीय भालुओं (Polar bears ) को सीलों का शिकार करने के साथ ही अपने वृहत घरेलू क्षेत्र में आवाजाही के लिये समुद्री बर्फ की आवश्यकता होती है। बर्फ के कम होते जाने से आर्कटिक की अन्य प्रजातियों के साथ ही ध्रुवीय भालुओं के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो रहा है।
  • इसके अलावा गर्म होते समुद्र मछली प्रजातियों के ध्रुव की ओर आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे हैं जिससे खाद्य वेब में फेरबदल की स्थिति बन रही है।

आगे की राह

भारत के लिये अवसर:

  • समग्र सरकार स्तर का फोकस: वर्तमान में नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च (NCPOR) ध्रुवीय और दक्षिणी महासागर क्षेत्रों से संबंधित विषयों को देखता है। विदेश मंत्रालय आर्कटिक परिषद (Arctic Council) को बाह्य इंटरफ़ेस प्रदान करता है।
    • आर्कटिक अनुसंधान एवं विकास से स्पष्ट रूप से संबद्ध होने और आर्कटिक से संबंधित भारत सरकार की सभी गतिविधियों का समन्वय करने के लिये एक एकल नोडल निकाय का गठन करने की आवश्यकता है।
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परे जाना: भारत को आर्कटिक में विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परे जाने की भी आवश्यकता है।
    • वैश्विक मामलों में अपने बढ़ते कद और मंतव्य दे सकने की अपनी क्षमता को देखते हुए भारत को आर्कटिक जनसांख्यिकी एवं शासन की गतिशीलता को समझने और आर्कटिक जनजातियों की अभिव्यक्ति बनने तथा वैश्विक मंचों पर उनके मुद्दों को उठाने के लिये एक सुदृढ़ स्थिति में होना चाहिये।
  • वैश्विक महासागर संधि की ओर: वैश्विक महासागर शासन को निगरानी के दायरे में रखना और ध्रुवीय क्षेत्रों एवं संबंधित समुद्र स्तर वृद्धि की चुनौतियों पर विशेष ध्यान देने के साथ एक सहयोगपूर्ण वैश्विक महासागर संधि (Global Ocean Treaty) की दिशा में प्रगति करना महत्त्वपूर्ण है।
  • सुरक्षित और संवहनीय अन्वेषण: आर्कटिक क्षेत्र में सुरक्षित और संवहनीय संसाधन अन्वेषण एवं विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जहाँ संचयी पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में रखते हुए कुशल बहुपक्षीय कार्रवाइयाँ की जानी चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: आर्कटिक क्षेत्र में तेज़ी से हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव तटीय राज्यों से भी अधिक गंभीर है। टिप्पणी कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

Q. कभी-कभी खबरों में दिखने वाला शब्द 'इंडार्क' (IndARC) का नाम है: (वर्ष 2015)

(A) भारतीय रक्षा में शामिल किया गया एक स्वदेशी रूप से विकसित रडार प्रणाली
(B) हिंद महासागर रिम के देशों को सेवाएँ प्रदान करने के लिये भारत का उपग्रह
(C) अंटार्कटिक क्षेत्र में भारत द्वारा स्थापित एक वैज्ञानिक प्रतिष्ठान
(D) आर्कटिक क्षेत्र का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करने के लिए भारत की पानी के नीचे की वेधशाला

उत्तर: (D)


मुख्य परीक्षा

 Q.1 आर्कटिक क्षेत्र के संसाधनों में भारत क्यों रुचि ले रहा है?  (वर्ष 2018)

 Q.2 आर्कटिक सागर में तेल की खोज और इसके संभावित पर्यावरणीय परिणामों के आर्थिक महत्त्व क्या हैं?  (वर्ष 2015)

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