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कृषि नीति में एक मूलभूत विरूपण

  • 19 Jun 2017
  • 11 min read

संदर्भ

  • कृषि संकट जिस तरह से आजकल चर्चा में है, उससे यह स्पष्ट होता है कि कृषि के प्रति समग्र दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से सक्रिय सोच के बजाय प्रतिक्रियाशीलता  द्वारा चिन्हित है। 
  • कृषि संबंधी लगभग सभी नीतियाँ मूल्य  को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। समर्थन कीमतों पर अधिक बल देने से यह न केवल कृषि बाज़ारों को विकृत करता है, बल्कि भंडारण की समस्या भी पैदा करता है। 
  • आश्चर्य की बात है कि हमारा ध्यान फसल उत्पादकता बढ़ाने की ओर से, जो कि कृषि की अनेक समस्याओं का सही उत्तर है, विक्षेपित हो गया है। यह माना जाता है कि उचित मूल्य  प्राप्त करना ही सभी समस्याओं का रामबाण है। प्रस्तुत आलेख में इन्हीं विषयों पर प्रकाश डाला गया है।  

 न्यूनतम समर्थन मूल्य  का निर्धारण

  • न्यूनतम समर्थन मूल्य  के साथ चार प्रमुख मुद्दे हैं। प्रथम- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की अवधारणा ने बाज़ार  को विकृत कर दिया है। यह धान और गेहूं के लिये  प्रभावी है, जबकि यह अन्य फसलों के लिये  केवल संकेत है। 
  • एमएसपी को बाज़ार  की गतिशीलता के साथ जोड़ने के बजाय, किसानों के हितों के अनुरूप बढ़ाने से कीमत निर्धारण प्रणाली विकृत हो गई है। इसलिये, जब सोयाबीन की  एमएसपी बढ़ती है, तब बाज़ार  की कीमतों में बढ़ोतरी होगी, भले ही फसल अच्छी हो, क्योंकि एमएसपी एक बेंचमार्क तय  करती  है। एमएसपी एक उचित बाज़ार  मूल्य  बनने के बजाय आय-निर्धारित करने वाली  बन जाती  है। इसका मुद्रास्फीति में भी योगदान है।
  • दूसरा- सरकार द्वारा एमएसपी के नीचे होने वाली बिक्री को अपराध ठहराने के इच्छा का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि एमएसपी विभिन्न वर्गों के बीच अंतर नहीं करता है; बल्कि यह एक औसत उचित गुणवत्ता को संदर्भित करता है।
  • उच्च गुणवत्ता की फसल को आधार मूल्य  पर बिक्री के लिये  बाध्य करने से, किसानों और व्यापारियों दोनों की स्थिति एक जैसी हो जाती है। ऐसी नीतियाँ  किसानों को अपने मानकों को कम करने और निम्न किस्मों के उत्पादन के लिये  प्रेरित करेंगी जिससे क्रेता कम गुणवत्ता वाली अन्न के लिये उच्च मूल्य  का भुगतान करने को अनिच्छुक होगा, और इससे गतिरोध हो सकता है।
  • तीसरा- धान और गेहूं के लिये  खरीद तय की गई है, जो सीधे पीडीएस से जुड़ी हुई है। एक के पीछे एक व्यवस्था अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन यह कुछ विशिष्ट फसलों तक सीमित होती है। इसके अलावा, एक खुली समाप्ति योजना (ओपन एंडेड स्कीम) होने पर, एफसीआई के पास अधिशेष अनाज का बाढ़ आ जाता है, जिससे भंडारण और अपव्यय की समस्याएँ  उत्पन्न होती हैं। 
  • अतीत में यह देखा गया है कि दालों, चीनी और तिलहन के उत्पादन में तेज़ी आने से बाज़ार की कीमतें  परेशान हो जाती हैं। इसलिये ऐसी सभी भेद्य (vulnerable) वस्तुओं का न्यूनतम स्टॉक बनाए  रखने की आवश्यकता है। इसलिये, यदि इसे अर्थपूर्ण बनाना है तो अन्य वस्तुओं के लिये  भी खरीद और मूल्य  स्थिरीकरण के  उपाय किये  जाने चाहिए।
  • चौथा- थोक व्यापारी और फुटकर विक्रेता द्वारा जमा की जाने वाली राशि को प्रतिबंधित करने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसी भी समय लागू किया जा सकता है। चूँकि यह अवधारणा सही लगती है, क्योंकि यह जमाखोरी से निपट सकती है, परन्तु जो बात भुला दी जाती है वह यह है कि अधिकांश फसलें वर्ष में एक बार ही काटी  जाती हैं  और शेष वर्ष के लिये  संग्रहीत की जाती हैं । 
  • किसी न किसी को फसल का भण्डारण करना ही पड़ता है, अन्यथा इसे उपभोक्ताओं के लिये पूरे वर्ष उपलब्ध नहीं किया जा सकता है। इसमें गुणवत्ता के नुकसान के जोखिम के साथ-साथ लागत की जोखिम भी शामिल है, जो मध्यस्थ द्वारा वहन किया जाता है। अतः प्रश्न यह है कि कोई भंडारण और संग्रहण के बीच अंतर कैसे कर सकता है?
  • पाँचवा- कृषि उत्पादों के लिये  हमारी व्यापार नीति भी विकृत है। जैसे जब अन्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहता है तब फसल उत्पादन में कमी के समय, अन्न की कमी की पहचान करने और बोली प्रक्रिया के माध्यम से आयात करने में अधिक समय लग जाता है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि जब तक अन्न का आयात होता है तब तक  मूल्य  सामान्य हो जाता है। 
  • भारत में अधिशेष गेहूं या चावल निर्यात करने के लिये कोई नीति नहीं हैं। अगर फसल उत्पादन में कोई चक्रीय विफलता उत्पन्न होती है तो सरकार पर पिछले वर्षों में कमोडिटी निर्यात करने का दोष लगाया जाता है। वर्ष 2010 में चीनी के साथ ऐसा ही हुआ था। इसलिये, अन्न के आयात-निर्यात एवं उनकी रणनीति को  इस तरह परिभाषित किया जाना चाहिये  ताकि उनको सरलता से लागू किया जा सके।

ऋण माफी की चिंतायें

  • जहाँ तक ऋण माफी का प्रश्न है तो एनपीए (NPAs) ऐसी नीतियों का परिणाम है, जो कि किसानों की आय और ऋण चुकाने की क्षमता को मोड़ देते हैं। 
  • किसान पिछले साल की कीमतों के आधार पर फसलों का चयन करते हैं। जब किसान बड़ी संख्या में किसी  फसल को उगाते हैं, जैसाकि 2016 में तुर (Tur) की फसल के साथ देखा गया था, तब अधिक उत्पादन के कारण कीमतें नीचे गिर जाती हैं। यह एक ऐसी असंगत स्थिति है जब  किसानों का संकट तथा अधिशेष-उत्पादन दोनों साथ- साथ उत्पन्न होते हैं। सरकार इन अधिशेषों को अवशोषित करने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि इस तरह की कोई व्यवस्था देश में नहीं है। 
  • अब मध्य प्रदेश में जो निर्णय लिया गया है, जहां व्यापारियों को उच्च मूल्य  पर सोयाबीन खरीदने के लिये बाध्य किया गया है, उससे अलग प्रकृति की समस्याएं पैदा होती हैं। इस तरह एमएसपी और खरीद का अभाव दोनों ने देश के कई हिस्सों में वर्तमान संकट को आगे बढ़ाने का कार्य किया है।

ऋण माफी की अवधारणा दोषपूर्ण है

  • ऋण माफी की अवधारणा स्वाभाविक रूप से दोषपूर्ण है। किसी भी ऋण को क्षमा करना एक नैतिक संकट पैदा करता है, क्योंकि यह उन लोगों को दंडित करता है, जो आज्ञाकारी हैं। इससे किसान को एक प्रतिकूल प्रोत्साहन मिलता है कि भविष्य में फिर इसी तरह की छुट मिल सकती है। इस तरह कृषि ऋण माफी योजना एक ऐसा संसर्ग बन जाती है, जिसे सभी राज्यों के किसान उसी अनुदान की मांग करने लगते हैं और यह अंत में  राज्य वित्त के लिये  भयावह हो जाता है।
  • तो फिर इसका क्या हल हो सकता है? एमएसपी को खरीद के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जिसकी एक सीमा होनी चाहिये  अन्यथा बाज़ार  में फिर विकृति उत्पन्न होगी। 

राष्ट्रीय कृषि बाज़ार

  • किसान को उसकी आय की सुरक्षा के बजाय, अन्न उत्पादकता बढ़ाने के लिये  प्रोत्साहन मिलना चाहिये, जिसका अर्थ बीज और सिंचाई तक पहुँच हो सकती  है। राष्ट्रीय कृषि बाज़ार  को मूर्त  रूप देना इसका  दीर्घकालिक समाधान है, लेकिन इसे अनुबंध खेती से या कस्बों और शहरों में प्रत्यक्ष बिक्री के साथ जोड़ने से यह और बेहतर हो सकता है। मांग-आपूर्ति गतिशीलता को प्रतिबिंबित करने के लिये  कीमतें हमेशा बाज़ार  द्वारा निर्धारित की जानी चाहिये, एवं इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। 

फसलों का बीमा

  • किसानों की आय बढ़ाने के लिये  कीमतों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि समस्याग्रस्त क्षेत्रों में सभी फसलों का बीमा हो। सभी कृषि ऋणों को बीमा से जोड़ा जाना चाहिये ताकि बैंक को ऋण हानि से सुरक्षा मिल सके।

अंतिम उपाय

  • ऋण माफी अंतिम उपाय होना चाहिये और हमेशा सशर्त होना चाहिये ताकि धोखा देने के लिये  कोई प्रोत्साहन न हो। यह सुनिश्चित करने के लिये कि कोई भी प्रतिकूल चयन नहीं हो इसका मानदंड कठोर होना चाहिए, जो कि राजनीतिक हस्तक्षेप के स्तर को देखते हुए एक चुनौती है। 

निष्कर्ष

  • अतः यह कहा जा सकता है कि खेती की समस्या के निदान के लिये पूरे दृष्टिकोण पर फिर से विचार किये  जाने की आवश्यकता है तथा हमें अल्पकालिक व भावपूर्ण दृष्टिकोण से भी बचना चाहिए।
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