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मध्य भारत में अगले 50 वर्षों में वर्षा में कमी आने का अनुमान

  • 19 Apr 2018
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?
कुछ दिनों पहले भारतीय मौसम वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि अब से अगले 50 वर्षों में मध्य भारत क्षेत्र में वर्षा में काफी कमी आ सकती है। इसका मुख्य कारण निम्न दबाव प्रणालियों (Low Pressure Systems-LPS) के निर्माण में कमी आना हो सकता है जिनके कारण सामान्यतः इस क्षेत्र में वर्षा होती है।

प्रमुख बिंदु

  • अध्ययन के अनुसार मध्य भारतीय क्षेत्र निम्न दबाव क्षेत्रों के निर्माण की आवृत्ति में 45 प्रतिशत की गिरावट आएगी जिससे यहाँ वर्षण में कमी आ सकती है जबकि यह वर्षा सिंचित क्षेत्र है।
  • वर्षा की मात्रा में गिरावट का अनुभव 2065 से 2095 के मध्य के दशकों में किया जाएगा।
  • जबकि, भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम), आईआईटी दिल्ली, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा किये गए अध्ययन में यह बताया गया है कि उत्तर भारतीय मैदानी क्षेत्रों के ऊपर निम्न दबाव क्षेत्रों के निर्माण में 10 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है जिससे इस क्षेत्र में अतिवर्षा की स्थिति पैदा हो सकती है।
  • निम्न दबाव क्षेत्रों का निर्माण बंगाल की खाड़ी में होता है। वहाँ से ये ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरफ गमन करते हैं। यह क्षेत्र कोर मानसून ज़ोन कहलाता है।
  • आईआईटीएम के वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार “वर्षा में इस कमी का एक प्रमुख कारण मानसून काल के समय अरब सागर से आने वाली नमी युक्त पछुआ पवनों में होने वाली वृहद् स्तरीय कमी हो सकता है। इन्हें मानसून परिसंचरण (monsoon circulations) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इन पछुआ पवनों का आगे की ओर प्रस्थान के समय अपने सामान्य ट्रैक से उत्तर की ओर स्थानांतरण भी हुआ है।
  • कोर मानसून ज़ोन का अध्ययन करने का प्रमुख कारण मानसून के बारे में बेहतर समझ विकसित करना है क्योंकि जून से सितंबर के मध्य मानसून के दौरान अधिकांश निम्न दबाव क्षेत्र इसी क्षेत्र से गुज़रते हैं। 
  • भोपाल के बाहरी इलाके में आईआईटीएम द्वारा एक नई टेस्ट-बेड फैसिलिटी (test-bed facility) स्थापित की जा रही है ताकि इन प्रमुख बारिश धारक प्रणालियों (rain-bearing systems) का अध्ययन किया जा सके।
  • प्रत्येक गुज़रते वर्ष के साथ ग्लोबल वार्मिंग और अधिक बढ़ती जा रही है और तापमान के सारे रिकॉर्ड टूटते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त इस मध्य भारतीय क्षेत्र में मानसून पर इस ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव अपरिहार्य माना जा रहा है।
  • हाल ही में भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department) द्वारा अनुमान व्यक्त किया गया है कि देश में 97% दीर्घावधि औसत (long period average - LPA) के साथ  लगातार तीसरे वर्ष मानसून सामान्य रहेगा।

क्या है ग्लोबल वार्मिंग?

  • प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन और मानवीय क्रियाओं के कारण वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, मीथेन आदि गैसों की मात्रा बढ़ती जा रही है।
  •  कार्बन-डाइ-ऑक्साइड जैसी गैसें ऊष्मा को रोककर पृथ्वी को गर्म रखने का कार्य करती हैं। यदि वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड उपस्थित न होती तो पृथ्वी एक बर्फीले रेगिस्तान से अधिक और कुछ नहीं होती।
  •  लेकिन, वायुमंडल में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से जितनी ऊष्मा पृथ्वी को गर्म रखने के लिये चाहिये उससे कहीं ज़्यादा ऊष्मा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड द्वारा रोक ली जा रही है, जिसके कारण औसत तापमान में खतरनाक वृद्धि हुई है। यही ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने का कारण है।
  • जब ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी तो ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघलेगी, समुद्र का जल-स्तर बढ़ेगा और दुनिया के कई बड़े शहर जलमग्न हो जाएंगे।
  • ऐसा अनुमान व्यक्त किया जाता है कि आज के तापमान और आखिरी हिमयुग के तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस का अंतर है। 
  • जलवायु परिवर्तन से निपटने का एकमात्र तरीका कार्बन-डाइऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है।
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