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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

जुड़वाँ बैलेंस शीट की समस्या

  • 06 Feb 2017
  • 7 min read

पृष्ठभूमि

भारत की अर्थव्यवस्था में बैंकिंग क्षेत्र से जुड़ी समस्याएँ एक काले धब्बे की भाँति प्रतीत होती है| संभवतः यही कारण है कि वर्ष 2016 -17 के आर्थिक सर्वेक्षण के एक पूरे खंड में ऋण के कारण तनावपूर्ण अवस्था में पहुँची कंपनियों तथा बैंकों की जुड़वाँ बैलेंस शीट की समस्या (Twin-Balance Sheet Problem) की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है| 

  • कॉर्पोरेट क्षेत्र की उच्च शक्ति युक्त बैलेंस शीट की समस्या से गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों (Non-performing assets - NPAs) में वृद्धि होती है| अतः केंद्र सरकार द्वारा यह विश्वास व्यक्त किया गया है कि एनपीए की इस समस्या के समाधान हेतु कॉर्पोरेट बैलेंस शीट के तनाव को कम किये जाने की प्रबल आवश्यकता है| 
  • हालाँकि, यह विवाद का विषय हो सकता है परन्तु यह स्पष्ट है कि ये समस्याएँ भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निहित अंतर्विरोधों का स्पष्ट वर्णन करती हैं| 

कुछ नया नहीं

  • सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्ति पुनर्निर्माण एजेंसी (Public Sector Asset Reconstruction Agency - PARA) का प्रदर्शन केवल इसलिये निराशाजनक रहा है क्योंकि इसके अंतर्गत कुछ भी नया प्रदान नहीं किया गया है| “पारा” (PARA) के विषय में आर्थिक सर्वेक्षण में भी इसी बात पर बल दिया गया है| 
  • सर्वेक्षण के अंर्तगत जुडवाँ बैलेंस शीट की समस्या से निपटने के लिये ऋण प्रबंधन के लिये एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया गया है|
  • वस्तुतः एनपीए कुछ बड़ी कंपनियों (मुख्यतः प्रमुख उद्योगों और अवसंरचना से संबद्ध) के तनावग्रस्त धन प्रवाह में कुशासन की अपेक्षा आर्थिक मंदी के परिणामस्वरूप हुई वृद्धि का प्रतीक होती हैं|
  • हालाँकि, उक्त सभी समस्याओं का समाधान ऋणों को सटीक एवं व्यवस्थित ढंग से सूचीबद्ध करके भी निकाला जा सकता है|
  • यद्यपि इस समस्या के समाधान हेतु भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा कई योजनाएँ आरम्भ की गई हैं, परन्तु उनके अंतर्गत भी ऋणों को व्यस्थित रूप से सूचीबद्ध नहीं किया जाता है|

अन्य पक्ष 

  • इस सन्दर्भ में, हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि एनपीए की समस्या आर्थिक परिवेश में होने वाले अप्रत्याशित परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होती है, जिसका अर्थ यह है कि मात्र विकास से ही तनावग्रस्त फर्मों की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता|
  • गौरतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एनपीए के क्षेत्रीय वितरण ने कुछ अन्य मुद्दों को भी उजागर किया है| हालाँकि, एनपीए से संबंधित ये सभी मुद्दें केवल कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है| यही कारण है कि ये आर्थिक तनाव की मुख्य वजह बनते जा रहे हैं|
  • इस सन्दर्भ में एक अन्य समस्या यह है कि यदि व्यथित ऋणों को केवल कुछ बड़ी कंपनियों और कुछ क्षेत्रों जैसे अवसंरचना, ऋण पुनर्गठन (जो बैंक आरम्भ करते हैं) तक ही सीमित कर दिया जाता है तो इससे कुछ परिणाम अवश्य निकलकर सामने आएँगे| तथापि ये परिणाम इन दोनों क्षेत्रों के वित्तपोषण के साथ-साथ जुड़वाँ बैलेंस शीट से संबंधित वास्तविक समस्या का समाधान निकाल पाने में सक्षम नहीं हैं|
  • वस्तुतः ये सभी स्थितियाँ वित्तीय क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं को आधार प्रदान करने का कार्य करती हैं| 
  • हालाँकि, ये सभी ऋण के मूल्य और पुनर्भुगतान से संबंधित मामलें हैं| इसमें कोई संदेह नहीं कि अवसंरचनात्मक क्षेत्र में बैंकों के जोखिम और एनपीए के स्तर में बढ़ोतरी ऋण के विशेष मामलों के लिये स्थापित संस्थाओं जैसे आईडीबीआई और आईसीआईसीआई की समाप्ति के पश्चात् समाप्त होने की प्रबल सम्भावना है|
  • अंततः अभी तक “पारा” का परिचालन मॉडल स्पष्ट नहीं हो पाया है| यद्यपि इसके संबंध में बहुत सी मान्यताएँ पेश की गई हैं जो कि मूलत: पुराने विषयों पर ही आधारित हैं, जिनके अंतर्गत सरकारी प्रतिभूतियों का हस्तांतरण करने, इसके लिये सरकारी समर्थन प्राप्त करने तथा पूंजी बाज़ार की स्थापना जैसे विषयों को शामिल किया गया है|
  • इस विषय में प्रकाशित कुछ रिपोर्टों के अनुसार, इस सन्दर्भ में निजी परिसम्पत्ति पुनर्निर्माण कंपनियाँ private asset reconstruction companies (ARCs) असफल साबित हुई हैं| वस्तुतः इसका प्रमुख कारण ऋणों के सही मूल्य को न समझ पाना रहा है, जिसका प्रभाव वस्तुओं की कम कीमतों के रूप में परिलक्षित हुआ|
  • हालाँकि, “पारा” के तहत उन सभी कार्यों को मूर्त रूप प्रदान किया जाता है जिन्हें बैंकों द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता है| इसके अंतर्गत अनुपस्थित ऋणों को सूचीबद्ध करने के साथ-साथ कंपनियों को अधिगृहित करने का कार्य किया जाता है|
  • इस सन्दर्भ में ऋण का वितरण तथा मूल्यांकन दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनके विषय में सुधार किये जाने की प्रबल आवश्यकता है|
  • इसके अतिरिक्त, उन सभी विशेष एजेंसियों के विषय में भी पुनर्समीक्षा किये जाने की आवश्यकता है जिनके द्वारा बड़ी-बड़ी कंपनियों को आवश्यकता अनुसार ऋण बाज़ार उपलब्ध कराने तथा एनपीए जैसी बड़ी समस्या के मूल को न समझ पाने जैसे बड़ी चूक हुई है|
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