इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय राजनीति

उच्चतम न्यायालय का नॉन-स्पीकिंग आदेश

  • 02 Mar 2020
  • 10 min read

प्रीलिम्स के लिये:

उद्देशिका, अनुच्छेद 14 , अनुच्छेद 21, मध्य प्रदेश इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड केस

मेन्स के लिये:

भारतीय न्यायपालिका का परिवर्तनकारी रूप

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सबरीमाला समीक्षा याचिका से उपजे प्रारंभिक मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के नौ न्यायाधीशों वाली बेंच ने एक नॉन-स्पीकिंग आदेश (Non-Speaking Order) का सहारा लिया। इसे भारतीय न्यायपालिका के परिवर्तनकारी रूप के तौर पर देखा जा रहा है। इसने परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद (Transformative Constitutionalism) की अवधारणा को पुनः चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

नॉन-स्पीकिंग आदेश क्या है?

  • एक नॉन-स्पीकिंग आदेश में व्यक्ति अदालत द्वारा दिये गए निर्णय के कारणों को नहीं जान पाता है और न ही यह जान पाता है कि निर्णय तक पहुँचने में अदालत ने क्या-क्या विचार किया है?
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि निचली अदालतें कुछ मामलों में ही नॉन-स्पीकिंग आदेश पारित कर सकती हैं। उच्चतम न्यायालय भी इसका उपयोग सावधानीपूर्वक करता है।

मुख्य बिंदु:

  • उच्चतम न्यायालय के नॉन-स्पीकिंग आदेश को उचित नहीं माना जाता है। संवैधानिक लोकतंत्र में विधि के शासन के तहत एक ‘तर्कपूर्ण निर्णय’ अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
  • विभिन्न मामलों में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि स्पीकिंग आदेश ‘न्यायिक जवाबदेही एवं पारदर्शिता’ को बढ़ावा देते हैं और ये ‘न्यायिक प्रशासन के प्रति लोगों के विश्वास’ को बनाए रखता है। स्पीकिंग आदेश से अदालतों के निर्णयों में स्पष्टता आती है और निरंकुशता की संभावना कम-से-कम होती है।
    • न्यायिक पारदर्शिता: पारदर्शिता आधुनिक लोकतंत्रों की एक मूलभूत विशेषता है। यह सार्वजनिक मामलों में नागरिकों के नियंत्रण एवं उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करने में मदद करती है। न्यायिक प्रणालियों के खुले संचालन से न्यायपालिका से लेकर समाज तक सूचनाओं का प्रवाह बढ़ता है जिससे लोगों को न्यायपालिका के प्रदर्शन एवं फैसलों के बारे में जानने में मदद मिलती है। भारत में सर्वोच्च न्यायपालिका के लिये विशेषकर न्यायाधीशों की नियुक्ति और न्याय प्रशासन के संबंध में पारदर्शिता का मुद्दा प्रमुख है।
  • जो संस्थाएँ भारत के संविधान के तहत दूसरों पर संवैधानिक नियमों का प्रयोग करती हैं उन सभी के लिये एक वैध अनुशासन होने के अलावा उनके द्वारा दिये गए फैसलों के कारणों की रिकॉर्डिंग को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्रत्येक निर्णय का मुख्य बिंदु’, ‘न्यायिक निर्णय लेने के लिये जीवन रक्त’ और ‘प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत’ के रूप में वर्णित किया है।

प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत

(Principle of Natural Justice):

  • भारत के संविधान में कहीं भी प्राकृतिक न्याय का उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि भारतीय संविधान की उद्देशिका, अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को मज़बूती से रखा गया है।
    • उद्देशिका: संविधान की उद्देशिका में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय, विचार, विश्वास एवं पूजा की स्वतंत्रता शब्द शामिल हैं और प्रतिष्ठा एवं अवसर की समता जो न केवल लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों में निष्पक्षता सुनिश्चित करती है बल्कि व्यक्तियों के लिये मनमानी कार्रवाई के खिलाफ स्वतंत्रता हेतु ढाल का कार्य करती है, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का आधार है।
    • अनुच्छेद 14: इसमें बताया गया है कि राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। यह प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह नागरिक हो या विदेशी सब पर लागू होता है।
    • अनुच्छेद 21: वर्ष 1978 के मेनका गांधी मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के तहत व्यवस्था दी कि प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता को उचित एवं न्यायपूर्ण मामले के आधार पर रोका जा सकता है। इसके प्रभाव में अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षा केवल मनमानी कार्यकारी क्रिया पर ही उपलब्ध नहीं बल्कि विधानमंडलीय क्रिया के विरुद्ध भी उपलब्ध है।

मध्य प्रदेश इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड केस

(Madhya Pradesh Industries Ltd. Case)

  • मध्य प्रदेश इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड मामले में न्यायमूर्ति सुब्बा राव के. ने कहा है कि ‘किसी भी निर्णय में कारण बताने की शर्त अदालत के निर्णयों में स्पष्टता को दर्शाती है और किसी भी स्थिति में बहिष्करण या निरंकुशता को कम करती है। यह उस पक्ष को संतुष्टि देता है जिसके खिलाफ आदेश दिया जाता है और इस आदेश के द्वारा न्यायाधिकरण की प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने के लिये एक अपीलीय या पर्यवेक्षी अदालत को भी सक्षम बनाता है।’

परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद

(Transformative Constitutionalism)

  • ‘परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कार्ल क्लारे (Karl Klare) ने किया था। कार्ल क्लारे बोस्टन में नॉर्थ-ईस्टर्न यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ में श्रम एवं रोज़गार कानून तथा कानूनी सिद्धांत के प्रोफेसर हैं।
  • हाल ही में संवैधानिक न्याय-निर्णयन में ‘परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद’ शब्द प्रचलन में आया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा अवधारणा के इस व्यापक सिद्धांत को स्पष्ट किया जाना अभी बाकी है किंतु इसे अन्य न्यायालयों में रद्द कर दिया गया है।
  • भारत में अधिक न्यायसंगत समाज की अवधारणा सुनिश्चित करने के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा उपयोग किये जाने वाले एक साधन के रूप में परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद की अवधारणा प्रमुखता से उभर कर आई है। इसके प्रमुख उदाहरण हैं- वर्ष 2014 का नालसा (NALSA) जजमेंट (जिसने थर्ड जेंडर के अधिकारों को मान्यता दी), नवतेज सिंह जौहर मामला, वर्ष 2018 का सबरीमाला फैसला (इसमें अभी अंतिम निर्णय आना बाकी है)।
    • संविधान के संरक्षक और व्याख्याकार के रूप में उच्चतम न्यायालय की भूमिका ने भारत के संविधान को एक अपरिवर्तनकारी दस्तावेज़ के बजाय एक परिवर्तनकारी दस्तावेज़ के रूप में भारतीय संविधान की बढ़ती मान्यता के साथ जोड़कर इन परिवर्तनों को लाने में सक्षम बनाया है।

नवतेज सिंह जौहर मामला और परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद:

  • नवतेज सिंह जौहर मामले में विचार व्यक्त किया गया था कि न्यायालय की भूमिका समाज के कल्याण के लिये संविधान के मुख्य उद्देश्य एवं विषय को समझना है। हमारा संविधान ‘समाज के कानून’ की तरह एक जीवंत जीव है। यह तथ्यात्मक एवं सामाजिक यथार्थ पर आधारित है जो लगातार बदल रहा है। कभी-कभी कानून में बदलाव सामाजिक परिवर्तन से पहले होता है और सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने का प्रयोजन भी होता है और कभी-कभी कानून में बदलाव सामाजिक यथार्थ का परिणाम होता है।
  • एक अन्य उदाहरण में दक्षिण अफ्रीका के संवैधानिक न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पायस लांगा (Pius Langa) ने तर्क दिया कि ‘परिवर्तनकारी संवैधानिकतावाद’ कानूनी संस्कृति के एक ‘प्राधिकार’ के बजाय ‘औचित्य’ पर आधारित होती है।

आगे की राह

  • उपरोक्त प्रकरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नॉन-स्पीकिंग आदेश जारी करने और उसके पश्चात् तर्क देने की प्रक्रिया संवैधानिक शासन के सिद्धांत का एक अंग है। न्यायिक फैसलों का ‘कारण’ देने का कर्त्तव्य न्यायिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

स्रोत: द हिंदू

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2