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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

स्कूलों में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता कितनी सार्थक?

  • 16 Jan 2017
  • 6 min read

सन्दर्भ

  • शिक्षा पर सचिवों के एक समूह ने केंद्र सरकार को प्रत्येक स्कूल में अंग्रेज़ी अनिवार्य करने और हर प्रखंड में कम-से-कम एक अंग्रेज़ी माध्यम सरकारी स्कूल खोलने की सलाह दी है। गौरतलब है कि सचिवों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुझाव दिया है कि आने वाले अप्रैल माह से देश के सभी माध्यमिक विद्यालयों (Secondary schools) में अंग्रेज़ी पढ़ाया जाना अनिवार्य कर देना चाहिये।
  • इसके अलावा, देश के सभी 6,612 प्रखंडों में कम-से-कम एक अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा देने वाला सरकारी विद्यालय खोलने की भी सलाह दी गई है। प्रधानमंत्री को ये सुझाव शैक्षिक एवं सामाजिक विकास विभाग के सदस्यों द्वारा दिये गए हैं। 
  • अधिकारियों द्वारा अंग्रेज़ी के साथ-साथ विज्ञान पर भी ज़ोर देने के लिये कहा गया है। विदित हो कि छठी कक्षा से ऊपर वाले सभी स्कूलों में अनिवार्य रूप से अंग्रेज़ी पढ़ाए जाने पर ज़ोर दिया गया है।
  • गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अक्तूबर में सचिवों के 10 समूह बनाए थे। इन सभी को केंद्र सरकार के कार्य पर नज़र रखने, उसकी नीतियों को देखने और उनके प्रभाव के बारे में बताने का काम सौंपा गया था।

यह स्वागत योग्य कदम क्यों है?

  • यह सच है कि वैश्वीकरण के इस युग में अंग्रेज़ी भाषा की महत्ता हर देश में बढ़ गई है। अधिकांश देशों में शेष दुनिया के देशों के साथ संवाद के लिये अंग्रेज़ी ही प्रयोग की जाती है, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन के मामलों में। हालाँकि, हमारी शिक्षा नीति में अब तक विभिन्न राजनैतिक कारणों से अंग्रेज़ी के महत्त्व को नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। अतः सरकार की नीतियों में अंग्रेज़ी को महत्त्व मिलना निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है।
  • भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही अंग्रेज़ी को साम्राज्यवादियों की भाषा बताकर भारतीय भाषाओं में शिक्षा-दीक्षा को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया गया था। आज़ादी के बाद स्वतंत्रता आन्दोलन की परम्परा को जीवंत रखते हुए सरकारी विद्यालयों में अंग्रेज़ी न सीखने पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया।
  • भले ही सरकारी विद्यालय अंग्रेज़ी से वंचित रहे किन्तु अधिकांश सरकरी दफ्तरों से लेकर न्यायपालिका तक अंग्रेज़ी की प्रधानता बनी रही, अंग्रेज़ी जानने वाले लोगों को बेहतर रोज़गार मिलता रहा, फलस्वरूप 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद भारत में अंग्रेज़ी माध्यम के निजी विद्यालयों की बाढ़ सी आ गई। दरअसल, निजी क्षेत्र द्वारा संचालित इन विद्यालयों में शिक्षा काफी महँगी होती है, जिससे भारत में गरीबों का एक बड़ा तबका अंग्रेज़ी से वंचित रह जाता है। अतः सरकार यदि इन सुझावों को अमल में लाती है तो निश्चित ही यह एक सुधारवादी प्रयास होगा।

क्यों यह कदम स्वागत योग्य नहीं है?

  • हालाँकि, अंग्रेज़ी कोई जादू की छड़ी नहीं है कि बस घुमाते ही भारत की जीर्ण-शीर्ण शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव आ जाएगा। अनेक रिपोर्टों और अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि भारत में बच्चों की पढ़ने-लिखने और अंकगणित संबंधी क्षमता वैश्विक मानकों की तुलना में बहुत ही कम स्तर की है। इसमें सर्वाधिक चिंताजनक बात यह है कि हम स्वीकार ही नहीं करते कि भारतीय बच्चों की लिखने-पढ़ने की क्षमता वैश्विक मानकों के अनुरूप नहीं है।
  • उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन कार्यक्रम (Programme for International Student Assessment) में भारत हिस्सा ही नहीं लेता। दरअसल, वर्ष 2009 में भारत के दो राज्यों, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु ने अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन कार्यक्रम में भाग लिया था और अंतिम पायदान पर रहे थे। उसके बाद से ही इस कार्यक्रम पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए भारत इसमें हिस्सा नहीं लेता, जबकि यह आवश्यक है कि पहले हम अपनी कमज़ोरियों की पहचान करें।
  • हमारा स्कूली शिक्षा कार्यक्रम विसंगतियों से युक्त है, जहाँ बच्चों में सीखने की बुनियादी समझ का अभाव है। बिना इस समस्या के समाधान के क्या हिंदी क्या अंग्रेज़ी, किसी भी माध्यम में शिक्षा देना स्वयं को सुधारों के भुलावे में रखना होगा।
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