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कृषि

चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण की पद्धति

  • 13 Jul 2020
  • 8 min read

प्रीलिम्स के लिये:

चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण की पद्धति 

मेन्स के लिये:

चावल बीजारोपण की पद्धति 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पंजाब, हरियाणा में श्रमिकों की कमी के बाद धान के बुवाई के लिये ‘पारंपरिक रोपण’ (Traditional Transplanting) पद्धति के स्थान पर ‘चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण’ (Direct Seeding of Rice- DSR) पद्धति का व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • COVID-19 महामारी के कारण बड़े पैमाने पर मज़दूरों का ‘प्रति-प्रवास’ (Reverse Migration) देखने को मिला है। जिससे पंजाब-हरियाणा जैसे क्षेत्रों में धान के रोपण के लिये श्रमिकों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। 
  • पंजाब में लगभग 27 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की फसल लगाई गई है, जिसमें से लगभग 6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ‘प्रत्यक्ष बीजारोपण की तकनीक’ को अपनाया गया है। 
  • विगत वर्ष लगभग 60,000 हेक्टेयर क्षेत्र में DSR पद्धति के तहत धान रोपण किया गया था।

चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण

(Direct Seeding of Rice- DSR):

  • DSR तकनीक में पूर्व-अंकुरित बीजों (Pre-germinated Seeds) को ट्रैक्टर चालित मशीन द्वारा सीधे खेत में ड्रिल कर दिया जाता है।
  • इस पद्धति में धान की बुवाई से पूर्व नर्सरी तैयार करने या रोपण की आवश्यकता नहीं होती है।
  • किसानों को केवल अपनी भूमि को समतल बनाना होता है और  धान की बुवाई से पूर्व एक बार सिंचाई की आवश्यकता होती है।
  • DSR पद्धति के माध्यम से धान का बीजारोपण अप्रैल-मई में तथा फसल की कटाई अगस्त-सितंबर में की जाती है। 

पारंपरिक धान की रोपाई

(Traditional Transplanting of Paddy):

  • धान की पारंपरिक रोपाई में किसानों द्वारा धान की नर्सरी तैयार की जाती है। 
    • धान के खेत की तुलना में नर्सरी का आकार लगभग 5-10% होता है। 
  • धान के बीजों की बुवाई करके धान के रोपों (युवा पौधों) को तैयार किया जाता है। धान के इन रोपों को बाद में उखाड़ कर धान के खेतों में रोपण किया जाता है। 
  • सामान्यत: पंजाब और हरियाणा में धान की फसल का रोपण मई-जून में तथा कटाई अक्तूबर के प्रथम सप्ताह से अक्तूबर के अंत तक की जाती है, जबकि गेहूं की फसल की बुवाई सामान्यतया नवंबर के पहले सप्ताह से शुरू होती है।

चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण का महत्त्व:

श्रम लागत में कमी:

  • पारंपरिक धान की रोपाई की तुलना में चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण की तकनीक में श्रम की लागत लगभग एक तिहाई तक रहती है। 
  • उदाहरणत: 8 एकड़ धान की पारंपरिक धान रोपण प्रक्रिया में श्रम लागत  30,000 रुपए तक होती है, वहीं चावल की प्रत्यक्ष बीजारोपण तकनीक में यह लागत केवल 10,000 रुपए तक होती है। 

जल की बचत:

  • DSR तकनीक में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है, अत: पानी की बचत होती है।

अवशिष्ट दहन समस्या का समाधान:

  • सामान्यत धान की कटाई और अगली गेहूं की फसल की बुवाई के बीच 'विंडो पीरियड' (Window Period) 20-25 दिनों का होता है, अत: किसान अपने खेतों को साफ करने के लिये ‘फसल अवशेष दहन’ का सहारा लेते हैं।
    • सामान्यत: एक फसल की कटाई तथा दूसरी फसल के बुवाई के बीच के समय को ‘विंडो पीरियड’ कहा जाता है। 
  • DSR तकनीक में फसल 10-11 दिन पहले परिपक्व हो जाती है। जिससे रबी की फसल की तैयारी तथा धान की कटाई के बीच किसानों को पर्याप्त समय मिल सकेगा। अत: फसल अवशेष दहन की घटनाओं में भी कमी देखने को मिलेगी।

चुनौतियाँ:

  • पारंपरिक धान रोपाई में जहाँ 4-5 किग्रा./एकड़ बीज की आवश्यकता होती है वही DSR पद्धति में 8-10 किग्रा./एकड़ बीज आवश्यक होता है। अत: DSR पद्धति में बीज की लागत अधिक है।
  • DSR पद्धति में भूमि का समतल/लैंड लेवलिंग किया जाना अनिवार्य है, जबकि पारंपरिक धान रोपाई में ऐसा करना आवश्यक नहीं है।

आगे की राह:

  • चावल के प्रत्यक्ष बीजारोपण पर आधारित DSR पद्धति आर्थिक दृष्टि से वहनीय, पर्यावरणीय दृष्टि के अनुकूल तथा तकनीकी दृष्टि से व्यावहारिक पद्धति है, अत: अधिक से अधिक किसानों को इस तकनीक को अपनाने हेतु आवश्यक प्रोत्साहन प्रदान किये जाने की आवश्यकता है। 

चावल:

मौसमी दशाएँ:

  • यह एक खरीफ की फसल है जिसे उगाने के लिये उच्च तापमान (25°C से अधिक तापमान) तथा उच्च आर्द्रता (100 सेमी. से अधिक वर्षा) की आवश्यकता होती है। 
  • कम वर्षा वाले क्षेत्रों में धान की फसल के उत्पादन के लिये सिंचाई की आवश्यकता होती है।

उत्पादन क्षेत्र:

परंपरागत उत्पादन क्षेत्र:

  • चावल का अधिकांश उत्पादन क्षेत्र उत्तर और उत्तर-पूर्वी मैदानों, तटीय क्षेत्रों और डेल्टाई प्रदेशों में है।

गैर- परंपरागत उत्पादन क्षेत्र:

  • नहरों के जाल और नलकूपों की सघनता के कारण पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी चावल की फसल उगाना संभव हो पाया है।
  • इन क्षेत्रों में चावल की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता अधिक है। 

बहुफसलीय उत्पादन:

  • दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल में जलवायु परिस्थितियों की अनुकूलता के कारण चावल की दो या तीन फसलों का उत्पादन किया जाता है।
  •  पश्चिम बंगाल के किसान चावल की तीन फसलों का उत्पादन करते हैं जिन्हें 'औस', 'अमन और 'बोरो' कहा जाता है।

स्रोत: द हिंदू

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