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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

आरसीईपी उद्योगों को आगे बढ़ाएगा अथवा नष्ट कर देगा?

  • 09 Mar 2017
  • 11 min read

तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं तथा अधिक से अधिक प्रौद्योगिकी पर निर्भर करते व्यापार को मद्देनज़र रखते हुए वर्तमान समय में व्यापारिक वास्तुकला तथा बहुपक्षीय समझौतों के विषय में गंभीर रूप से ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है| बदलते वैश्विक परिदृश्य में  जिस प्रकार से चीजें बदल रही हैं, उससे यह तो सम्भव है कि यूरोपीय संघ और अमेरिका के मध्य प्रस्तावित टीटीआईपी (Transatlantic Trade and Investment Partnership – TTIP) को शायद ही लागू किया जाए| यही कारण है कि इस साझेदारी के समाप्त होने की संभावना को ध्यान में रखते हुए टीटीपी (Trans Pacific Partnership – TPP) पर बहुत अधिक जोर दिया जा रहा था| यहाँ यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि भारत के संदर्भ में यह निर्णय संभवतः एक वरदान साबित हो सकता है|

प्रमुख बिंदु

  • उल्लेखनीय है कि जहाँ एक ओर भारत के द्वारा टीपीपी के सदस्य देश जैसे- वियतनाम में बुनियादी सुविधाओं को स्थापित करने की पहल की गई, जिसका उद्देश्य भारत की टीपीपी के अन्य सदस्यों के मध्य पहुँच बढ़ाने में सहायता प्राप्त करना था|
  • वहीं दूसरी ओर इससे भारत के लिये टीपीपी के अन्य सदस्यों के साथ व्यापार करने हेतु नई कारोबारी चुनौतियाँ भी सामने आईं|
  • ध्यातव्य है कि टीपीपी को कड़ी परिस्थितियों जैसे-बौद्धिक संपदा दायित्वों, मानवाधिकारों, बाल श्रम नियमों, पर्यावरणीय प्रतिबद्धता और अन्य निर्देशों (जिनका अनुपालन करना भारतीय संस्थाओं के लिये मुश्किल था) के परिप्रेक्ष्य में लागू किया गया था|
  • इसके अतिरिक्त उत्तरी अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता (North American Free Trade Agreement - NAFTA) के अंतर्गत भी अमेरिका की वर्तमान व्यवस्था से विचलन उत्पन्न होता प्रतीत हो ही रहा था कि उसी समय ब्रिटेन ने भी यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला कर लिया|

आरसीईपी कारक

  • हालाँकि, भारत टीपीपी का सदस्य नहीं था तथापि वह ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ (Regional Comprehensive Economic Partnership - RCEP) की वार्ता में शामिल हुआ|
  • वस्तुतः यह किसी विडंबना से कम नहीं है क्योंकि 16 सदस्यीय आरसीईपी में चीन जैसे बड़े राष्ट्रों तक को शामिल किया गया है, जिनके साथ भारत एक बड़े व्यापार घाटे से गुज़र रहा है|
  • जबकि भारत को इसके अंतर्गत स्थाई सदस्य नहीं बनाया गया है|
  • यदि बीते कुछ समय के संबंध में विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि पिछले 10 वर्षों के दौरान व्यापार घाटे में वर्ष 2006 (7.8 बिलियन डॉलर) की तुलना में वर्ष 2015 में 52 बिलियन डॉलर की बढ़ोतरी हुई है| स्पष्ट है कि इस पूरे विवरण में कहीं भी घाटे का कोई स्थान नहीं था|
  • जब आसियान द्वारा आरसीईपी के विचार को प्रस्तुत किया गया था तो इसे टीपीपी के एक विकल्प के रूप में पेश किया गया था, परन्तु यह भारत के लिये बेहद हानिकारक समझौता प्रतीत हुआ|
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2015 में भारत को आरसीईपी में कुल 97 बिलियन डॉलर का व्यापारिक घाटा हुआ जिसमें चीन के साथ व्यापार का हिस्सा तकरीबन 54 प्रतिशत था|
  • यही कारण है कि भारत के द्वारा चीन के साथ होने वाले सस्ते आयातों से अपने घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान करने के लिये लगातार एंटी डंपिंग शुल्कों, सुरक्षा शुल्कों और अन्य जवाबी उपायों का उपयोग किये जाने लगा|
  • संयोगवश, आरसीईपी के अंतर्गत भारत का आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ व्यापारिक वस्तुओं में मुक्त व्यापार समझौता संभव हो सका| हालाँकि इन तीनों के साथ भारत को मुक्त व्यापार समझौते में हस्ताक्षर करने के पश्चात् कोई विशेष लाभ प्राप्त होने की बजाय भारत  को उच्च व्यापार घाटा ही हुआ|

मौजूदा व्यापार समझौते

  • गौरतलब है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आरसीईपी बाज़ारों तक पहुँच बनाने के बहुत से उपयोगी अवसर उपलब्ध कराता है परन्तु व्यापार समझौतों के सम्बन्ध में भारत का यह प्रयास विभिन्न कारणों से अच्छा नहीं रहा है|
  • यह और बात है कि मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप प्रदान करने के पश्चात् भारत के द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि अवश्य हुई, परन्तु सहयोगी देशों को भारत से होने वाले निर्यातों में आयात की तुलना में अधिक वृद्धि दर्ज़ की गई|
  • हालाँकि, इस संबंध में दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्रों (South Asian Free Trade Area - SAFTA) को नज़रंदाज किया जा सकता है क्योंकि इसमें किसी एक ही देश का वर्चस्व कायम रहता है| इस समूह के अंतर्गत अफगानिस्तान, नेपाल और भूटान के बाज़ार दक्षिण एशियाई बाज़ारों की तुलना में महत्त्वहीन रह गए हैं|
  • केवल श्रीलंका और सिंगापुर ही ऐसे उभरते हुए देश हैं जहाँ भारत एक सकारात्मक व्यापार संतुलन प्राप्त करने में सफल रहा है|

अन्य पक्ष

  • गौरतलब है कि टीपीपी की अनुपस्थिति में आरसीईपी के विश्व में एक सबसे बड़े क्षेत्रीय व्यापार गुट के रूप में उभरने की संभावना व्यक्त की जा रही है| एक ऐसा गुट जो विश्व के तक़रीबन 45% भाग को लक्षित करने में सक्षम होगा तथा इसका संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद भी 21.3 ट्रिलियन डॉलर के स्तर पर रहने की संभावना व्यक्त की जा रही है|
  • हालाँकि, व्यापार समझौतों को क्रियान्वित करने संबंधी समझौतों को प्राथमिकता दिये जाने में भारत को यह आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है कि उसे प्रस्तावित आरसीईपी की वार्ता से क्या-क्या लाभ प्राप्त होंगे|
  • ज़ाहिर है कि भारत के द्वारा इन लाभों की सूची में उन सभी आयामों को भी शामिल किया जाएगा जिन्हें भारत आसियान देशों के साथ व्यापार समझौतों में प्राप्त नहीं कर सका है| 
  • ध्यातव्य है कि आसियान (Asean) जापान, दक्षिण कोरिया तथा सिंगापुर जैसे सदस्यों का एक समूह है|
  • हालाँकि आरसीईपी की वार्ताओं में शामिल घटकों में बौद्धिक संपदा, निवेश, अन्य सामानों, सेवाओं, दूरसंचार और ई-वाणिज्य में शामिल वस्तुएँ और सेवाएँ सबसे महत्त्वपूर्ण घटक हैं|
  • ध्यातव्य है कि आरसीईपी के दायरे के अंतर्गत चीन, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देश विनिर्माण शक्ति के रूप में मौजूद हैं तथा एशिया एवं न्यूज़ीलैण्ड प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, शराब व डेयरी उत्पादों में शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में शामिल हैं|
  • यह और बात है कि उपभोक्ताओं को मुक्त व्यापार समझौते से लाभ होता है तथापि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र (जो कि तुलनात्मक रूप से अप्रतिस्पर्द्धी बन गया है) एवं आरसीईपी के कुछ वार्ता सहयोगियों को इसका लाभ प्राप्त नहीं होगा|
  • बागानी, ऑटोमोबाइल्स, वस्त्र, फार्मास्यूटिकल और इंजीनियरिंग सामानों जैसे क्षेत्रों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा|
  • स्पष्ट है कि एक खराब वार्ता वाला यह आरसीईपी के भारत के वैश्विक विनिर्माण के स्वप्न के लिये एक खतरे की घंटी साबित होने की सम्भावना है|

समाधान

  • आरसीईपी देशों में गैर प्रशुल्क बाधाओं की बाज़ार तक पहुँच बनाने से पूर्व इसे और अधिक पारदर्शी बनाया जाना चाहिये|
  • सभी भारतीय निर्यातों पर अधिरोपित गैर प्रशुल्क उपायों, स्वच्छता एवं स्वच्छता प्रमाण पत्रों के मुद्दों और व्यापार संबंधी समस्याओं संबंधी उपायों के लिये तकनीकी उपायों का उपयोग किया जाना चाहिये| ताकि उत्पाद की गुणवत्ता और मानकों के साथ समझौता न करते हुए इनकी विश्वसनीयता को बनाया रखा जा सके|
  • यद्यपि सेवाओं में व्यापार समझौता पूर्ववर्ती प्रतीत होता है परन्तु भारत को आरसीईपी के माध्यम से व्यापार समझौतों की परम्परा में बदलाव करना चाहिये| 
  • भारत सेवाओं के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त कर चूका है | यही कारण है कि वह सेवाओं के क्षेत्र में व्यापार का अधिक से अधिक उदारीकरण चाहता है ताकि इन बाज़ारों  में इसके पेशेवरों की अधिकाधिक पहुँच सुनिश्चित की जा सके|
  • यह ध्यान देने योग्य है कि आरसीईपी के प्रमुख साझेदार देशों में ज़्यादातर पूर्वी एशियाई देश शामिल हैं, जो भारत के विपरीत (जिसकी घरेलू अर्थव्यवस्था ही इसकी मुख्य शक्ति है) निर्यात आधारित विकास मॉडल में विशेषज्ञता हासिल किये हुए हैं| अत: अपने व्यापार साझेदारों का चुनाव करते समय भारत को इस संबंध में उपरोक्त सभी पक्षों के विषय में गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है|
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