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एडिटोरियल

भारतीय अर्थव्यवस्था

विश्वास और आर्थिक विकास

  • 20 Nov 2019
  • 12 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति और आर्थिक विकास में नागरिकों के विश्वास की भूमिका पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

कई वित्तीय संस्थाओं ने सितंबर माह में खत्म हुई तिमाही के लिये अपने GDP वृद्धि अनुमान को कम कर दिया है। भारतीय स्टेट बैंक सहित कई अन्य वित्तीय संस्थानों में मौजूद अर्थशास्त्रियों के अनुसार, तीसरी तिमाही में देश की GDP वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत से 4.7 प्रतिशत तक रह सकती है। सरकार इस तिमाही के आधिकारिक आँकड़े नवंबर के अंतिम हफ्ते में प्रस्तुत करेगी। गौरतलब है कि इससे पूर्व जब सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही से संबंधित आँकड़े जारी किये थे तब पहली तिमाही (Q1) में भारत की GDP वृद्धि दर मात्र 5 फीसदी रह गई थी। भारत को उदारीकृत और वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत हुए लगभग तीन दशक बीत हो चुके हैं। वर्ष 2018 में भारत सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आधार पर दुनिया की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी, परंतु कई वैश्विक संस्थानों के अनुसार, यह वृद्धि लगातार धीमी होती जा रही है तथा वित्त वर्ष 2019-20 में इसके और अधिक कम होने की उम्मीद है।

आँकड़े और अर्थव्यवस्था

  • कुछ ही समय पूर्व NSO के आँकड़ों में यह रेखांकित किया गया था कि देश में बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक बढ़ी है। इसके अलावा सेंटर फॉर मॉनेटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के द्वारा जारी हालिया आँकड़ों में भी सामने आया है कि अक्तूबर माह में देश की बेरोज़गारी दर 8.5 प्रतिशत पर पहुँच गई है, जो कि बीते तीन वर्षों में सबसे अधिक है।
  • राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2017-18 में उपभोक्ता खर्च विगत 4 दशकों में अपने सबसे निचले स्तर पर आ गया था।
    • सर्वे के अनुसार, जहाँ एक ओर शहरी क्षेत्रों में वर्ष 2013 से वर्ष 2018 के दौरान कुल उपभोक्ता खर्च में 2 प्रतिशत की कमी आई वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह आँकड़ा 8 प्रतिशत के पास रहा।
  • मार्च 2018 में बैंकों का NPA आँकड़ा 10,36,187 करोड़ रुपए के साथ अपने सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँच गया था। हालाँकि बैंकों में सकल NPA का स्तर मार्च 2018 में बकाया कर्ज के 11.5 प्रतिशत से घटकर मार्च 2019 में 9.3 प्रतिशत पर आ गया था, परंतु कुछ जानकार इस गिरावट के लिये खराब ऋणों के राइट-ऑफ को भी ज़िम्मेदार मान रहे हैं।
    • आँकड़े बताते हैं कि भारतीय बैंकों ने अपनी लेखा पुस्तकों में सकल NPA को घटाने के लिये वित्त वर्ष 2018-19 में कुल 2.54 लाख करोड़ रुपए के खराब ऋण राइट-ऑफ़ किये थे।
  • अर्थव्यवस्था के उतार चढ़ाव संबंधी आँकड़ों की सूची काफी लंबी और संकटपूर्ण है, परंतु देश की आर्थिक स्थिति को मात्र इन आँकड़ों से चिंताजनक घोषित नहीं किया जा सकता।

अर्थव्यवस्था और समाज

  • गौरतलब है कि देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति उसके समाज की स्थिति का प्रतिबिंब होती है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार, किसी भी अर्थव्यवस्था का कामकाज उसमें मौजूद लोगों और संस्थानों के बीच आदान-प्रदान तथा सामाजिक संबंधों के संयुक्त सेट का परिणाम होता है।
    • विदित हो कि आपसी विश्वास और आत्मविश्वास लोगों के बीच ऐसे सामाजिक लेनदेन का आधार है जो आर्थिक विकास को बढ़ावा देते हैं।
  • अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वर्तमान में भरोसे और आत्मविश्वास का भारतीय ताना-बाना टूटता दिखाई दे रहा है।
  • कई विश्लेषक मान रहे हैं कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्वास में कमी का सामना कर रही है। कई बैंक NPA की वजह से ऋण नहीं दे पा रहे हैं और उद्यमी जोखिम के डर से नई परियोजनाओं को शुरू करने में हिचकिचा रहे हैं।
  • आर्थिक विकास के एजेंट के रूप में कार्य करने वाले लोगों के मध्य गहरा भय और अविश्वास पैदा हो गया है। गौरतलब है कि यह अविश्वास और भय समाज में आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जिसके कारण अंततः अर्थव्यवस्था में ठहराव या स्थिरता आ जाती है।
  • देश के कुछ बड़े अर्थशास्त्रियों का मानना है कि लोगों के बीच मौजूद इसी भय और अविश्वास ने आर्थिक मंदी की हवा को बल दिया है।

कितना सफल था विमुद्रीकरण?

  • 8 नवंबर, 2016 को रात 8 बजे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्र के संबोधन में अप्रत्याशित रूप से इस बात की घोषणा की गई कि मध्य रात्रि से उच्च मूल्य वर्ग के ₹ 500 एवं ₹ 1000 के नोट लीगल टेंडर (वैद्य मुद्रा) नहीं रहेंगे अर्थात् सीमित अवधि में सीमित सेवाओं के साथ इसकी वैधता समाप्त हो जाएगी।
  • सरकार ने काले धन को कम करने और कर संग्रह को बढ़ने आदि को विमुद्रीकरण के उद्देश्यों के रूप में प्रस्तुत किया था।
  • हालाँकि वर्ष 2018 में ही जारी भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की वार्षिक रिपोर्ट में दर्शाया गया था कि विमुद्रीकरण के दौरान अवैद्य घोषित किये गए कुल नोटों का तकरीबन 99.3 प्रतिशत हिस्सा वापस आ गया था।
  • RBI द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के आधार पर कई विशेषज्ञों का मानना था कि यदि विमुद्रीकरण का उद्देश्य काले धन को समाप्त करना था तो आँकड़ों के अनुसार यह योजना असफल रही है।

आर्थिक विकास और सामाजिक विश्वास

  • आर्थिक विकास और भरोसा या विश्वास का संबंध, आर्थिक साहित्य में कई अकादमिक शोध पत्रों का विषय रहा है।
  • इस संबंध का पहला क्रमबद्ध अनुमान प्राप्त करने का एक सामान्य तरीका है, प्रति व्यक्ति GDP और नागरिकों के मध्य विश्वास में सहसंबंधों का अनुमान लगाना। इस संदर्भ में हुए कई शोधों में यह स्पष्ट रूप से सामने आया है कि प्रति व्यक्ति GDP और नागरिकों के मध्य विश्वास में पूर्णतः धनात्मक संबंध होता है।
  • कई अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि शिक्षा, आयु और व्यक्तिगत आय को नियंत्रित करने के बाद भी एक उद्यमी बनने की संभावना के साथ विश्वास का सकारात्मक संबंध होता है।
  • आर्थिक विकास को पुनर्जीवित करने के लिये आवश्यक है कि भय और अविश्वास की वर्तमान स्थिति में परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाए तथा नागरिकों में विश्वास एवं भरोसे की भावना कायम की जाए।
  • विश्लेषकों के अनुसार, व्यापारियों, पूंजी प्रदाताओं और श्रमिकों के लिये भयभीत होने के बजाय आत्मविश्वास तथा अति उत्साह महसूस करना बहुत महत्त्वपूर्ण है।

मुद्रास्फीतिजनित मंदी की ओर

  • वास्तविक चिंता का विषय यह है कि हालिया खुदरा मुद्रास्फीति में तेज़ी से वृद्धि हुई है, विशेषकर खाद्य मुद्रास्फीति संबंधी आँकड़े भयभीत करने वाले हैं।
  • जानकारों के अनुसार, आने वाले महीनों में खुदरा मुद्रास्फीति में और भी वृद्धि होने की उम्मीद है। स्थिर मांग और उच्च बेरोज़गारी के साथ मुद्रास्फीति में निरंतर वृद्धि से देश मुद्रास्फीतिजनित मंदी (Stagflation) की ओर बढ़ जाएगा।
    • गौरतलब है कि यदि एक बार भारत ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है तो उसके लिये इससे उबरना काफी चुनौतीपूर्ण होगा।
  • हालाँकि, वर्तमान में देश मुद्रास्फीतिजनित मंदी की स्थिति में नहीं है, परंतु अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत को जल्द-से-जल्द राजकोषीय उपायों के माध्यम से मांग के जीर्णोद्धार का प्रयास करना चाहिये, चूँकि यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि मौद्रिक नीतियों का प्रभाव अर्थव्यवस्था पर काफी न्यून रहा है।

राजकोषीय और सामाजिक नीति की आवश्यकता

  • वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था एक अनिश्चित स्थिति का सामना कर रही है। लोगों की आय में वृद्धि नहीं हो रही है, घरेलू खपत धीमी हो गई है और आम लोग अपनी खपत के समान स्तर को बनाए रखने के लिये अपनी बचत में कमी कर रहे हैं।
  • जानकारों का मानना है कि देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये राजकोषीय नीति के माध्यम से मांग को बढ़ावा देना और सामाजिक नीति नागरिकों में आत्मविश्वास बढ़ाकर निजी निवेश को पुनर्जीवित करने संबंधी दोहरी नीति की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

अफसोस की बात है कि भारत में यह आर्थिक स्थिति ऐसे समय में आई है जब देश के पास वैश्विक अर्थव्यवस्था से लाभ प्राप्त करने का एक सुनहरा अवसर है। चीन की अर्थव्यवस्था और निर्यात के धीमे होने से भारत के लिये एक बड़ा निर्यात अवसर खुल गया है। भारत को अविश्वास और निराशावाद के मौजूदा माहौल से दूर एक विश्वास तथा आर्थिक गतिशीलता के माहौल को बढ़ावा देकर इस निर्यात अवसर का भरपूर लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिये।

प्रश्न: भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर गिरावट की स्थिति में है। विकास दर की गिरावट के सामाजिक आयामों पर चर्चा कीजिये।

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