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वहनीय व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुरक्षा में दवा उद्योग की भूमिका

  • 02 Jun 2017
  • 13 min read

पृष्ठभूमि
वहनीय व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुरक्षा की आपूर्ति करना एक कल्याणकारी राज्य का परम लक्ष्य होना चाहिये। भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी खाद्य सुरक्षा अधिनियम के बाद अब स्वास्थ्य सुरक्षा के संदर्भ में अपेक्षित कानूनी व्यवस्था का ढाँचा खड़ा करना सबसे बड़ी चुनौती है। 

वर्तमान सरकार ने इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए जेनेरिक दवाइयों के प्रयोगों को बढ़ावा देने के लिये अपने प्रयासों को तेज़ किया है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपने एक व्याख्यान में बोलते हुए डॉक्टरों से यह अपील की है कि वे जेनेरिक दवाइयों का ही प्रयोग करें, जिससे लोगों को कम कीमत पर दवाइयाँ उपलब्ध हो सकें। उन्होंने यह भी कहा कि यह सरकार का उत्तरदायित्त्व होना चाहिये कि वो प्रत्येक व्यक्ति को सस्ते मूल्य पर स्वस्थ्य सुविधा उपलब्ध कराए। अतः स्पष्ट है कि सरकार स्वास्थ्य सुरक्षा को वहनीय व गुणवत्तापूर्ण बनाने के अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु दवा उद्योग में कुछ महत्त्वपूर्ण कानूनी व वाणिज्यिक बदलावों पर विचार कर सकती है।  

क्या होती हैं जेनेरिक दवाइयाँ? 
किसी एक बीमारी के इलाज़ के लिये सभी तरह की रिसर्च और स्टडी के बाद एक रसायन (SALT) तैयार किया जाता है जिसे आसानी से उपलब्ध कराने के लिये दवा की शक्ल दी जाती है। इस साल्ट को हर कंपनी अलग-अलग नाम से बेचती है। कोई इसे महँगी कीमतों पर बेचती है तो कोई सस्ते दामों में। लेकिन इस रसायन का जेनेरिक नाम सॉल्ट की कंपोज़िशन और बीमारी को ध्यान में रखते हुए एक विशेष समिति द्वारा निर्धारित किया जाता है। अतः किसी भी सॉल्ट का जेनेरिक नाम पूरी दुनिया में एक ही रहता है।  

क्यों सस्ती होती है जेनेरिक? 
गौरतलब है कि ब्रांडेड दवाओं का मूल्य पेटेंट धारक कंपनी द्वारा ही तय किया जाता है, वहीं जेनेरिक दवाओं की कीमत निर्धारित करने में सरकार का हस्तक्षेप होता है। इसलिये जेनेरिक दवाओं की मनमुताबिक कीमतें निर्धारित नहीं की जा सकती है। अतः जेनेरिक दवाइयाँ हमेशा ब्रांडेड दवाइयों की अपेक्षा सस्ती ही होती हैं। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन का कहना है कि यदि डॉक्टरों के द्वारा मरीज़ों को जेनेरिक दवाओं को लेने का सुझाव (Prescription) दिया जाता है तो इससे विकसित देशों में स्वास्थ्य खर्च 70 फीसदी और विकासशील देशों में इससे भी कम हो सकता है। 

क्या जेनेरिक दवाएँ पूरी तरह भरोसेमंद हैं ? 
उल्लेखनीय है कि जेनेरिक दवाएँ ब्रांडेड दवाओं के बराबर ही लाभकारी होती हैं तथा इनके साइड इफेक्ट भी वैसे ही होंगे जैसे ब्रांडेड दवाओं के होते हैं। इन्हें बाज़ार में उतारने के लिये ठीक वैसी ही अनुमति और लाइसेंस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। अतः एक ब्रांडेड दवा के लिये आवश्यक गुणवत्ता मानकों की सभी प्रक्रियाओं को जेनेरिक दवाई के प्रयोग हेतु भी अपनाया जाता है। इसलिये इन्हें पूरी तरह भरोसेमंद कहा जा सकता है। जाँच में अगर इनकी गुणवत्ता में कमी पाई जाती है तो कड़ी सज़ा का प्रावधान भी होता है। अतः ये पूर्णतः सुरक्षित और भरोसेमंद हैं। 

जेनेरिक दवाएँ क्यों अधिक लोकप्रिय नहीं हैं?
जेनेरिक दवाओं के लोकप्रिय न होने के पीछे कई कारण हैं। इनमें जागरूकता की कमी होना विशेष है। इसके अलावा, चूँकि ये सस्ती दवाइयाँ हैं और जो लोग ब्रांडेड दवाओं का खर्च वहन कर सकते हैं उन्हें लगता है कि ये दवाइयाँ  निम्न गुणवत्ता वाली होती हैं। साथ ही, दवाखाने भी सामान्यतः उन दवाओं को नहीं रखते हैं, जो डॉक्टरों के द्वारा सामान्यतः नहीं लिखी जाती हैं और सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों को छोड़कर ज्यादातर डॉक्टर जेनेरिक दवाओं को नहीं लिखते हैं। इसके अलावा, निजी डॉक्टर जेनेरिक दवाओं को नहीं लिखते हैं क्योंकि इनके लिये उन्हें फार्मा कंपनियों से कोई कमीशन या प्रोत्साहन नहीं प्राप्त होता होता है। सरकार या विशेष रूप से सरकार के फार्मास्यूटिकल्स विभाग को भी जागरूकता की कमी के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, क्योंकि स्वतंत्रता से लेकर अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई है। 

जेनेरिक दवाओं के प्रयोग को बढ़ावा देने के लाभ 

  • दवा मूल्य का सस्ता होना- ये स्वाभाविक सी बात है कि यदि जेनेरिक दवाइयों का प्रचलन बढ़ता है तो इलाज के खर्च में दवाइयों के मूल्य का हिस्सा जो एक सबसे बड़ा हिस्सा होता है उसमें कमी आएगी। हालाँकि सस्ती जेनेरिक दवाइयों की निर्बाध व गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति के लिये और भी विभिन्न पहलें किये जाने की आवश्यकता है। 
  • सरकार को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने में सहायता- सस्ती दवाइयों  की उपलब्धता स्वास्थ्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने में एक महत्त्वपूर्ण घटक है। इस प्रकार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी परियोजनाओं के लिये जेनेरिक दवा के रूप में सरकार को एक महत्त्वपूर्ण संसाधन प्राप्त हो जाएगा, जिससे आम जन को स्वास्थ्य सुरक्षा दी जा सकेगी।    
  • जेनेरिक दवा उद्योग- भारत का जेनेरिक दवा उद्योग विश्व में बड़े दवा उद्योगों में से एक है, तथापि जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देना देश के एक बहुत बड़े उद्योग को बढ़ावा देगा। इससे इस क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा जो अंततः नवाचार के साथ-साथ शोध एवं  विकास (R&D) को प्रोत्साहित करेगा। 

सरकार को क्या करना चाहिये ?
प्रचलन के अनुसार जेनेरिक दवाइयों को ब्रांडेड दवाइयों की अपेक्षा कम क्लिनिकल ट्रायल से गुज़रना होता है।  परिणामस्वरूप, इस मॉडल का प्रयोग विश्व के विभिन्न देशों के द्वारा किया जा चुका है, जिनमें अधिकतर ओ.ई.सी.डी. (OECD) देश शामिल हैं। साथ ही, विकासशील देश भी इसके प्रयोग को अपना रहे हैं परन्तु जेनेरिक दवाइयों के प्रयोग में विभिन्न चुनौतियाँ हैं, जिन्हें दूर किये बिना जेनेरिक दवाइयों का प्रयोग न तो सस्ता होगा और न ही भरोसेमंद हो पाएगा। अब से पहले जिन देशों ने इस प्रयोग को अपनाया है उनके यहाँ जेनेरिक दवा उद्योग के संचालन के लिये एक सक्षम कानूनी ढाँचा व नियामक की व्यवस्था की गई है। अतः भारत के लिये भी यह आवश्यक है कि सरकार एक सख्त नियामक का गठन करे जो उद्योग से जुड़े विभिन्न पक्षों को नियंत्रित कर सके। सरकार द्वारा अन्य क्षेत्रों के लिये उठाए गए कदम जैसे रियल एस्टेट क्षेत्र के लिये आर.ई.आर.ए. (RERA) का गठन किया गया है, वैसे ही दवाइयों के उत्पादन, ट्रायल, मूल्य निर्धारण आदि महत्त्वपूर्ण पक्षों पर ध्यान रखने वाले किसी दवा नियामक की आवश्यकता है, तथापि इस नियामक के अंतर्गत कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यों का निर्धारण किया जा सकेगा, जैसे-

  • सभी दावा निर्माताओं से जुड़ी विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ जैसे- निर्माण सुविधाएँ, विशिष्टता, प्रमाणन क्षमता आदि एवं इन सभी सूचनाओं को एक केंद्रीय पोर्टल पर रखना। 
  • निर्मित उत्पाद की जाँच प्रक्रिया के लिये मानकों को इसी नियामक द्वारा तय किया जाए, अर्थात नियामक के द्वारा तय नियमों के अनुसार ही जाँच की जाए कि उक्त दवा बायो इक्वीवैलेन्ट है कि नहीं, यानी दवा प्रयोग योग्य है या नहीं? 
  • सभी नए उत्पादों व नई रासायनिक संरचना (Composition) के लिये एक सख्त व पारदर्शी क्लिनिकल ट्रायल प्रक्रिया निर्धारित हो जिससे इनकी गुणवत्ता प्रभावित न हो। 
  • नियमों का अनुपालन न करने वाले निर्माताओं पर कार्रवाई करने के प्रावधान भी होने चाहियें। 

 अन्य पहल जो अपेक्षित हैं?

  • एक सेंट्रल पोर्टल की आवश्यकता है जिसमें सरकार द्वारा सभी उपभोक्ताओं, फार्मासिस्टों और खुदरा विक्रेताओं के लिये कीमत सहित उत्पाद नाम या संरचना द्वारा खोजे जाने वाले सभी लाइसेंस प्राप्त ब्रांडेड और अनुमोदित जेनेरिक समकक्षों (generic equivalent) के बारे में जानकारी दर्ज़ की जाए।  यह पोर्टल यूनिक उत्पाद कोड (unique product code) के आधार पर उत्पाद की प्रामाणिकता को सत्यापित करने की क्षमता भी प्रदान करेगा।  
  • जेनेरिक दवाओं के अधिकतम बिक्री मूल्य का निर्धारण किया जाए तथा इस मूल्य में उत्पादन लागत एवं खुदरा मूल्य को ध्यान में रखा जाए। 
  • सभी सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों और सरकारी स्वास्थ्य सेवा संस्थानों को केवल जेनेरिक दवावितरण करने के लिये (जहाँ जेनेरिक इक्वीवैलेन्ट उपलब्ध हों) बाध्यकारी आदेश देना। इसके साथ ही खुदरा दावा विक्रेताओं के लिये ये बाध्यकारी होना कि जहाँ जेनेरिक विकल्प उपलब्ध हों वहाँ कम से कम एक जेनेरिक को अपने पास रखे। 
  • इसके अतिरिक्त डॉक्टरों के लिये ये नियम बनाना आवश्यक होगा कि यदि उन्हें किसी दशा में ऐसा लगता है कि उक्त मरीज़ की बीमारी बिना ब्रांडेड दवाई के ठीक नहीं हो सकती है, तभी वे उन दवाइयों को लिखें अन्यथा उनके लिये यह अनिवार्य हो कि पर्चें पर जेनेरिक दवाई ही लिखें। 

निष्कर्ष
इस तरह, सिर्फ जेनेरिक दवाओं के प्रयोग के लिये नियम-निर्माण मात्र से समस्या का निदान संभव नहीं है। अतः गुणवत्तापूर्ण व वहनीय स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने के लिये सरकार के साथ-साथ दवा उद्योग व भारतीय डॉक्टर्स एसोसिएशन (IMA) सभी को मिलकर एक साझा प्रयास करना होगा, जहाँ उपभोक्ता, उद्योग व सरकार सभी के पक्ष की रक्षा की जा सके।

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