लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



एडिटोरियल

सामाजिक न्याय

सस्ती दवाओं के लिये रोडमैप

  • 22 May 2019
  • 15 min read

भारत में प्रतिवर्ष लगभग 55 मिलियन लोग स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च के चलते गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। स्पष्ट रूप से देश में मौजूद महँगी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ऐसा होता है जो कि चिंताजनक है। इस लेख में सस्ती दवाएँ उपलब्ध कराने और इस क्षेत्र से संबंधित चिंताओं एवं उनके समाधान के विषय में चर्चा की गई है।

जेनेरिक दवाएँ क्या हैं?

  • जेनेरिक दवाएँ या टीकाकरण मूल रूप से अन्वेषित/अनुसंधानिक दवाओं का प्रतिरूप होती हैं परंतु ये बाज़ार में उपलब्ध अन्य दवाओं की अपेक्षा काफी सस्ती होती हैं।
  • किसी दवा निर्माता कंपनी द्वारा एक नई दवा को बाज़ार में पेश किये जाने के कुछ वर्षों पश्चात्  उस दवा पर लागू होने वाला पेटेंट समाप्त हो जाता है।
  • यह तब है जब मूल दवाओं की प्रतियों को गैर-मूल निर्माताओं द्वारा तैयार कर बाज़ार में बेचा जाता है। उदाहरण के लिये एस्प्रिन एवं पैरासिटामोल जेनेरिक दवाएँ हैं लेकिन इन्हें डिस्प्रिन और क्रोसिन जैसे ब्रांडों के नाम से बाज़ार में बेचा जा रहा है।
  • जेनेरिक दवाओं की खुराक, संरचना, सेवन की विधि, लाभ, गुणवत्ता और यहाँ तक कि दुष्प्रभाव भी ब्रांडेड दवाओं के समान ही हैं।
  • चूँकि जेनेरिक दवाएँ अप्रत्याशित रूप से सस्ती होती हैं लेकिन इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि ये दवाएँ कम प्रभावी होती हैं।

जेनेरिक दवाएँ आवश्यक क्यों हैं?

भारत में लोगों की क्रय-शक्ति कम होने के कारण दवाओं की ऊँची कीमतें प्रभावी स्वास्थ्य सेवा के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा साबित हो रही है। नीचे दिये गए तथ्य भारत में बीमारी के बढ़ते बोझ के प्रत्यक्ष कारण हैं और इस संदर्भ में जेनेरिक दवाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति

  • राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में अस्पतालों के बिल का एक बड़ा हिस्सा (55%) दवाओं और उपभोज्य वस्तुओं के भुगतान का होता है।
  • वर्ष 2015-16 में स्वास्थ्य बीमा भुगतान सहित घरेलू आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च का हिस्सा, कुल स्वास्थ्य व्यय का 64.7% था।
  • भारत में प्रतिवर्ष लगभग 55 मिलियन लोग स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च के चलते गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। स्पष्ट रूप से देश में मौजूद महँगी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ऐसा होता है जो कि चिंताजनक है।

विनियामक खामियाँ (Regulatory Loophole)

  • पिछले अनुभवों से पता चलता है कि सरकार द्वारा उपभोज्य वस्तुओं की अतिरिक्त राशि या कीमतों को नियंत्रित किये जाने के बाद अस्पताल विभिन्न प्रक्रियाओं और सेवाओं के नाम पर स्वास्थ्य-देखभाल सुविधाओं के शुल्क में वृद्धि करते हैं। अस्पतालों का यह कदम रोगियों को लाभ देने से इनकार करने के समान है।
  • उदाहरण के लिये, कार्डियोवस्कुलर स्टेंट की कीमतों में कमी होने के तुरंत बाद ही अस्पतालों द्वारा अन्य प्रक्रियाओं के शुल्क में वृद्धि कर दी गई।

भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में अंतर्निहित कमियाँ

स्वास्थ्य बीमा की योजनाओं के प्रभावी ना होना

  • मरीज़ों के वित्तीय बोझ को कम करने के लिये स्वास्थ्य-देखभाल शुल्क को प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित और विनियमित करने के बजाय, राज्य और केंद्र सरकारों ने बीमा योजनाओं के माध्यम से इस मामले में हस्तक्षेप किया। ये योजनाएँ क्रॉस-सब्सिडी के रूप में या निजी क्षेत्र के लिये बढ़ते कदमों के रूप में कार्य करती हैं।
  • विभिन्न अध्ययन दर्शाते हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (RSBY) और राज्य सरकारों द्वारा प्रायोजित विभिन्न बीमा योजनाओं के बावजूद भी, क्षमता से अधिक होने वाले खर्च के बोझ में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
  • अक्सर अस्पतालों द्वारा इन योजनाओं का उपयोग मरीजों को आकर्षित करने के लिये किया जाता है लेकिन वे मरीज़ों को ऐसी सेवाएँ देकर भारी शुल्क वसूलते हैं जो इन योजनाओं में शामिल नहीं होती।

विनियामक अधिग्रहण (Regulatory Capture)

  • विनियामक अधिग्रहण एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक नियामक संस्था आम जनता के हितों के बजाय उद्योग के क्षेत्र में प्रभुत्त्व रखने वाले, विशेष समूहों के आर्थिक हितों से प्रभावित हो जाती है।
  • विनियामक अधिग्रहण सरकारी विफलता का एक रूप है, जहाँ सरकारी एजेंसियाँ अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में विफल रहती हैं। उदाहरण के लिये, दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (Drug Price Control Order-DPCO) 2013 के बावजूद मधुमेह की दवा मेटफॉर्मिन की कीमतों में हेर-फेर किया गया था।

प्रभावी निगरानी तंत्र की अनुपस्थिति

  • राज्य स्तर पर दवाओं की कीमतों की निगरानी करने की संस्थागत क्षमता न तो फार्मास्यूटिकल्स विभाग के पास है न ही राष्ट्रीय फार्मास्युटिकल मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के पास है। ऐसी क्षमताएँ किसी भी नियमन के प्रवर्तन के लिये आवश्यक होती हैं।

भारत में जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिये उठाए गए कदम

  • वर्ष 2017 में केंद्र सरकार ने डॉक्टरों को विशिष्ट ब्रांडों के विपरीत मरीज़ को जेनेरिक औषधि का सुझाव देने का आदेश दिया।
  • भारतीय चिकित्सा परिषद (Medical Council of India-MCI) ने भी चिकित्सा समुदाय को वर्ष 2016 की अधिसूचना का पालन करने का आदेश दिया, जिसमें MCI ने भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम, 2002 के खंड 1.5 में संशोधन किया था। इस संशोधन के अनुसार चिकित्सकों को अलग-अलग ब्रांडों के नामों के स्थान पर दवाइयों के जेनेरिक नाम लिखना अनिवार्य था।

भारत में क्यों सफल नहीं हो पा रही हैं जेनेरिक दवाएँ?

  • किसी भी औषधीय उत्पाद से मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति के कारण जेनेरिक दवाओं की बिक्री के प्रति भारत के दवाखानों/फार्मेसी में उत्साह की कमी है।
  • जब ग्राहकों को कम मूल्य की दवाएँ दी जाती हैं तो इनकी कम कीमत के कारण वे दवाओं की गुणवत्ता पर विश्वास नहीं कर पाते। उनका विचार होता है कि दवाओं की गुणवत्ता का सीधा संबंध उस दवा की लागत मूल्य से है अर्थात् केवल महँगी दवाएँ ही अच्छी होती हैं सस्ती दवाएँ नहीं।
  • ड्रग्स तकनीकी सलाहकार बोर्ड  द्वारा खुदरा विक्रेताओं को सलाह दी गई है कि वे अपने दवाखानों में ‘वास्तविक नाम से बेची जाने वाली जेनेरिक दवाओं’ के लिये एक अलग रैक/शेल्फ बनाएँ लेकिन खुदरा विक्रेताओं द्वारा इस सलाह का अनुसरण नहीं किया गया।
  • भारत के घरेलू दवा बाज़ार में कम-से-कम 90% दवाएँ ऐसी हैं जो ब्रांड के नाम से बेचीं जाती हैं। इन ब्रांडेड दवाओं की बिक्री के लिये पर्याप्त जेनेरिक नाम भी नहीं हैं।
  • लगभग आधा बाज़ार निश्चित खुराक संयोजन (Fixed Dose Combinations- FDCs) की दवाओं से भरा हुआ है इनमें आधे से अधिक असंगत हैं।
  • कई FDC दवाओं में 8 या 9 दवाओं का संयोजन होता है। यह जानते  हुए कि बाज़ार में FDC दवाओं के हज़ारों ब्रांड उपलब्ध हैं, इन दवाओं के संघटकों का जेनेरिक नाम याद रखना और उन्हें लिखना अव्यावहारिक हो जाता है।
  • जन-औषधि केंद्र, जहाँ संभवतः केवल जेनेरिक नाम की दवाइयाँ बेची जाती हैं, की संख्या केवल 300 हैं।

कई हितधारकों द्वारा जेनेरिक दवाओं के इस्तेमाल को प्रेरित करने के कारण उनकी प्रशंसा की जाती है, और होनी भी चाहिये। सरकार की नीति को बयानबाजी से परे ले जाना चाहिये क्योंकि स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में, दोषपूर्ण नीति से देश में मृत्यु दर के आँकड़े प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होंगे।

सार्वजनिक स्वास्थ्य में औषधीय दवाओं की गुणवत्ता को शामिल किया गया है। इस संदर्भ में यह आकलन करना और सुनिश्चित करना आवश्यक है कि किसी भी नीति को औपचारिक रूप देने से पहले भारतीय जेनेरिक कंपनियाँ उसे स्वीकार करने के लिये पर्याप्त रूप से सक्षम हैं।

जेनेरिक दवाओं से संबंधित चिंता के क्षेत्र

भारत में जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता

  • जेनेरिक दवाओं में सक्रिय औषधि घटक (Active Pharmaceutical Ingredients-API) की मात्रा आवश्यकता से कम पाई गई है, जो उन्हें अप्रभावी बनाता है।
  • FDA द्वारा टाइप-2 डायबिटीज़ के इलाज के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले एवांडमेट टैबलेट के निरीक्षण के दौरान कुछ टैबलेट्स में सक्रिय घटक रोसिग्लिटाज़ोन (Rosiglitazone) की उचित खुराक का अभाव पाया गया।
  • केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (Central Drug Standard Control Organization- CDSCO) की निगरानी रिपोर्ट के अनुसार, आमतौर पर उपयोग की जाने वाली दवाओं की एक श्रृंखला, जैसे कि सिप्ला-निर्मित एंटीबायोटिक ओफ़्लॉक्सासिन (Ofloxacin) की गोलियाँ या कैडिला-निर्मित कैडिलोज़ (Cadilose) की गुणवत्ता, गुणवत्ता नियंत्रण के मानक मानदंडों से कम होती है।

डेटा की प्रामाणिकता

  • विदेशी नियामक प्राधिकरणों द्वारा भारतीय जेनेरिक फर्मों की दोषपूर्ण दस्तावेज़ीकरण प्रक्रिया की सर्वाधिक आलोचना की जाती है।
  • विशिष्ट श्रेणी की दवाओं के परीक्षण परिणामों के संबंध में विश्वसनीय और पूर्ण डेटा की कमी के साथ-साथ प्रस्तुत रिकॉर्ड में विसंगतियों दर्शाती हैं कि दवा की गुणवत्ता का निरीक्षण और सत्यापन करना बेहद मुश्किल है।
  • वस्तुतः वर्ष 2013 में, रैनबैक्सी को अमेरिका में औषधियों/दवाओं से संबंधित डेटा में हेर-फेर करने का दोषी पाया गया और इसके लिये कंपनी को 500 मिलियन डॉलर का जुर्माना अदा करना पड़ा।

स्वच्छता के मानक

  • बीमारी से पीड़ित व्यक्ति संक्रमणों के प्रति विशेष रूप से अतिसंवेदनशील होते हैं और जेनेरिक दवा का निर्माण करने वाले संयंत्रों के निरीक्षण से इनमें कीट संक्रमण और इनकी जीर्ण अवसंरचना का पता चलता है।
  • बहुत सी विनिर्माण इकाइयाँ ऐसी हैं जो कबूतरों और छिपकलियों का आवास बन गई हैं।
  • भवन की दीवारों और जंग लगी पाइपों के खुले छिद्र संक्रामक परजीवियों के स्रोत बन गए हैं, जबकि सही मायने में इन स्थानों का वातारण विसंक्रमित/जीवाणुरहित होना चाहिये।

आगे की राह

  • तमिलनाडु और राजस्थान सरकारें हर साल बेहद प्रतिस्पर्द्धी कीमतों पर जेनेरिक दवाओं की खरीद करती हैं और गुणवत्ता आश्वासन के कारण इन राज्यों की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में जेनेरिक दवाओं का उपयोग बहुत अधिक मात्रा में होता है। इन दोनों राज्यों की सफल दवा खरीद प्रणाली का अनुसरण किया जाना चाहिये।
  • स्वास्थ्य देखभाल सभी के लिये सुलभ होना चाहिये।
  • जेनेरिक दवा को बढ़ावा देने की नीति इस दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है लेकिन ऐसा करने के लिये इस क्षेत्र की चिंताओं पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिये, तभी आयुष्मान भारत का निर्माण किया जा सकता है।

प्रश्न: भारत में जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने की नीति एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन इसके लिये इस क्षेत्र से संबंधित सभी चिंताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिये। चर्चा करें।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2