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सामाजिक न्याय

पैतृक संपत्ति में महिलाओं को अधिकार

  • 14 Aug 2020
  • 11 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में पैतृक संपत्ति में महिलाओं को अधिकार व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

वर्तमान में महिला समाज को भूमि/संपत्ति संबंधी अधिकार से वंचित रखना वास्तव में उस आधी आबादी अथवा आधी दुनिया की अवमानना है जो एक माँ, बहन और पत्नी अथवा महिला किसान के रूप में दो गज जमीन और मुट्ठी भर संपत्ति की वाजिब हकदार है। भारत में महिलाओं के भूमि तथा संपत्ति पर अधिकार, केवल वैधानिक अवमानना के उलझे सवाल भर नहीं हैं बल्कि उसका मूल, उस सामाजिक जड़ता में है जिसे आज आधुनिक भारत में  नैतिकता के आधार पर चुनौती दिया ही जाना चाहिये। भारत विश्व के उन चुनिंदा देशों में से है जहाँ संवैधानिक प्रतिबद्धता और वैधानिक प्रावधानों के बावजूद महिलाओं की आधी आबादी आज भी धरातल पर अपनी जड़ों की सतत तलाश में है।

11 अगस्त 2020 को सर्वोच्च न्यायालय नें हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 की पुनर्व्याख्या करते हुये एक बार फिर समाज के उस जनमानस में चेतना लाने का प्रयास किया है जो ऐतिहासिक कानून के बाद भी जड़हीन हो चुके सामाजिक मान्यताओं के मुगालते में जी रहा है। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने अपने हालिया निर्णय में पुरुष उत्तराधिकारियों के समान हिंदू महिलाओं के पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार और सहदायक (संयुक्त कानूनी उत्तराधिकार) अधिकार का विस्तार किया है। यह निर्णय हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम (Hindu Succession (Amendment) Act), 2005 से संबंधित है। 

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार, एक हिंदू महिला को पैतृक संपत्ति में संयुक्त उत्तराधिकारी होने का अधिकार जन्म से प्राप्त है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि उसका पिता जीवित हैं या नहीं। 
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में वर्ष 2005 में किये गए संशोधनों का विस्तार किया, इन संशोधनों के माध्यम से बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार देकर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 में निहित भेदभाव को दूर किया गया था।  
  • यह निर्णय संयुक्त हिंदू परिवारों के साथ साथ बौद्ध, सिख, जैन, आर्य समाज और ब्रह्म समाज से संबंधित समुदायों पर भी लागू होगा।  
  • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों को छह माह के भीतर इस मामले से जुड़े मामलों को निपटाने का भी निर्देश दिया।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act), 1956:

  • हिंदू कानून की मिताक्षरा धारा को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के रूप में संहिताबद्ध किया गया, संपत्ति के वारिस एवं उत्तराधिकार को इसी अधिनियम के तहत प्रबंधित किया गया, जिसने कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में केवल पुरुषों को मान्यता दी।
  • यह उन सभी पर लागू होता है जो धर्म से मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं। बौद्ध, सिख, जैन और आर्य समाज, ब्रह्म समाज के अनुयायियों को भी इस कानून के तहत हिंदू माना गया हैं।
  • एक अविभाजित हिंदू परिवार में, कई पीढ़ियों के संयुक्त रूप से कई कानूनी उत्तराधिकारी मौजूद हो सकते हैं। कानूनी उत्तराधिकारी परिवार की संपत्ति की संयुक्त रूप से देख-रेख करते हैं। 

हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम

[Hindu Succession (Amendment) Act], 2005:

  • 1956 के अधिनियम को सितंबर 2005 में संशोधित किया गया और वर्ष 2005 से संपत्ति विभाजन के मामले में महिलाओं को सहदायक/कॉपर्सेंनर के रूप में मान्यता दी गई। 
  • अधिनियम की धारा 6 में संशोधन करते हुए एक कॉपर्सेंनर की पुत्री को भी जन्म से ही पुत्र के समान कॉपर्सेंनर माना गया।
  • इस संशोधन के तहत पुत्री को भी पुत्र के समान अधिकार और देनदारियाँ दी गई।
  • यह कानून पैतृक संपत्ति और व्यक्तिगत संपत्ति में उत्तराधिकार के नियम को लागू करता है, जहाँ उत्तराधिकार को कानून के अनुसार लागू किया जाता है, न कि एक इच्छा-पत्र के माध्यम से।
  • विधि आयोग की 174वीं रिपोर्ट में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में सुधार की सिफारिश की गई थी।
  • वर्ष 2005 के संशोधन से पहले आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने कानून में यह बदलाव कर दिया था। केरल ने वर्ष 1975 में ही हिंदू संयुक्त परिवार प्रणाली को समाप्त कर दिया था।

पुनर्व्याख्या की आवश्यकता क्यों पड़ी?

  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के अंतर्गत महिलाओं को समान अधिकार दिये गए थे, फिर भी कई मामलों में यह प्रश्न उठा कि क्या कानून भूतलक्षी रूप से लागू होता है।
  • प्रश्न यह था कि क्या महिलाओं के अधिकार पिता की जीवित स्थिति पर निर्भर करते थे जिनके माध्यम से उन्हें विरासत में मिलेगी।
  • पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी विचार रखे थे, जिनमें स्पष्टता का अभाव था। परिणामस्वरूप विधि विशेषज्ञों द्वारा अतार्किक तर्क प्रस्तुत किये जा रहे थे।
  • वर्ष 2015 में प्रकाश बनाम फूलवती वाद में दो न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि पिता की मौत 9 सितंबर, 2005 को हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के पारित होने से पहले हो गई है तो बेटी को पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलेगा।
  • परंतु इसके बाद वर्ष 2018 में दन्नमा बनाम अमर वाद में दो न्यायाधीशों की पीठ ने अपने निर्णय में कहा कि भले ही पिता की मौत अधिनियम लागू होने के बाद हुई हो तब भी बेटी को पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार मिलना चाहिये। 
  • ऐसे में अभी तक इस प्रावधान को लेकर एक भ्रम की स्थिति बनी हुई थी जो कि सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ के निर्णय के बाद समाप्त होती दिख रही है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का आधार

  • सर्वोच्च न्यायालय ने मिताक्षरा विधि का अध्ययन कर यह पाया कि एक पिता के संपूर्ण जीवनकाल के दौरान परिवार के सभी सदस्य को कॉपर्सनरी का अधिकार प्राप्त होता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 6 में संशोधन करते हुए पिता की पुत्री को भी जन्म से ही पुत्र के समान उत्तराधिकारी माना गया।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वर्ष 2005 के संशोधन ने एक ऐसे अधिकार को मान्यता दी जो वास्तव में बेटी द्वारा जन्म के समय अर्जित किया गया था।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि अब पुत्री को वही उत्तराधिकारिता हासिल होगी जितनी उसे उस स्थिति में होती अगर वह एक पुत्र के रूप में जन्म लेती। अर्थात पुत्र और पुत्री को पिता की संपत्ति में बराबर का उत्तराधिकार मिलेगा चाहे उसके पिता की मृत्यु कभी भी हुई हो।

सरकार का पक्ष

  • भारत के महान्यायवादी/सॉलिसिटर जनरल ने महिलाओं को समान अधिकारों की अनुमति देने के लिये कानून का व्यापक संदर्भ में अध्ययन किये जाने का तर्क प्रस्तुत किया।
  • सॉलिसिटर जनरल ने मिताक्षरा कॉपर्सनरी (Mitakshara coparcenary), 1956 कानून की आलोचना की क्योंकि यह कानून लैंगिक आधार पर भेदभाव करता है और भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18) के लिये दमनकारी और नकारात्मक भी है।

निष्कर्ष 

गाँधी जी का मानना था कि भारत जैसे देश में लोकतंत्र की बुनियादी इकाई परिवार है और होनी भी चाहिये। महिलाओं की संपत्ति, भूमि और समानता के अधिकारों की मान्यता और उससे उपजे प्रश्नों का प्रथम समाधान वास्तव में परिवार के बुनियादी और सबसे व्यवहारिक इकाई में ही संभव है। सरकार और न्यायालय महिलाओं के अधिकारों के लिये नियम-अधिनियम तो बना और बता सकती हैं, लेकिन जैसा सर्वोच्च न्यायालय के व्याख्या के निहितार्थ थे कि सामाजिक मान्यताओं का कायाकल्प भी होना चाहिये तभी कानून, महिलाओं के अधिकारों को वास्तविकता में बदल पाएगा।

प्रश्न- ‘पैतृक संपत्ति में महिलाओं को अधिकार संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लैंगिक समानता की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक कदम है।’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं?

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