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क्यों नहीं हो पाता मानसून का सटीक पूर्वानुमान?

  • 11 Apr 2019
  • 14 min read

संदर्भ

हाल ही में मौसम की भविष्यवाणी करने वाली एजेंसी ‘स्काईमेट’ ने हर साल की तरह इस बार भी देश में मानसून का पूर्वानुमान जारी किया है। इसके अनुसार मानसून के दौरान होने वाली वर्षा इस बार अपेक्षाकृत कम होगी। सामान्य से कम बारिश होने का कारण जून से सितंबर के दौरान प्रशांत महासागर में अल-नीनो की मौज़ूदगी है। लेकिन जून से सितंबर तक दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में सक्रिय रहने वाले मानसून को लेकर आए स्काईमेट के इस पहले पूर्वानुमान पर बहुत अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। स्काईमेट पिछले छह वर्षों मानसून का पूर्वानुमान लगाता रहा है, लेकिन उसका अनुमान सही साबित नहीं होता।

फिलहाल इस पूर्वानुमान के अनुसार, लंबी अवधि के औसत (Long Period Average-LPA) में मानसून 90 से 95% रहने का अनुमान है। इन महीनों में औसतन 93% वर्षा होगी, जबकि मई से जुलाई के बीच अल-नीनो का 66% प्रभाव रहेगा, जो कम वर्षा का कारण बनेगा। LPA 1951 और 2000 के बीच की वर्षा का औसत है, जो 89 सेंटीमीटर है।

कृषि और अर्थव्यवस्था होती है प्रभावित

देश में हर साल अप्रैल-मई में मानसून को लेकर अटकलों-अनुमानों का दौर शुरू हो जाता है। यदि मानसून औसत रहता है तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम रहता है तो सूखे की स्थितियाँ देखने में आती हैं। कमज़ोर मानसून से कृषि प्रभावित होती है और कृषि के प्रभावित होने का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।

मानसून कम-ज़्यादा या सामान्य

मानसून मूलतः हिंद महासागर एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आने वाली पवनों को कहते हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में भारी वर्षा कराती हैं। ये ऐसी मौसमी पवनें होती हैं, जो दक्षिणी एशिया क्षेत्र में जून से सितंबर तक सक्रिय रहती हैं।

मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90% से कम वर्षा होती है तो उसे कमज़ोर मानसून कहा जाता है। 96 से 104% वर्षा को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि वर्षा 104 से 110% होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। इससे अधिक वर्षा अधिकतम मानसून कहलाती है।

भारतीय मौसम विभाग के पूर्वानुमान

भारतीय मौसम विभाग भी समय-समय पर मानसून के पूर्वानुमान जारी करता है। लेकिन इसके अनुमान भी बहुत सटीक नहीं होते। पिछले वर्ष मौसम विभाग ने अच्छी वर्षा के पूर्वंमान जारी किये थे, लेकिन साथ ही बादलों की स्थिति देखते हुए यह आशंका भी जता दी थी कि वर्षा कम भी हो सकती है। पिछले साल वर्षा तो अच्छी हुई, लेकिन इसके कुछ राज्यों में सिमट जाने के कारण यह बाढ़ और भूस्खलन का कारण भी बनी। केरल, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जहाँ अतिवृष्टि से बेहाल हुए, वहीं महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक में अपेक्षाकृत कम वर्षा हुई।

  • देखने में आया है कि पिछले दस साल के आँकड़ों में मौसम विभाग के अधिकांश पूर्वानुमान सटीक नहीं बैठे। 2017 में मौसम विज्ञान विभाग ने मानसून के 106% रहने का अनुमान जताया था, लेकिन वास्तव में वर्षा 97% हुई थी।

कृषि वैज्ञानिक मौसम संबंधी भविष्यवाणी के आधार पर किसानों को फसल उगाने की सलाह देते हैं; और जब मानसून के अनुमान खरे नहीं उतरते तो उनकी सलाह भी धरी-की-धरी रह जाती है। ऐसा तब है जब हमारे देश में कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40% मानसूनी वर्ष पर निर्भर है और सालभर में होने वाली कुल वर्षा में मानसूनी वर्षा की हिस्सेदारी लगभग 80% है।

उपग्रह मौसम विज्ञान प्रणाली

पिछले एक दशक में भारत ने मौसम संबंधी कई उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित किये गए हैं, इसके बावजूद मानसून का विश्वस्त, सटीक पूर्वानुमान नहीं हो पा रहा। दरअसल, मानसून पूर्वानुमान की सटीक जानकारी के लिये जो डेटा एकत्र किया जाता है, वह सम्मिश्रित होता है। चूँकि परंपरागत डेटा स्‍थानिक तथा कालिक रूप से सीमित होता है, इसलिये उपग्रह डेटा स्‍थान तथा समय दोनों में अधिक बेहतर कवरेज उपलब्‍ध कराता है।

  • लगभग 90% डेटा जो कि किसी विश्‍लेषण-पूर्वानुमान प्रणाली में मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है, उपग्रह से प्राप्‍त डेटा होता है तथा शेष डेटा स्‍व-स्‍थानीय प्‍लेटफॉर्मों से प्राप्‍त होता है। भारतीय संदर्भ में मौसम संबंधी यह डेटा भारतीय तथा अंतर्राष्‍ट्रीय उपग्रहों से प्राप्‍त होता है।

भारत का मौसम विभाग अप्रैल के मध्य में मानसून को लेकर दीर्घावधि पूर्वानुमान जारी करता है। इसके बाद फिर मध्यम अवधि और लघु अवधि के पूर्वानुमान जारी होते हैं। मौसम विभाग की भविष्यवाणियों में हाल के वर्षों में कुछ सुधार हुआ है। देशभर में कई जगहों पर डाप्लर राडार लगाए गए हैं जिससे स्थिति में सुधार आया है। अभी मध्यम अवधि की भविष्यवाणियाँ जो 15 दिन से एक महीने की होती हैं, 70-80% तक सटीक निकलती है। कम अवधि की भविष्यवाणियाँ जो अगले 24 घंटों के लिये होती हैं करीब 90% तक सही होती हैं।

क्या है अल-नीनो?

अल-नीनो जलवायु तंत्र की एक ऐसी बड़ी घटना है जो मूल रूप से भूमध्य रेखा के आसपास प्रशांत क्षेत्र में घटती है, किंतु पृथ्वी के सभी जलवायु चक्र इससे प्रभावित होते हैं। इसका प्रभाव क्षेत्र लगभग 120 डिग्री पूर्वी देशांतर के आसपास इंडोनेशियाई द्वीप क्षेत्र से लेकर 80 डिग्री पश्चिमी देशांतर यानी मेक्सिको और दक्षिण अमेरिकी पेरू तट तक, संपूर्ण उष्ण क्षेत्रीय प्रशांत महासागर तक है। समुद्री जल सतह के ताप–वितरण में अंतर तथा सागर तल के ऊपर से बहने वाली हवाओं के बीच अंतर्क्रिया का परिणाम ही अल-नीनो है।

प्रशांत महासागर का सर्वाधिक गर्म समुद्री भाग पूर्व दिशा की ओर खिसकने पर दक्षिणी दोलन की वज़ह से भारतीय मानसून भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाता। अल-नीनो की स्थिति का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पूर्वी प्रशांत के हिस्से में समुद्री जीवन पर पड़ता है। व्यापारिक पवनों के कमज़ोर बहाव की वज़ह से पश्चिम की ओर के समुद्र में ठंडे और गर्म जल के बीच ताप विभाजन रेखा की गहराई बढ़ जाती है। लगभग 150 मीटर गहराई वाले पश्चिमी प्रशांत का गर्म जल, पूर्व दिशा की ओर ठंडे जल की छिछली परत को ऊपर की ओर धकेलता है। इस जल में समुद्री शैवाल तथा प्लवक और इन पर आश्रित जीवों का विकास होता है। अल-नीनो की स्थिति होने पर पूर्व दिशा की ओर की ताप विभाजन रेखा नीचे दब जाती है और ठंडे जल की गहराई बढ़ने से समुद्री शैवाल आदि नहीं पनप पाते।

मानसूनी पवनों का प्रभाव

जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून में भीषण गर्मी पड़ती है, तब कम दबाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्द्ध से भूमध्य रेखा के निकट से पवनें चलती हैं। इस तरह दक्षिणी गोलार्द्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी पवनें भूमध्य रेखा को पार करते ही पलट कर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं।

ये पवनें भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित हो जाती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में वर्षा करता है। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली पवनें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कैस्पियन सागर के ऊपर बहने वाली पवनों की दशा का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान पवनें भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमंडल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज़्यादा वर्षा के के रूप में सामने आता है।

  • ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर हमारे मानसून पूर्वानुमान सटीक जानकारी देने में खरे क्यों नहीं उतरते? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधन कम हैं, अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं?

पर्याप्त संसाधन हैं मौसम विभाग के पास

मानसून का पूर्वानुमान लगाने के लिये मौसम विज्ञानियों को महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमंडल की हरेक हलचल पर नज़र रखने के साथ इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाइयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कंप्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाज़ों और राडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आँकड़े इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर पूर्वानुमान लगाया जाता है।

भारत में मौसम विभाग की शुरुआत 1875 में हुई थी। आज़ादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्तार होता रहा है। आज भारत के मौसम विभाग के पास लगभग 550 भू-वेधशालाएँ, 60 से अधिक गुब्बारा केंद्र, 30 से अधिक रेडियो पवन वेधशालाएं, 11 तूफान संवेदी व 8 तूफान की चेतावनी देने वाले राडार और 8 उपग्रह चित्र प्रेषण एवं ग्राही केंद्र हैं।

इनके अलावा पेड़-पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्पीकरण को मापने वाले यंत्र, विकिरणमापी एवं भूकंपमापी वेधशालाएँ हैं। लक्षद्वीप, केरल व बेंगलुरु में मौसम केंद्रों के डेटा पर सतत निगरानी रखते हुए मौसम की पूर्वानुमान लगाए जाते हैं। साथ ही, अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से भी सीधे मौसम की जानकारियाँ सुपर कंप्यूटरों में दर्ज होती रहती हैं।

भारत में विभिन्न किस्म के जलवायु क्षेत्र और उपक्षेत्र हैं। हमारे देश में 127 कृषि जलवायु उपसंभाग और 36 संभाग हैं। हमारा देश विविध जलवायु वाला है तथा समुद्र, हिमालय और रेगिस्तान मानसून को प्रभावित करते हैं। इसलिये मौसम विभाग के तमाम प्रयासों के बावजूद मानसून तथा अन्य मौसमों का 100 फीसदी सटीक अनुमान लगा पाना संभव नहीं हो पाता।

अभ्यास प्रश्न: भारतीय कृषि और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले मानसून के प्रभावों का विश्लेषण करने के साथ सटीक मानसून पूर्वानुमान के लिये उठाए जा रहे कदमों की सारगर्भित विवेचना कीजिये।

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