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जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये उपाय और नीतियाँ

  • 07 Mar 2018
  • 16 min read

संदर्भ
"खुदा का शुक्र है कि इंसान उड़ नहीं सकते, और आसमान और धरती दोनों को ही बर्वाद नहीं कर सकते।"~ हेनरी डेविड थॉरो यदि इस वाक्य के संदर्भ में विचार किया जाए तो यह बताना निरर्थक होगा कि जलवायु परिवर्तन का संकट मानव के जीवन को किस हद तक नुकसान पहुँचा सकता है. यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत जोर-शोर से कार्य किया जा रहा है। इस विषय में बहुत सी योजनाएँ, नीतियाँ एवं सम्मेलनों का भी आयोजन किया रहा है ताकि आने वाली पीढ़ी को जलवायु परिवर्तन के होने वाले गंभीर परिणामों से सुरक्षित रखा जा सके. इस विषय पर इस लेख में संक्षिप्त में चर्चा की गई है।

प्रमुख बिंदु

  • वित्तीयन के जरिये जलवायु परिवर्तन संकटों का प्रबंधन करना आज उतना ही आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण हो गया है, जितने कि अन्य उपाय हैं। जलवायु वित्तीयन (Climate Finance) स्थानीय, राष्ट्रीय और पार-राष्ट्रीय वित्तीयन (Transnational Finance) को दर्शाता है।
  • यह लोक, निजी और अन्य स्त्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है। व्यापक स्तर पर निवेशों के ज़रिये ही उत्सर्जन में कटौती हेतु विभिन्न योजनाएँ व कार्यक्रम संचालित किये जा सकते हैं।
  • वर्तमान मानवाधिकार संरक्षण उन्मुखी विश्व में जलवायु वित्तीयन इन्हीं संदर्भों में एक वैध मांग के रूप में उभर रहा है।
  • आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) की परिषद द्वारा विकसित धारणा ‘प्रदूषणकर्त्ता भुगतान करे’ (Polluter Pays Principle) ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही जलवायु वित्तीयन की आवश्यकता को रेखांकित किया था।
  • इस सिद्धांत के जरिये अपेक्षा की गई कि प्रदूषण नियंत्रण उपायों को अबाध रूप से चलाने के लिये प्रदूषणकर्त्ता जिम्मेदारी लें।
  • भारत द्वारा 2005 के स्तर पर वर्ष 2020 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product - GDP) की उत्सर्जन की तीव्रता को 20-25 प्रतिशत तक कम करने के लिये स्वैच्छिक लक्ष्य की घोषणा की गई है।
  • वर्ष 2016 में यूएनएफसीसीसी (United Nations Framework Convention on Climate Change - UNFCCC) को भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (Biennial Update Report) के अनुसार, भारत ने 2005 और 2010 के बीच उत्सर्जन की तीव्रता में 12% की कमी हासिल की है।

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यूएनएफसीसीसी

  • यूएनएफसीसीसी कटौती (Mitigation) को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के प्रयास के रूप में परिभाषित करता है।
  • नई प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों के उत्पादन व उपयोग पर बल, पुराने उपकरणों को अधिक ऊर्जा कार्यकुशल (Energy Efficient) बनाना, प्रबंधन कार्यप्रणाली व उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव कटौती उपायों (Mitigation Efforts) की उपादेयता सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं।
  • यूएनएफसीसी के अंतर्गत वर्तमान में जो वित्तीय तंत्र कार्यशील हैं, उनके बारे में संक्षिप्त विवरण यहाँ अपेक्षित है- 

ग्लोबल एन्वायरमेंट फेसिलिटी (GEF)

  • इसका गठन वर्ष 1991 में किया गया था।
  • यह विकासशील व संक्रमणशील अर्थव्यवस्थाओं को जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन, अंतर्राष्ट्रीय जल, भूमि अवमूल्यन, ओजोन क्षरण, पर्सिसटेन्ट आर्गेनिक प्रदूषकों के संदर्भ में परियोजनाएँ चलाने के लिये वित्तपोषित करता है।
  • इससे प्राप्त धन अनुदान व रियायती फंडिंग के रूप में आता है।
  • यह फेसिलिटी यू.एन. अभिसमय के तहत् दो अन्य कोषों- लीस्ट डेवलप्ड कंट्रीज़ फंड (LDCF) और स्पेशल क्लाइमेट चेंज फंड (SCCF) को प्रशासित करता है।

अल्पविकसित देश कोष (LDCF)

  • इस कोष का गठन अल्पविकसित देशों को‘नेशनल एडैप्टेशन प्रोग्राम्स ऑफ एक्शन’ (NAPAs) के निर्माण व क्रियान्वयन में सहायता करने के लिये किया गया था।
  • एनएपीए के ज़रिये अल्पविकसित राष्ट्रों के एडैप्टेशन एक्शन की वरीयता की पहचान की जाती है।
  • इस कोष के तहत अल्पविकसित देशों को कृषि, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, जलवायु सूचना सेवाएं, जल संसाधन प्रबंधन, तटीय क्षेत्र प्रबंधन, आपदा प्रबंधन आदि नज़रिये से मूल्यांकित किया जाता है। 

विशेष जलवायु परिवर्तन कोष (SCCF)

  • इस कोष का गठन यूएनएफसीसीसी के तहत् वर्ष 2001 में किया गया था। इसे एडैप्टेशन, तकनीकी हस्तांतरण, क्षमता निर्माण, ऊर्जा, परिवहन, उद्योग, कृषि, वानिकी और अपशिष्ट प्रबंधन एवं आर्थिक विविधीकरण से संबंधित परियोजनाओं के वित्तीयन के लिये गठित किया गया था।
  • यह जीवाश्म ईंधन से प्राप्त आय पर अत्यधिक निर्भर देशों में आर्थिक विविधीकरण (Economic Diversification) व जलवायु परिवर्तन राहत हेतु अनुदान देता है।

एडैप्टेशन फंड

  • इस कोष का गठन भी वर्ष 2001 में किया गया था। इसका उद्देश्य 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के साझेदार विकासशील देशों में ठोस एडैप्टेशन परियोजनाओं व कार्यक्रमों का वित्तपोषण करना था।
  • ऐसे राष्ट्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है जो जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक गंभीर खतरों का सामना कर रहे हैं।
  • इस कोष को राशि क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म (CDM) से प्राप्त होती है। एक सीडीएम प्रोजेक्ट गतिविधि के लिये जारी ‘सर्टीफाइड एमीशन रिडक्शन (CERs) का 2 प्रतिशत इस कोष में जाता है।

हरित जलवायु कोष (GCF)

  • यह यूएनएफसीसीसी के तहत् एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था है।
  • वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में हरित जलवायु कोष के गठन का प्रस्ताव किया गया था जिसे 2011 में डरबन में हुए सम्मेलन में स्वीकार कर लिया गया।
  • यह कोष विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिये सहायता राशि उपलब्ध कराता है।
  • कोपेनहेगेन व कॉनकून समझौते में विकसित देश इस बात पर सहमत हुए थे कि वर्ष 2020 तक लोक व निजी वित्त के रूप में हरित जलवायु कोष के तहत् विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर उपलब्ध कराया जाएगा।
  • वहीं 19वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (वारसा में) में 2016 तक 70 बिलियन डॉलर देने का लक्ष्य तय किया गया जिसे विकासशील राष्ट्रों ने अस्वीकार किया था।
  • उल्लेखनीय है कि नवंबर 2010 में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के 16वें सत्र (Cop-16) में स्टैडिंग कमिटी ऑन फाइनेंस के गठन का निर्णय किया गया था ताकि विकासशील देशों की जरूरतों का ध्यान रखा जा सके।

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पेरिस समझौता

  • पेरिस जलवायु समझौते में यह लक्ष्य तय किया गया था कि इस शताब्दी के अंत तक वैश्विक तापमान को 2⁰C के नीचे रखने की हरसंभव कोशिश की जाएगी। 
  • इसका कारण यह बताया गया था कि वैश्विक तापमान 2⁰C से अधिक होने पर समुद्र का स्तर बढ़ने लगेगा, मौसम में बदलाव देखने को मिलेगा और जल व भोजन का अभाव भी हो सकता है। 
  • इसके अंतर्गत उत्सर्जन में 2⁰C की कमी लाने का लक्ष्य तय करके जल्द ही इसे प्राप्त करने की प्रतिबद्धता तो ज़ाहिर की गई थी परन्तु इसका मार्ग तय नहीं किया गया था।
  • इसका तात्पर्य यह है देश इस बात से अवगत ही नहीं हैं कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में उन्हें क्या करना होगा। 
  • दरअसल, सभी देशों में कार्बन उत्सर्जन स्तर अलग-अलग होता है, अतः सभी को अपने देश में होने वाले उत्सर्जन के आधार पर ही  उसमें कटौती करनी होगी।

एनडीसी के लक्ष्यों को हासिल करना

  • पेरिस समझौते के तहत भारत द्वारा 2021-2030 के लिये आठ (8) लक्ष्यों की एनडीसी (Nationally Determined Contribution -NDC) की रूपरेखा प्रस्तुत की गई, जिसके अंतर्गत  2005 के स्तर से 2030 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता में 33 से 35 प्रतिशत की कमी करने, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और ग्रीन क्लाइमेट फंड (Green Climate Fund - GCF) से कम लागत वाली अंतर्राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था की सहायता से वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन (non-fossil fuel) आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 40 प्रतिशत संचयी बिजली उत्पादन क्षमता हासिल करना है। 
  • 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्ष कवरेज़ के माध्यम से 2.5 से 3 अरब टन कार्बन -डाइआक्साइड के बराबर का अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाना।
  • इसके अन्य लक्ष्य टिकाऊ जीवनशैली से संबंधित हैं। इनमें जलवायु अनुकूल विकास पथ, जलवायु परिवर्तन अनुकूलन, जलवायु परिवर्तन वित्त और क्षमता निर्माण तथा प्रौद्योगिकी जैसे पक्षों को शामिल किया गया है।

एन.डी.सी. क्या है?

  • एन.डी.सी. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (Nationally Determined Contributions -NDCs) का बिना शर्त क्रियान्वयन  और तुलनात्मक कार्यवाही के परिणामस्वरूप पूर्व औद्योगिक स्तरों के सापेक्ष वर्ष 2100 तक तापमान में लगभग 3.2⁰C की वृद्धि होगी, जबकि यदि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों का सशर्त कार्यान्वयन किया जाएगा तो इसमें कम-से-कम 0.2% की कमी आएगी। 
  • जीवाश्म ईंधन और सीमेंट उत्पादन का ग्रीनहाउस गैसों में 70% योगदान होता है। रिपोर्ट में 2030 के लक्षित उत्सर्जन स्तर और 2⁰C और 1.5⁰C के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपनाए जाने वाले मार्गों के बीच विस्तृत अंतराल है।
  • वर्ष 2030 के लिये सशर्त और शर्त रहित एनडीसी के पूर्ण क्रियान्वयन हेतु तापमान में 2⁰C की बढ़ोतरी 11 से 13.5 गीगाटन कार्बन-डाइऑक्साइड के समान है।

अन्य महत्त्वपूर्ण पहलें

  • इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये भारत सरकार द्वारा एनएपीसीसी (National Action Plan on Climate Change - NAPCC) का क्रियान्वयन किया जा रहा है.
  • 30 जून, 2008 को जारी की गई जलवायु परिवर्तन संबंधी राष्‍ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने और भारत के विकास के पथ की परिस्थि‍तिकीय वहनीयता में वृद्धि करने के लिये सौर ऊर्जा, संवर्धद्धित ऊर्जा दक्षता, वहनीय पर्यावास, जल, हिमालयी पार-प्रणाली को बनाए रखने, हरित भारत, वहनीय कृषि और जलवायु परिवर्तन हेतु कार्यनीतिक ज्ञान के विशिष्‍ट क्षेत्रों में आठ राष्‍ट्रीय मिशनों की रूपरेखा तैयार की गई है।
  • इसके अलावा, 32 राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों द्वारा एसएपीसीसी (State Action Plans on Climate Change -SAPCC)पर राज्य कार्य योजना तैयार की गई है जो एनएपीसीसी के उद्देश्यों के ही अनुरूप है।
  • इसके अतिरिक्त भारत सरकार पर्यावरणीय दृष्टि से कमजोर क्षेत्रों में अनुकूलन कार्यों को लागू करने के लिये एक समर्पित राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (National Adaptation Fund) भी लागू कर रही है।

निष्कर्ष
जलवायु वित्तीयन पिछले 1 दशक से विकसित व विकासशील देशों के मध्य मतभेद का विषय रहा है। एक तरफ जहाँ विकसित देश पृथ्वी की धारणीय शक्ति की सीमा को नजरअंदाज कर प्राकृतिक संसाधनों को उपभोग, विलास, संवृद्धि का माध्यम मानते हैं, वहीं कृषि प्रधान विकासशील देशों में पृथ्वी व प्राकृतिक संसाधनों को जीवन-समर्थनकारी प्रणाली (Life-supporting System) के रूप में देखा जाता है। विकसित देश विकासशील देशों के लिये वित्तीय दायित्व का बोझ उठाने के प्रति अनिच्छुक रहे हैं। इस सम्मेलन में जलवायु वित्तीयन के विविध आयामों पर सकारात्मक कार्यवाही करने की मंशा व्यक्त की गई है, लेकिन विकसित व विकासशील देशों में एक सुस्पष्ट साझी समझ का विकसित होना किसी भी सफलता की प्राप्ति के लिये आवश्यक है। समस्या की पहचान, आकलन, बेहतर समन्वयन व प्रबंधन आदि से जुड़ी चुनौतियों की निगरानी आवश्यक है। विचारणीय है कि वर्ष 2007 में जलवायु वित्तीयन समीक्षा रिपोर्ट में यूएनएफसीसीसी के तत्त्वावधान में स्पष्ट किया गया था कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों, अनुकूलन व कटौती उपायों के लिये आवश्यक धनराशि व निवेश 2030 तक वैश्विक सकल उत्पाद के 0.3 से 0.5 प्रतिशत के बराबर होगा जबकि वैश्विक निवेश के 1.1 से 1.7 प्रतिशत की आवश्यकता होगी। इस परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से जलवायु वित्तीयन पर एक सद्भावपूर्ण पहल किये जाने की अपेक्षा एक वैध मांग है।

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