लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



एडिटोरियल

सामाजिक न्याय

गर्ल्स ड्रॉप आउट

  • 30 Aug 2021
  • 15 min read

यह एडिटोरियल 28/08/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘Making sure that girls don’t drop out of school’ पर आधारित है। इसमें बालिकाओं द्वारा बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने की समस्या और वे उच्च शिक्षा पूरी करें—यह सुनिश्चित करने के उपायों के संबंध में चर्चा की गई है।

पिछले कुछ दशकों से भारतीय महिलाओं ने गतिविधि के सभी क्षेत्रों में व्यापक प्रगति की है। फिर भी, अभी बहुत कुछ हासिल किया जाना शेष है। भारतीय महिलाओं ने भारत के लिये ओलंपिक खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। यदि उन्हें उपयुक्त सहयोग और समर्थन प्राप्त होता है तो किसी अन्य क्षेत्र में भी (विशेष रूप से शिक्षा के मामले में) उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन न कर सकने का कोई कारण नहीं है।

यदि हम एक आर्थिक महाशक्ति बनने की इच्छा रखते हैं तो एक राष्ट्र के रूप में अपने संभावित कार्यबल के आधे हिस्से की उपेक्षा नहीं कर सकते। एक समाज के रूप में महिलाएँ महत्त्वपूर्ण और स्थायी सामाजिक परिवर्तन लाने की धुरी हो सकती हैं; व्यक्ति के रूप में उन्हें अपने उत्कृष्टतम विकास का अवसर मिलना चाहिये।

इस संदर्भ में महिला शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा से संबंधित विभिन्न समस्याओं पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

बालिकाओं के पढ़ाई छोड़ देने का परिदृश्य:

  • पढ़ाई छोड़ देने के कारण: भारत में बालिकाओं द्वारा बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने के विविध कारण रहे हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारण हैं:  
    • घरेलू गतिविधियों में संलग्नता (31.9%)
    • आर्थिक तंगी (18.4%),
    • शिक्षा में रुचि का अभाव (15.3%), और
    • विवाह (12.4%)।
  • लैंगिक पूर्वाग्रह और सामाजिक मानदंड: समस्या का मूल न केवल निर्धनता और स्कूली शिक्षा की खराब गुणवत्ता में निहित है, बल्कि लैंगिक पूर्वाग्रहों और घिसे-पिटे सामाजिक मानदंडों में भी है।  
    • जिन राज्यों में बालिकाओं द्वारा माध्यमिक विद्यालय स्तर पर पढ़ाई छोड़ देने की उच्चतम दर पाई जाती है, वे वही राज्य हैं जहाँ लड़कियों के एक उल्लेखनीय प्रतिशत का 18 वर्ष की आयु से पूर्व विवाह कर दिया जाता है।
  • बालिकाओं की शिक्षा पर कम व्यय: स्कूलों के चयन, निजी ट्यूशनों तक पहुँच और उच्च शिक्षा में विषय के चयन तक लैंगिक पूर्वाग्रह की गहरी जड़ें जमी हुई हैं।  
    • इस स्तर पर बालिकाओं पर औसत वार्षिक घरेलू व्यय 2,860 रुपये है जो बालकों पर व्यय की तुलना में कम है।
    • भारत में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की औसत वार्षिक लागत साधारण स्नातक कार्यक्रमों की तुलना में बहुत अधिक है (8,000 रुपये की तुलना में 50,000 रूपये तक)।
    • AISHE 2019-20 के अनुसार, जो बालिकाएँ तृतीयक डिग्री में दाखिला लेने में सफल होती हैं, उनमें से एक छोटा अनुपात ही इंजीनियरिंग (28.5%) जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में आगे बढ़ता है, जबकि कई अन्य फार्मेसी (58.7%) या "सामान्य स्नातक" का विकल्प चुनती हैं (52%)।     
    • राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व सबसे कम है, जिसके बाद डीम्ड और निजी विश्वविद्यालय आते हैं।

गर्ल्स ड्रॉप आउट- आँकड़ा

  • ऐसा अनुमान है कि कोविड-19 महामारी के कारण वैश्विक स्तर पर 2.4 करोड़ से अधिक बालिकाएँ स्कूल छोड़ने की कगार पर हैं।   
    • महामारी के कारण स्कूलों के बंद रहने और आर्थिक कठिनाइयों ने शिक्षा के मामले में महिलाओं की समस्या को प्रभावित करने वाले कई कारकों को और सघन कर दिया है।  
  • भारत के परिप्रेक्ष्य में, महामारी से पहले उच्च शिक्षा में महिलाओं के सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio- GER) में क्रमिक वृद्धि की सकारात्मक प्रवृत्ति नज़र आ रही थी (वर्ष 2012-13 में 19.8% से बढ़कर वर्ष 2019-20 में 27.3%)।  
    • बावजूद इसके, महिलाओं की समस्या और उच्च शिक्षा की एक अधिक सूक्ष्म तस्वीर देखी जा सकती है। अभी हाल में यह महामारी प्रेरित लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित हुई है।
    • ऐसा अनुमान है कि अकेले महामारी के कारण एक करोड़ से अधिक बालिकाएँ स्कूल छोड़ने के कगार पर हैं।  

शिक्षा का महत्त्व: महिलाओं का सामाजिक विकास

  • उच्च सामाजिक प्रतिलाभ: विश्व बैंक की एक ‘दशकीय समीक्षा’ के अनुसार, स्कूली शिक्षा के केवल एक अतिरिक्त वर्ष के साथ प्रतिफल के निजी दर (किसी व्यक्ति की आय में वृद्धि) के लिये वैश्विक औसत लगभग 9% है, जबकि स्कूल के एक अतिरिक्त वर्ष का सामाजिक प्रतिफल और भी अधिक है (माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर 10% से अधिक)।   
  • उच्च शिक्षा का सकारात्मक प्रभाव: यह तथ्य दिलचस्प है कि उच्च शिक्षा में महिलाओं के लिये निजी प्रतिलाभ पुरुषों की तुलना में पर्याप्त अधिक है (विभिन्न अनुमानों के अनुसार 11 से 17%)।  
    • इसके स्पष्ट नीतिगत निहितार्थ हैं। उनके स्वयं के सशक्तिकरण के लिये, साथ ही साथ वृहत स्तर पर समाज के सशक्तिकरण के लिये, हमें अधिक से अधिक महिलाओं को उच्च शिक्षा के दायरे में लाना चाहिये।
  • महिलाएँ नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती हैं: अवसरों तक समान पहुँच के साथ स्वस्थ, शिक्षित लड़कियाँ सशक्त महिलाओं के रूप में विकसित हो सकती हैं जो अपने देश-काल में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती हैं। इससे सरकारी नीतियों में महिलाओं के दृष्टिकोण को बेहतर ढंग से समझने में भी मदद मिलेगी। 
  • निर्धनता उन्मूलन: महिलाएँ देश की आबादी के लगभग आधे भाग का निर्माण करती हैं, इसलिये देश में उनकी स्थिति में सुधार से निर्धनता उन्मूलन में पर्याप्त योगदान हो सकता है।  
    • सतत् विकास के लिये आवश्यक रूपांतरणकारी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों की प्राप्ति के लिये महिला सशक्तिकरण एक उत्प्रेरक भूमिका निभाता है।

आगे की राह:

  • इन प्रणालीगत चुनौतियों को दूर करने के लिये सरकार ने अतीत में कई कदम उठाए हैं, जैसे माध्यमिक शिक्षा के लिये लड़कियों के प्रोत्साहन देने की राष्ट्रीय योजना (NSIGSE), सभी आईआईटी संस्थानों में बालिकाओं के लिये अतिरिक्त सीटें और तकनीकी शिक्षा में बालिकाओं के लिये प्रगति छात्रवृत्ति योजना।  
    • हालाँकि, ऐसे अभूतपूर्व समय में हमें बालिकाओं के स्कूल छोड़ने की समस्या के समाधान के लिये और उच्च शिक्षा के पेशेवर एवं आर्थिक रूप से लाभदायी क्षेत्रों में अधिक लड़कियों को शामिल करने के लिये अभूतपूर्व उपायों की आवश्यकता है।
  • सामुदायिक शिक्षण कार्यक्रम: एक तात्कालिक कदम के रूप में प्रत्येक मोहल्ले में उपयुक्त कोविड मानदंडों के साथ एक मोहल्ला स्कूल या सामुदायिक शिक्षण कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिये।  
    • नीति आयोग ने नागरिक समाज संगठनों की मदद से 28 आकांक्षी जिलों में स्वयंसेवकों के नेतृत्व में संचालित "सक्षम बिटिया" नामक सामुदायिक कार्यक्रम शुरू किया था, जहाँ 1.87 लाख से अधिक छात्राओं को सामाजिक-भावनात्मक और नैतिक शिक्षा में प्रशिक्षित किया गया था।   
    • इस तरह की पहलों को दुहराया जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महामारी के दौरान और अधिक बालिकाएँ स्कूल छोड़ने को विवश न हों।
  • जेंडर एटलस/ड्रॉपआउट मैपिंग: ड्रॉप-आउट की संभावना का अनुमान लगाने के लिये एक जेंडर एटलस विकसित किया जाना चाहिये (जिसमें शामिल संकेतक स्कूल ड्रॉप-आउट के प्रमुख कारणों से मैप किए गए हों)।  
    • शिक्षकों को भी उन सभी छात्रवृत्तियों और उपलब्ध योजनाओं के संबंध में प्रशिक्षित किया जाना चाहिये जो लड़कियों और उनके परिवारों को उनकी शिक्षा जारी रखने के लिये आर्थिक सहायता प्रदान करती हैं।
  • माध्यमिक शिक्षा के लिये लड़कियों को प्रोत्साहन देने की राष्ट्रीय योजना को उन क्षेत्रों या राज्यों में संशोधित करने की आवश्यकता है जहाँ स्कूल ड्रॉप-आउट और बाल विवाह की उच्च व्यापकता पाई जाती है।   
    • छात्रवृत्ति राशि को बढ़ाया जा सकता है और स्नातक स्तर की पढ़ाई की पूर्ति से इसे संबद्ध किया जा सकता है, जहाँ छात्राओं को उनकी स्नातक डिग्री के प्रत्येक वर्ष के सफल समापन पर वार्षिक छात्रवृत्ति का भुगतान किया जाए।
  • शिक्षा के मामले में पिछड़े जिलों के लिये विशेष शिक्षा क्षेत्र: प्रत्येक पंचायत, जहाँ बालिकाओं द्वारा बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की प्रवृत्ति में लगातार वृद्धि हुई हो, वहाँ उच्च माध्यमिक (कक्षा I-XII) तक के संयुक्त विद्यालय खोले जाने चाहिये। 
    • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक लैंगिक समावेशन निधि (Gender Inclusion Fund) का प्रावधान करती है। इस निधि का उपयोग इन स्कूलों के साथ-साथ सभी कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में STEM शिक्षा का समर्थन करने के लिये किया जाना चाहिये ।
    • राज्य सरकारों को उच्च शिक्षा में महिलाओं को बढ़ावा देने हेतु आवश्यक हस्तक्षेपों को आकार देने के लिये मौज़ूदा योजनाओं का लाभ उठाने की आवश्यकता है।
  • सामाजिक पूर्वाग्रहों से निपटने की आवश्यकता: सामाजिक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी सांस्कृतिक मानदंड लड़कियों को उनकी जन्मजात क्षमता को साकार कर सकने की संभावना से अवरुद्ध करते हैं।  
    • अति-स्थानीय NGOs/CSOs की मदद से सामाजिक समस्याओं से निपटने के लिये राज्यों में बिहेवियरल इनसाइट्स यूनिट्स (BIU) की स्थापना की जा सकती है। 
    • नीति आयोग ने आकांक्षी जिलों में पोषण और स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने के लिये एक BIU की स्थापना कर इस दिशा में अग्रणी कदम आगे बढ़ाया है।

निष्कर्ष:

Covid-19 महामारी ने शिक्षकों और छात्रों के लिये अभूतपूर्व चुनौतियों को जन्म दिया है और विशेष रूप से बालिकाओं सहित हाशिये पर रहे लोग इसके प्रभाव में आए हैं। हालाँकि हाल के प्रयोगों और अधिगम अनुभव, पर्याप्त संसाधनों के सूचित लक्ष्यीकरण और एक चुस्त नीति वातावरण के साथ इस चुनौती को एक अवसर में भी बदला जा सकता है। उपयुक्त सक्षम वातावरण के साथ शैक्षिक प्रतिफलों में सुधार लाया जा सकता है।   

शिक्षा में लिंग भेद की समस्या को संबोधित करने के लिये बालिकाओं को सामाजिक, वित्तीय और भावनात्मक सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: शिक्षा के लिये नामांकित भारतीय महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में पर्याप्त कम है। भारत में इस अंतराल के कारणों और संभावित समाधानों का परीक्षण कीजिये।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2