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इच्छा-मृत्यु के लिये ‘लिविंग विल’ का औचित्य

  • 11 Oct 2017
  • 7 min read

संदर्भ

कोमा जैसी स्थिति में पहुँचने पर क्या किसी शख्स को खुद को ज़िन्दा रखने या इच्छा-मृत्यु चुनने का अधिकार दिया जा सकता है? विदित हो कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। केंद्र ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि यदि इच्छा-मृत्यु  को मंज़ूरी दी गई तो इसका दुरुपयोग हो सकता है।

मामले की पृष्ठभूमि

  • गौरतलब है कि एनजीओ ‘कॉमन कॉज’ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जिस तरह नागरिकों को जीने का अधिकार दिया गया है, उसी तरह उन्हें मरने का भी अधिकार है।
  • जबकि केंद्र सरकार का मानना है कि इच्छा-मृत्यु  की वसीयत (लिविंग विल) लिखने की अनुमति नहीं दी जा सकती, हालाँकि मेडिकल बोर्ड के निर्देश पर मरणासन्न व्यक्ति का ‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम’ हटाया जा सकता है।

क्या हैं केंद्र सरकार के तर्क?

  • केंद्र सरकार का कहना है कि विशेष परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया (कोमा में पड़े मरीज़ का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाना) सही तो है, लेकिन वह लिविंग विल का समर्थन नहीं करती है, क्योंकि यह एक तरह से आत्महत्या जैसा है।
  • सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि पैसिव यूथनेशिया को लेकर विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया गया है।

संबंधित विधेयक में क्या?

  • लॉ कमीशन की सिफारिश के आधार पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने ‘द मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेंसेंट (प्रोटेक्शन ऑफ पेसेंट एंड मेडिकल प्रैक्टिसनर्स) बिल’ का मसौदा तैयार किया गया है।
  • संबंधित विधेयक यह सुनिश्चित करेगा कि असाध्य और भयंकर पीड़ा देने वाली बीमारी से पीड़ित मरीजों को इलाज से मना करने की यानी लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने की इज़ाज़त है या नहीं।
  • इस विधेयक में यह कहा गया है कि पैसिव यूथेनेशिया के मामले में मेडिकल बोर्ड यह निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र होगा कि मरीज़ से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाना चाहिये या नहीं।

एक्टिव और पैसिव यूथेनेशिया में अंतर क्या है?

  • ‘एक्टिव यूथेनेशिया’ और ‘पैसिव यूथेनेशिया’ इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग ‘इच्छा-मृत्यु ’ को इंगित करने हेतु किया जाता है। ‘एक्टिव यूथेनेशिया’ वह स्थिति है, जब इच्छा-मृत्यु  मांगने वाले किसी व्यक्ति को इस कृत्य में सहायता प्रदान की जाती है, जैसे- ज़हरीला इंजेक्शन लगाना आदि।
  • वहीं पैसिव यूथेनेशिया वह स्थिति है जब इच्छा-मृत्यु  के कृत्य में किसी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं की जाती।
  • एक वाक्य में कहें तो एक्टिव यूथेनेशिया वह है, जिसमें मरीज़ की मृत्यु के लिये कुछ किया जाए, जबकि पैसिव यूथेनेशिया वह है जहाँ मरीज़ की जान बचाने के लिये कुछ न किया जाए।

क्या ‘लिविंग विल’ बनाना उचित है?

  • एनजीओ कॉमन कॉज ने इस मसले पर याचिका दाखिल की थी कि गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों को 'लिविंग विल' बनाने का हक मिलना चाहिये।
  • दरअसल, लिविंग विल बनाना इसलिये उचित नज़र आता है, क्योंकि 'लिविंग विल' के माध्यम से ही कोई शख्स यह बता सकेगा कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद न हो तो उसे ज़बरन लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखना उचित है या नहीं?
  • लेकिन यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ‘लिविंग विल’ की इज़ाज़त केवल पैसिव यूथेनेशिया के मामलों में ही दी जानी चाहिये।
  • कोमा में पहुँच चुका मरीज़ खुद इस स्थिति में नहीं होता कि वह अपनी इच्छा व्यक्त कर सके। इसलिये उसे पहले ही ये लिखने का अधिकार होना चाहिये कि जब उसके ठीक होने की उम्मीद खत्म हो जाए तो उसके शरीर को यातना न दी जाए।
  • हालाँकि बड़ा सवाल यह है कि कोई यह कैसे तय कर सकता है कि उसके शरीर को बाद में यातना झेलनी पड़ेगी। अतः वह पहले ही लिविंग विल’ पर हस्ताक्षर कर दे?
  • इस संबंध में एक उपाय यह हो सकता है कि डॉक्टरों की एक टीम द्वारा संबंधित व्यक्ति के स्वास्थ्य की भलीभाँति जाँच की जाए, लेकिन कानूनी प्रावधानों के अभाव में ऐसा नहीं हो पाता है।

निष्कर्ष

  • इच्छा-मृत्यु  के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि “संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का अधिकार प्रदान किया गया है, परंतु इसके साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं होता है”।
  • हालाँकि, कुछ अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में जीवन के अधिकार के साथ-साथ इच्छा-मृत्यु के अधिकार को भी स्वीकार किया गया है।
  • बीमार व्यक्तियों के लिये इच्छा-मृत्यु यानी बिना कष्ट के मरने के अधिकार की मांग अक्सर होती रही है। विदित हो कि लॉ कमीशन भी संसद को दी अपनी एक रिपोर्ट में पैसिव यूथेनेशिया को कानूनी जामा पहनाने की सिफारिश कर चुका है।
  • वर्तमान मामले में भले ही बहस लिविंग विल पर केन्द्रित है, लेकिन यह आवश्यक जान पड़ता है कि असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति को सम्मानजनक मौत मिले, हालाँकि इससे संबंधित तमाम नैतिक एवं वैधानिक आयामों पर एक व्यापक बहस के बाद ही इस संबंध में आगे कदम बढ़ाना चाहिये।
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