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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कठोर मामले और नरम कानून

  • 04 Mar 2017
  • 9 min read

गौरतलब है कि 3 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में एक आदेश पारित किया गया है जिसका भारत में मृत्युदंड के मामलों के संबंध में बहुआयामी असर होगा| न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है कि इस मामले में निचली अदालत एवं उच्च न्यायालय द्वारा अपराधी को मृत्य की सज़ा देने से उसके संबंध में गंभीर परिस्थितियों की जाँच पड़ताल नहीं की गई है| अत: सर्वोच्च न्यायालय ने मामले से संबद्ध अपराधियों को अपना पक्ष रखने के लिये बचाव पक्ष के वकील मुहैया कराने तथा आवश्यक गंभीर साक्ष्य उपलब्ध करने को कहा है|

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि 1980 के बचन सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि केवल उन्ही मामलों में मृत्युदंड दिया जाना चाहिये जिन मामलों में आजीवन कारावास की सज़ा अपर्याप्त लगे| 
  • अदालत द्वारा इस बात पर अधिक ज़ोर दिया गया कि मृत्युदंड दिये जाने से पूर्व अपराधी के सभी पक्षों पर विचार किया जाना चाहिये| यदि उसमें सुधार की थोड़ी भी गुंजाइश हो तो उस व्यक्ति को सुधार हेतु अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए|
  • हालाँकि, भारतीय अदालतें हमेशा से मृत्युदंड के मामलों में सुधार संबंधी कारकों यानि शमन कारकों के संग्रहण तथा प्रस्तुती की गौण संभाव्यता से त्रस्त रही हैं| 
  • ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश निश्चित रूप से शमन संबंधी साक्ष्यों के प्रस्तुतीकरण को प्रोत्साहन प्रदान करने का कार्य करेगा|
  • एक पर्याप्त शमन संबंधी कार्यवाही को सुनिश्चित करने के लिये न्यायालय ने प्रत्येक दो सप्ताह में दो घंटे की समयावधि के लिये अपराधियों को अपने बचाव पक्ष के वकील के साथ मामले के संबंध में विचार-विमर्श करने की अनुमति प्रदान की है| 
  • वस्तुतः मृत्युदंड के मामलों में सबसे बड़ी बाधा यह होती है कि अपराधी को एकांत में अपने वकील के साथ मामले के संबंध में विचार-विमर्श करने का समय नहीं मिलता है|
  • गौरतलब है कि भारत में मृत्युदंड के मामलों में सुरक्षा उपायों के सन्दर्भ में बहुत कम ध्यान दिया जाता है| यहाँ अपराधी के परिवार, उसके साथियों अथवा उसकी मानसिक स्थिति तथा विशेषज्ञों से मिलकर अपराधी के व्यक्तित्व, उसकी मानसिकता अथवा उससे संबद्ध अन्य जानकारियों के विषय में बहुत कम शोध की जाती हैं|  
  • इसके विपरीत विश्व के दूसरे अन्य देशों में ऐसा नहीं है, उदाहरण के तौर पर अमेरिका में, अपराधी से संबद्ध बहुत से पक्षों पर गंभीरता से विचार किया जाता है| यहाँ अपराधी की मानसिक स्थिति के साथ-साथ उसके आस-पास के माहौल के विषय में काफी खोजबीन की जाती है, ताकि उस व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध विशेष की प्रवृत्ति को समझा जा सके और भविष्य में ऐसी किसी भी घटना को होने से रोकने हेतु पर्याप्त उपाय सुनिश्चित किये जा सकें|
  • हालाँकि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं होता है| यहाँ अदालतों द्वारा अपराध के संबंध में शमन संबंधी कार्यवाही के बजाय शमन संबंधी कारकों की मांग की जाती है|
  • यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस समस्या का हल निकालने के लिये अपराधियों को बचाव पक्ष का वकील मुहैया कराए जाने का आदेश दिया गया है|
  • न्यायालय द्वारा इस प्रकार का आदेश देने का उद्देश्य मात्र यही है कि ऐसा करने से अपराधी तथा बचाव पक्ष के वकील को उक्त मामले के संबंध में अपना पक्ष रखने का समय मिल सकेगा| साथ ही इससे शमन संबंधी कारकों के विषय में शोध करने में आसानी होगी|  
  • वस्तुतः निचली अदालतों में मामले की सुनवाई में जो एक सबसे बड़ी समस्या आती है वह यह कि यहाँ मामले का निपटान त्वरित रूप से किया जाता है, जिस कारण उक्त मामले के विषय में पर्याप्त शोध नहीं हो पाता है|
  • स्पष्ट है कि इन अदालतों में मामले की सुनवाई के दिन ही फैसला दिये जाने के सन्दर्भ में प्रभावी कार्यवाही होने की आशा क्षीण हो जाती है|
  • गौरतलब है कि उक्त मामले के विषय में आदेश पारित करने से पूर्व न्यायालय के समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी निचली अदालतों में व्यक्तिगत एवं प्रभावी दंड प्रक्रिया का अभाव होना|
  • स्पष्ट है कि दंड प्रक्रिया के मंच पर इस तरह की किसी भी खामी का होना मामले में पुन:सुनवाई अथवा पुन:परीक्षण की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है|  यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस संदर्भ में फैसला देने से पूर्व प्रभावी रूप से सुनवाई करने पर बल दिया गया|
  • ध्यातव्य है कि 70 के दशक में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस समस्या को दो अलग-अलग रूपों में दृष्टिगत किया गया था|
  • वर्ष 1976 में संता सिंह मामले में न्यायालय ने मृत्युदंड के संबंध में एक अपूर्ण सुनवाई  प्रक्रिया संपन्न किये जाने के कारण निचली अदातल को वारंट रिमांड पर ले लिये था| 
  • इसके दो वर्ष पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय की अन्य पीठ द्वारा यह स्पष्ट किया गया था कि इस तरह के न्यायिक प्रक्रिया के उल्लंघन के मामलों को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाए जाने से पूर्व ही सुलझा लिया जाना चाहिये| 
  • एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मृत्युदंड के मामलों में सुरक्षा संबंधी  उपायों को अपनाया जाना चाहिये| साथ ही निचली अदालतों को रिमांड पर रखने के विकल्प को नज़रंदाज़ करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मृत्युदंड की सज़ा पाए व्यक्ति को न्यायिक जाँच हेतु आवश्यक विकल्प उपलब्ध कराए जाने चाहियें| 
  • एक अन्य मामलें में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि मृत्युदंड की सज़ा पाए व्यक्ति को अपील करने का बुनियादी अधिकार प्रदान किये जाने से ऐसे मामलों में होने वाली लापरवाही को कम किया जा सकता है|
  • यही कारण है कि वर्तमान में अदालतों द्वारा सज़ा का फरमान सुनाए जाने से पूर्व मामले के संबंध में पर्याप्त बहस सुने जाने की आशा की जाती है|
  • स्पष्ट है कि मृत्युदंड की सज़ा सुनाए जाने से पूर्व पर्याप्त मात्रा में साक्ष्यों की उपलब्धता होना अधिक प्रासंगिक माना जाता है| वस्तुतः मृत्युदंड के मामलों में शमन संबंधी जाँच इस प्रक्रिया का एक अहम भाग बनती जा रही है| विदित हो कि किसी मामले में शमन संबंधी जाँच ही वह प्रक्रिया होती है जिसके बलबूते एक सटीक तथा प्रासंगिक निर्णय प्रदान किया जाता है| वस्तुतः इन सभी सुरक्षा उपायों को न केवल मृत्युदंड के मामलों में बल्कि किसी भी मामले की सुनवाई के आवश्यक कारकों के रूप में दृष्टिगत किया जाना चाहिये| स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के जीवन के संबंध में एक अहम निर्णय किये जाने से पूर्व कुछ महत्त्वपूर्ण शोध अवश्य की जानी चाहिये|
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