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राष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण नीति

  • 18 Mar 2017
  • 5 min read

समाचारों में क्यों ?

गौरतलब है कि हाल ही में भारत सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य प्रसंस्करण नीति के मसौदे को सार्वजनिक टिप्पणी के लिये प्रस्तुत किया है। वस्तुतः यदि इस नीति के सभी पक्षों पर विचार करें तो यह नीति टुकड़ों में बेहतर प्रतीत होती है| तथापि इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिये इसके कुछ अहम प्रावधानों की भी समीक्षा कर लेना अत्यंत आवश्यक है।

प्रस्तावित खाद्य प्रसंस्करण नीति का महत्त्व

  • जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश को खाद्य प्रसंस्करण की दिशा में आत्मनिर्भर बनाने हेतु यह अत्यंत आवश्यक है कि इस क्षेत्र में पहले से व्याप्त समस्याओं एवं खामियों को दूर किया जाना चाहिये ताकि आगे के लिये राह स्पष्ट हो सके|
  • ध्यातव्य है कि कई नीतिगत उपाय मसलन सब्सिडी, कर रियायत और सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क में रियायत संबंधी अन्य कई उपायों को तो पहले से ही लागू किया जा चुका है। लेकिन एक बात जो इस नीति को अन्य नीतियों एवं कार्य योजनाओं से पृथक बनाती है वह यह कि इस नीति के अंतर्गत कुछ अहम बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है।
  • वस्तुतः ये बाधाएँ इस क्षेत्र को पूरी क्षमता से विकसित नहीं होने दे रही हैं। अतः यही कारण है कि इस नीति के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाने और श्रम कानूनों में सुधार करने जैसे प्रावधानों को शामिल किया गया है।
  • इसके अतिरिक्त इस नीति के अंतर्गत शामिल कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण और उनके मूल्यवर्द्धन को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर इसलिये भी बल दिया गया है क्योंकि कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा मंडी में पहुँचने के पहले ही नष्ट हो जाता है। संभवतः ऐसा इसलिये होता है क्योंकि किसानों को अपनी उपज को संरक्षित करने, उसका भंडारण करने एवं उच्च कीमत के साथ बेचने की सुविधा प्राप्त नहीं होती है|
  • विदित हो कि इस दस्तावेज में कुल 46 जिंसों में फसल उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान का एक राष्ट्रव्यापी अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें कहा गया है कि इसके चलते सालाना करीब 44,000 करोड़ रुपये मूल्य का नुकसान होता है। यह आकलन वर्ष 2009 के थोकमूल्य के आधार पर किया गया है। सब्जियों और फलों जैसी जल्द खराब होने वाली चीजों के मामले में यह नुकसान खासतौर पर बहुत अधिक है।
  • हमारा देश इस क्षेत्र में नुकसान बरदाश्त करने की स्थिति में भी नहीं है। खासतौर पर इसलिये क्योंकि इन जिंसों की आपूर्ति और इनकी कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव आता है। अगर इन वस्तुओं का समय से प्रसंस्करण और मूल्यवर्द्धन किया जा सके तो इससे बचा जा सकता है। मूल्यवर्द्धन से तात्पर्य इनको ऐसा रूप देने से है ताकि ये टिकाऊ बन सकें।

प्रस्तावित नीति में नकारात्मक क्या ?

  • प्रस्तावित नीति में जहाँ यह एक सकारात्मक बात है कि खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के उद्यमियों के लिये सकारात्मक कारोबारी माहौल तैयार किया जाएगा। वहीं इसमें नकारात्मक बात यह है कि मौजूदा स्वरूप में यह नीति बड़ी परियोजनाओं और खाद्य आधारित क्लस्टरों के पक्ष में झुकी हुई है। इसमें छोटी-मझोली इकाइयों के लिये खास जगह नहीं है। गौरतलब है कि सरकार एक दशक से बड़े फूड पार्क का समर्थन करती आई है लेकिन इसका कोई बड़ा फायदा नहीं नज़र आया। वर्ष 2008-09 से जिन 40 मेगापार्क को मंजूरी दी गई है उनमें से कुछ ही पूरे हुए हैं। अतः प्रस्तावित नीति में पूर्व की गलतियों से सबक लेते हुए इस बात का ध्यान रखना होगा|

निष्कर्ष

हालाँकि हाल के दिनों में हालात सुधरे हैं फिर भी इस क्षेत्र की सालाना वृद्घि दर 2.5 फीसदी से आगे नही बढ़ सकी है। अब बड़े पैमाने पर छोटे और मझोले उद्यम स्थापित किये जाने की आवश्यकता है। किसानों से जुड़कर ऐसी इकाइयाँ काफी अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं। इससे फसल में विविधता आएगी, रोज़गार पैदा होगा और किसानों की आय बढ़ेगी। इसके अलावा इससे आपूर्ति और कीमत में स्थिरता भी सुनिश्चित की जा सकती है|

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