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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

जीएम फसलें – जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान

  • 25 May 2017
  • 9 min read

संदर्भ
भारतीय मौसम विभाग के सामान्य मानसून की भविष्यवाणी से किसानों में कुछ उत्साह बना हुआ है| हालाँकि, एल-नीनो प्रभाव का वर्षाऋतु के अंत तक फसलों पर कुछ नकारात्मक असर अवश्य पड़ सकता है| ध्यातव्य है कि वर्ष 2016 के सामान्य मानसून ने भारत को सूखे की समस्या से उबरने में सहायता की है तथा इसके कारण अनाजों का भी अच्छा उत्पादन हुआ है|

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • हालाँकि, सामान्य मानसून लाभ केवल उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी भारत तक ही सीमित रहे तथा दक्षिण भारत लगातार दो वर्षों तक सूखे की चपेट में ही रहा| ध्यातव्य है कि केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और पुदुचेरी स्वयं को सूखा प्रभावित क्षेत्र भी घोषित कर चुके हैं| केरल और कर्नाटक सूखे की स्थिति से उबरने के लिये क्लाउड सीडिंग (cloud seeding) जैसे तरीके अपना रहे हैं|
  • केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून से होने वाला नुकसान 34% तथा उत्तर-पूर्वी मानसून से होने वाला नुकसान 61% था जबकि तमिलनाडु में यह नुकसान क्रमशः 19% तथा 62% था| तटीय कर्नाटक के लिये यह क्रमशः 21% तथा 63% था|
  • केरल में पड़े भयंकर सूखे के कारण इलायची,कॉफ़ी और मिर्च की फसलों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा| ये सभी राज्य की नकदी फसलें हैं| हालाँकि सूखे के कारण केवल कृषि का उत्पादन और इससे सहायक क्षेत्र ही प्रभावित नहीं हुए हैं बल्कि इससें पेय जल की समस्या में भी बढ़ोतरी हो गई है|
  • सूखा प्रभावित महाराष्ट्र के कुछ अधिकारी इंडोनेशिया के एक खेत में गए जिसमें आनुवंशिक रूप से संशोधित, सूखा प्रतिरोधी गन्ना उगाया जा रहा था| वास्तव में गन्ने के पौधे की जल पर निर्भरता होती है| इंडोनेशिया के वैज्ञानिकों और भारतीय अधिकारियों ने यह देखा कि स्वस्थ दिखने वाले इस गन्ने की सिंचाई चार वर्षों से नहीं की गई थी| एक अन्य मामले में भारतीय वैज्ञानिकों ने चावल की उन जीएम किस्मों को विकसित किया जिनमें मैन्ग्रोव(जो खारि जल में उगते हैं) में उगने वाले पौधों के जीन उपस्थित थे|

समस्या क्या है?

  • यह देखा गया है कि किसान वे फसलें नहीं उगाना चाहते हैं जो पारिस्थितिकी के अनुकूल हों| यदि गन्ने की फसल (जिसके लिये अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है) का ही उदाहरण लिया जाए तो इसे मराठावाड़ा क्षेत्र में उगाया जा रहा है जबकि यह एक सूखा प्रभावित क्षेत्र है| इसके अतिरिक्त किसान बाजरे की फसल नहीं उगाना चाहते हैं जो कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों में उगाई जा सकती है और इससे गन्ने और अन्य नकदी फसलों के समान ही उन्हें आर्थिक लाभ भी प्राप्त होगा| विचारणीय है कि केवल महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश के लगभग सभी राज्यों की स्थिति इसी प्रकार की है|
  • कर्नाटक के मध्य क्षेत्र के लिये रागी सबसे उपयुक्त फसल थी परन्तु वर्ष 1970 के पश्चात् किसानों ने इससे अच्छा विकल्प धान और गन्ने को माना जिनमें अधिक जल की आवश्यकता होती है| फसलों और कृषि जलवायु क्षेत्रों की यह विविधता भारत  में 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति का प्रमाण है|

क्या है भारत की स्थिति?

  • भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में वर्ष 1950 (5,000 घन मीटर) की तुलना में वर्तमान समय (2,000 घन मीटर) में गिरावट दर्ज की गई है तथा यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2025 में यह 1500 घन मीटर ही रह जाएगी, जिससे कृषि के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं होगा| 
  • भारत में कृषि के लिये जल की उपलब्धता एक समस्या बन चुकी है क्योंकि केवल कृषि के लिये ही देश में 80% भूमिगत जल का उपयोग होता है|
  • भारत विश्व में भूमिगत जल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता भी है | इसकी 60% सिंचित कृषि और 85% पेय जल आपूर्ति जल स्रोतों पर ही निर्भर है| 
  • यह देखा गया है भारत में उद्योगों और घरों द्वारा केवल 20% जल संसाधनों का ही उपयोग किया जाता है अतः नीति निर्माताओं को औद्योगिक इकाईयों पर इस बात के लिये दबाव नहीं बनाना चाहिये कि वे उनके  द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले जल में कमी लाने का दबाव नहीं बनाना चाहिये|

क्या है पंजाब व पश्चिम बंगाल की स्थिति?

  • पंजाब की अर्द्ध-शुष्क स्थलाकृति में परंपरागत रूप से धान की खेती नहीं की जाती है| धान को पंजाब की नदियों के किनारे स्थित मैदानों में ही उगाया जाता है| 
  • इस राज्य में जलवायु पारिस्थितिक तंत्र के कारण एक किलोग्राम धान उगाने के लिये 53337 लीटर जल(कृषि लागत और मूल्य के लिये आयोग द्वारा दिये गए आँकड़े) की आवश्यकता होती है जो पश्चिम बंगाल (2,605 लीटर) की तुलना में दोगुना है| 
  • पश्चिम बंगाल भारी वर्षा के कारण धान फसल को उगाने का उचित स्थान है| जल की कमी वाले पारिस्थितिक तंत्र में कृषि जैव विविधता के कारण धान की अच्छी किस्में पैदा की जाती हैं जो कम पानी में भी उग सकती हैं| वैज्ञानिकों द्वारा जीएम तकनीक को लाभदायक बताये जाने के बावजूद भी इस तकनीक के उपयोग से संबंधित विवाद लगातार जारी हैं|

क्या किया जा सकता है?

  • बढ़ती आय के साथ जीवन शैली में हुए सुधारों और एक विकसित अर्थव्यवस्था से कृषि में तीन प्रकार के बदलाव लाये जा सकते हैं –

→ अनाज की फसलों पर कम ध्यान केंद्रित करके फलों, सब्जियों और अन्य नकदी फसलों को उगाया जाए| 
→ अधिकतम उत्पादन के सिद्धांत पर न चलकर उत्पाद की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाए|
→ फसल की कटाई के पश्चात् मूल्य वर्धन पर भी ध्यान दिया जाए|

  • जीएम फसलें उत्पादन संबंधी मुद्दों का समाधान करने का एक अच्छा तरीका है परन्तु अन्य विकासशील देशों के विपरीत जब कृषि जैव-प्रौद्योगिकी की बात की जाती है तो भारत में इसका खुला विरोध होता है|
  • संशोधित फसलें खारे जल के उच्च सांद्रण में वृद्धि कर सकती हैं| जीएम सरसों और बीटी बैंगन के समान ही इनकी संभावनाएं असीम हैं| भारतीय वैज्ञानिकों के लिये न केवल अपने देश के लिये बल्कि अन्य देशों के लिये भी खाद्य उपलब्ध कराना चुनौतीपूर्ण बन गया है| यही कारण है कि जैव प्रौद्योगिकी में वैज्ञानिक नवाचारों पर बल दिया जा रहा है|
  • यह माना जा रहा है कि जीएम तकनीक से सभी समस्याओं का समाधान तो नहीं निकलेगा परन्तु यह इसके विरोध का आधार नहीं होना चाहिये| वे सभी तकनीकें जो सुरक्षित हैं उन्हें स्वीकृति मिलनी चाहिये तथा उन्हें अपनाने या न अपनाने का निर्णय किसानों पर छोड़ देना चाहिये|

निष्कर्ष
जल की गुणवत्ता में सुधार करने और जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करने के लिये कृषि विज्ञान के लाभों से अवगत होना आवश्यक है तथा इसके लिये वैश्विक स्तर पर उचित प्रयास भी करने होंगे|

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