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एडिटोरियल

शासन व्यवस्था

शहर सरकार को सशक्त बनाना

  • 22 Jan 2022
  • 10 min read

यह एडिटोरियल 21/01/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Democratise and Empower City Governments” लेख पर आधारित है। इसमें शहरी स्थानीय सरकारों से संबद्ध चुनौतियों और उन्हें सशक्त बनाने हेतु किये जा सकने वाले उपायों के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

शहरी स्थानीय सरकारें (पंचायती राज संस्थाओं के साथ) भारत में स्थानीय सरकार की इकाइयों के रूप में लंबे समय से अस्तित्व में रही हैं। ये लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के उद्देश्य से स्थापित की गईं थी।

यहाँ तक कि कोविड-19 महामारी के समय भी भारत में त्रि-स्तरीय सरकारों ने रोकथाम रणनीतियों, स्वास्थ्य देखभाल, क्वारंटाइन एवं परीक्षण सुविधाओं के कार्यान्वयन, टीकाकरण शिविर के आयोजन और आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति को बनाए रखने में अग्रणी भूमिका निभाई।

हालाँकि इसके साथ उनकी वित्तीय स्थिति गंभीर दबाव में आ गई है, जिससे उन्हें अपने खर्चों में कटौती करने और विभिन्न स्रोतों से धन जुटाने के लिये विवश होना पड़ा है।

उच्च संसाधन उपलब्धता के माध्यम से इन नागरिक निकायों का वित्तीय सशक्तिकरण उनकी कार्यात्मक स्वायत्तता की वृद्धि करने और उनके शासन को सशक्त करने के लिये आवश्यक है।

शहरी स्थानीय सरकारें (Urban Local Governments)

  • शहरी सशक्तिकरण की शुरुआत: भारत में शहरी सशक्तिकरण के प्रति सामान्य दृष्टिकोण प्रायः चरणबद्ध रूप से इसे सशक्त बनाने का रहा है।
    • 'शहर' को समझने और अखिल भारतीय दृष्टिकोण के साथ योजना निर्माण के रूप में पहला हस्तक्षेप 1980 के दशक में किया गया जब ‘चार्ल्स कोरिया’ (Charles Correa) की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय शहरीकरण आयोग’ (National Commission on Urbanisation) (1988) का गठन किया गया।
      • हालाँकि पूर्व की पंचवर्षीय योजनाओं में भी इनके संदर्भ मौजूद थे।
  • अन्य प्रावधान: एक अन्य महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप भारत के संविधान में 74वें संशोधन के माध्यम से किया गया जिसने शहरी स्थानीय निकायों को 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 18 कार्यों को संपन्न करने का अधिकार सौंपा।
    • स्थानीय निकायों पर 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट ने शहर के शासनिक ढाँचे और उनके वित्तीय सशक्तिकरण की आवश्यकता पर बल दिया था।

चुनौतियाँ

  • संसाधनों की कमी: 221 नगर निगमों पर भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के सर्वेक्षण (2020-21) से पता चला है कि इनमें से 70% से अधिक निगमों के राजस्व में गिरावट आई है जबकि इसके विपरीत उनके व्यय में लगभग 71.2% की वृद्धि हुई है।
  • RBI रिपोर्ट में संपत्ति कर के सीमित कवरेज और नगर निगम के राजस्व की वृद्धि में इसकी विफलता पर भी प्रकाश डाला गया है।
  • आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organisation for Economic Co-operation and Development- OECD) के आँकड़ों से भी पता चलता है कि भारत में संपत्ति कर संग्रह दर (संपत्ति कर और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात) का स्तर विश्व में न्यूनतम है।
  • निम्न कार्यात्मक स्वायत्तता: महामारी के दौरान राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तर के नेताओं को तो आपदा शमन रणनीतियों में एक भूमिका सौंपी गई थी, लेकिन नगर निगमों के प्रमुखों को इस समूह में शामिल नहीं किया गया था।
  • जबकि आपदा प्रबंधन कार्ययोजना के अंतर्गत शहर महामारी से लड़ने में सबसे आगे रहे हैं, वहीं उनके निर्वाचित नेतृत्व को इसमें प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया।
  • शहरों को राज्य सरकारों के सहायक/अधीनस्थ के रूप में देखने का पुरातन दृष्टिकोण अभी भी नीतिगत प्रतिमान पर हावी है।
  • अनुदान में गिरावट: चुंगी (Octroi)—जो किसी कस्बे या शहर में प्रवेश करने वाली विभिन्न वस्तुओं पर अधिरोपित शुल्क था, शहरों की कमाई का प्रमुख माध्यम होता था, लेकिन इसे बाद में जनसांख्यिकीय प्रोफाइल के एक फ़ॉर्मूले के आधार पर शहरी स्थानीय निकायों को प्रदत्त अनुदान (वित्त आयोग द्वारा अनुशंसित) द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया।  
  • पूर्व में जहाँ शहरी केंद्रों के कुल राजस्व व्यय के लगभग 55% की पूर्ति चुंगी द्वारा हो जाती थी, अब प्रदत्त अनुदान उनके केवल 15% व्यय को ही कवर कर पाता है।
  • इसके परिणामस्वरूप लोगों पर अधिक करों का बोझ लादने और नगर निकायों की सेवाओं के निजीकरण/आउटसोर्सिंग के एक दुष्चक्र का निर्माण हुआ है। GST ने इस समस्या को और गंभीर कर दिया है।
  • संरचनात्मक समस्याएँ: कुछ शहरी स्थानीय सरकारों के पास अपना भवन तक नहीं है या अगर है भी तो वहाँ शौचालय, पेयजल और बिजली कनेक्शन जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
  • इसके अलावा, स्थानीय निकायों में सचिव, कनिष्ठ इंजीनियर, कंप्यूटर ऑपरेटर और डेटा एंट्री ऑपरेटर जैसे सहायक कर्मचारियों और कर्मियों की कमी है। यह उनके कामकाज और सेवाओं के वितरण को प्रभावित करता है।

आगे की राह

  • शहरी सरकारों के लिये ‘3F’: शहर की सरकारों के पास कार्यात्मक स्वायत्तता होनी चाहिये और इसे ‘3F’ (Functions, Finances and Functionaries) के हस्तांतरण के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है। इनके बिना कार्यात्मक स्वायत्तता की बात कोरी ही सिद्ध होगी।
    • केरल के लोक योजना मॉडल (People’s Plan Model) में राज्य के योजना बजट का 40% स्थानीय निकायों (प्रत्यक्ष रूप से देय) के लिये है जहाँ उन्हें योजना निर्माण जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों का हस्तांतरण भी किया गया है।
      • इसने शहरी शासन के लिये एक नए आयाम का मार्ग प्रशस्त किया। अन्य राज्यों में भी इस तरह के उपाय किये जाने चाहिये।
    • इसके साथ ही, शहरों में नेतृत्व को पाँच वर्ष की अवधि के लिये चुना जाना चाहिये। कुछ शहरों में महापौर का कार्यकाल महज़ एक वर्ष का रहा है। अधिकारियों को स्थायी कैडर के साथ शहरों में स्थानांतरित किया जाना चाहिये।
  • आयकर संग्रह से अनुदान: स्कैंडिनेवियाई देश अपने कार्यों—शहरी नियोजन से लेकर परिवहन और अपशिष्ट प्रबंधन तक, के सुप्रबंधन में सफल रहे हैं जहाँ वे नागरिकों से एकत्र किये गए आयकर का एक विशिष्ट अंश शहर की सरकारों को प्रदान करते हैं।
    • यदि भारत में बड़े शहरी समूह शहर के मामलों के प्रबंधन के लिये आयकर का एक निश्चित प्रतिशत प्राप्त कर सकें तो यह वास्तव में उनकी स्थिति में सुधार लाने में मदद करेगा।
    • पूर्व में शहरों से एकत्र किये गए आयकर का 10% केंद्र सरकार द्वारा प्रत्यक्ष राजस्व अनुदान के रूप में शहरों को वापस कर देने की अनुशंसा भी की गई थी।
  • रूपांतरण के लिये व्यवहार परिवर्तन की आवश्यकता: शहरों को शासन के महत्त्वपूर्ण केंद्रों के रूप में देखा जाना चाहिये जहाँ लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण आश्चर्यजनक परिणाम ला सकता है।
    • इसके साथ ही पारदर्शिता और लोगों की पर्याप्त भागीदारी भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
    • शहरों को महज़ उद्यमिता के स्थान के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये जहाँ एकमात्र प्रेरक शक्ति उन्हें निवेश आकर्षित करने के लिये प्रतिस्पर्द्धी बनाना हो।
      • संसाधनों पर पर्याप्त ध्यान देकर उन्हें नियोजित विकास के क्षेत्र के रूप में देखा जाना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: उन प्रमुख चुनौतियों की चर्चा कीजिये जो शहरी स्थानीय सरकारों के कुशल कार्यकलाप में अवरोध उत्पन्न करती हैं और इस दिशा में किये जा सकने आवश्यक उपायों पर विचार कीजिये।

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