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एडिटोरियल

सामाजिक न्याय

डिजिटल प्रौद्योगिकी और नागरिक समाज

  • 26 Jul 2021
  • 10 min read

यह एडिटोरियल 23/07/2021 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Digital challenge for civil society’’ लेख पर आधारित है। इसमें डिजिटल युग में नागरिक समाजों के समक्ष विद्यमान चुनौतियों और इनके समाधान की चर्चा की गई है।

संदर्भ 

कोविड-19 महामारी ने उन विभिन्न समस्याओं और गंभीर चिंताओं को उजागर किया है, जिन्होंने डिजिटल रूप से अधिक सक्षम समाज के निर्माण में भारत के समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं।  

महामारी के दौरान कई आवश्यक सेवाओं- जैसे स्वास्थ्य सेवाओं और टीकाकरण, शिक्षा, आजीविका एवं राशन आदि तक व्यापक पहुँच आदि ने देश में प्रौद्योगिकी के असमान वितरण के प्रभावों का सामना किया है।

इस प्रकार, बढ़ती असमानताओं और स्वास्थ्य प्रणाली पर बढ़ते बोझ के साथ डिजिटल रूप से संचालित कार्यक्रमों की तात्कालिक आवश्यकता अब पहले से कहीं अधिक है।

इस संदर्भ में स्पष्ट है कि विकास क्षेत्र (जैसे गैर-सरकारी संगठन और नागरिक समाज संगठन) भी नई प्रौद्योगिकियों से अलग-थलग नहीं बने रह सकते हैं। उन्हें डिजिटल ट्रांज़िशन के लिये प्रयास करना चाहिये, ताकि विभिन्न डिजिटल चुनौतियों को आसानी से हल किया जा सके।  

डिजिटल चुनौतियाँ

  • दूरस्थ समुदाय तक डिजिटल रूप से पहुँच में कमी: कोविड-19 महामारी की पहली लहर के दौरान विकास क्षेत्र को प्रौद्योगिकी की ओर अवस्थांतरित करने की तत्काल आवश्यकता महसूस की गई थी, क्योंकि इस दौरान देश में दूरस्थ समुदायों तक पहुँच की असमर्थता जैसे चुनौतियों का सामना करना पड़ा था।
    • जून 2020 में आयोजित एक सर्वेक्षण की मानें तो उत्तरदाताओं में से केवल आधे लोग ही अपने स्थानीय समुदायों में आयोजित की जा रही ऑनलाइन कक्षाओं से अवगत थे।
    • इन अंतरालों के गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं और लगभग 10 मिलियन बालिकाओं को स्कूल छोड़ना पड़ सकता है।
  • दूरस्थ क्षेत्रों में सेवाओं का अभाव: डिजिटल सेवाओं के समान रूप से वितरित नहीं होने के कारण, दूरस्थ क्षेत्रों के समुदायों को डिजिटल उपकरणों के पूरक के तौर पर प्रायः ज़मीनी स्तर के कर्मियों की सहायता की आवश्यकता होती है।  
    • उन्हें नवोन्मेषी और अवसंरचनात्मक डिजिटल समाधानों के लिये वित्त प्राप्त करने के मामले भी भारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। परिणामस्वरूप यह नागरिक समाज संगठनों (CSOs) के लिये चुनौतियाँ खड़ी करता है।
  • डिजिटल विभाजन: महामारी की दूसरी लहर के दौरान, शहरी भारतीयों ने जीवनरक्षक चिकित्सा आपूर्ति प्राप्त करने के लिये लगातार सोशल मीडिया मंचों का सहारा लिया, लेकिन ग्रामीण भारतीय इन मंचों का उपयोग करने में सक्षम नहीं थे।  
    • इंटरनेट की असमान पहुँच ने भारत में कोविड-19 टीकों तक पहुँच और पंजीकरण को भी एक चुनौती बना दिया है, जिससे लाखों भारतीय अपना पंजीकरण नहीं करा पा रहे हैं।
  • डिजिटल निरक्षरता: यह स्पष्ट है कि अधिकांश भारतीय नागरिकों में डिजिटल साक्षरता की कमी है और जो लोग डिजिटल रूप से सक्षर भी हैं, उनमें से भी कई लोगों के लिये ऑनलाइन सुरक्षा अभी भी एक अपरिचित अवधारणा ही बनी हुई है।    
    • भाषा एवं पहुँच की बाधाएँ और सीमित डेटा एवं ढाँचागत प्रणालियाँ इस परिदृश्य को और जटिल बनाती हैं।
  • सामाजिक बाधाएँ और प्रणालीगत असमानता भी इसमें एक बड़ी भूमिका निभाती हैं- आज भी महिलाओं के पास मोबाइल स्वामित्व (किसी पारिवारिक सदस्य के मोबाइल के बजाए अपना मोबाइल) उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में काफी कम है।  
    • इसके अलावा, विभिन्न समुदाय आज भी युवा लोगों, विशेष रूप से युवा महिलाओं को मोबाइल उपकरण सौंपने के विरुद्ध हैं ताकि वे किसी प्रकार उनकी मौजूदा पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती न दे सकें।

आगे की राह

  • प्रौद्योगिकी-सक्षम विकास क्षेत्र की आवश्यकता: यह उपयुक्त समय है कि विकास क्षेत्र (NGOs/CSOs) प्रौद्योगिकी-संचालित पारितंत्र की ओर आगे बढ़ें, ताकि मौजूदा डिजिटल विभाजन को दूर करने हेतु अधिक व्यवस्थित और सुदृढ़ प्रयासों को बढ़ावा दिया जा सके और दूरस्थ समुदायों को डिजिटल पहुँच प्राप्त करने में भी सक्षम बनाया जा सके।  
  • प्रौद्योगिकीय हस्तक्षेप: डिजिटल समाधान के सृजन और कार्यान्वयन की प्रक्रिया बहुस्तरीय और जटिल है। कई नागरिक समाज संगठनों के अनुसार, किसी कार्यक्रम के जीवनचक्र में प्रौद्योगिकीय हस्तक्षेप के कारण उत्पन्न मांगों की आपूर्ति करना इस दिशा में प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।   
    • इसके लिये अनुकूलित अथवा विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर संशोधित डिजिटल हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। यह विषय जटिल हो जाता है, क्योंकि CSOs को उन स्थानीय समुदायों के साथ काम करना होगा, जो स्वयं डिजिटल चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
    • डिजिटल हस्तक्षेपों को इन अनिवार्यताओं को भी ध्यान में रखना होगा।
  • लोगों की प्रतिक्रिया: प्रौद्योगिकी-आधारित कार्यक्रमों की सफलता अंततः ज़मीनी स्तर पर इसके समर्थन पर निर्भर करती है, ऐसे में सफल एवं संवहनीय कार्यक्रमों के संचालन के लिये सामुदायिक प्रतिक्रिया काफी महत्त्वपूर्ण होती है।  
    • इसलिये, कार्यक्रमों को एकीकृत करने और इन्हें सामुदायिक अथवा पारस्परिक मध्यस्थता के लिये उत्तरदायी बनाने के साथ ही इन्हें ‘मानवीय दृष्टिकोण’ प्रदान किया जाना भी आवश्यक है ।
  • हितधारकों के साथ साझेदारी: आम जनमानस को व्यापक पैमाने पर प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिये CSOs को समग्र विकास पारितंत्र में हितधारकों के साथ अधिक व्यवस्थित साझेदारी की आवश्यकता है।  
    • बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी-आधारित हस्तक्षेपों के उपयोग को सक्षम बनाने के लिये सरकार, वित्तपोषकों और अन्य नागरिक समाज भागीदारों के बीच सहयोग अति-महत्त्वपूर्ण है।
    • उदाहरण के लिये, सरकारी और निजी क्षेत्र के सेवा प्रदाताओं को डिजिटल अवसंरचना और संपर्क/कनेक्टिविटी की उपलब्धता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है जबकि नागरिक समाज, कार्यक्रम संबंधी प्रतिक्रियाओं को सरकार की प्राथमिकताओं में एकीकृत कर सकते हैं।
  • अनुभवों को दर्ज करना: विकास क्षेत्र के लिये कार्यक्रम तैयार करने में प्रौद्योगिकी को अपनाने के साथ उभरने वाली महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का कोई समग्र समाधान मौजूद नहीं है।  
    • ऐसे में भारत में डिजिटल हस्तक्षेप के संबंध में अधिक स्वतंत्र संवाद को आगे बढ़ाने के लिये सीखे गए अनुभवों का दस्तावेज़ीकरण एक महत्त्वपूर्ण आरंभिक कदम होगा।

निष्कर्ष

आने वाले महीनों और वर्षों में डिजिटल उपकरण, पहुँच और साक्षरता की आवश्यक भूमिका को स्वीकार करते हुए नागरिक समाज संगठनों और गैर-सरकारी संगठनों को अपने कार्यकलाप में प्रौद्योगीकी की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बदलाव लाने की आवश्यकता है। 

अभ्यास प्रश्न: नागरिक समाज संगठन नई प्रौद्योगिकियों से दूरी नहीं बनाए रख सकते और उन्हें प्रौद्योगिकी-संचालित पारितंत्र की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। चर्चा कीजिये।

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