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रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता पर नहीं आनी चाहिये कोई आँच

  • 15 Dec 2018
  • 13 min read

संदर्भ


रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने जब 10 दिसंबर को इस्तीफा दिया, तो एकबारगी सभी हैरान रह गए। अचानक आए इस इस्तीफे ने बाज़ार और सरकार में खलबली मचा दी थी। लेकिन इसके अगले ही दिन भारत सरकार ने आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव शक्तिकांत दास को तीन साल के लिये RBI का नया गवर्नर नियुक्त कर दिया, जबकि सामान्यतया ऐसी परिस्थिति में रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर को कुछ समय के लिये ज़िम्मेदारी दी जाती है।

गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से रिज़र्व बैंक और केंद्र सरकार के बीच केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के मसले को लेकर टकराव की स्थिति बनी हुई है। नए गवर्नर शक्तिकांत दास ने स्वायत्तता को ज़रूरी बताते हुए सरकार के साथ सहयोग करने की बात कही है।

क्यों उठा रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता का मुद्दा?


रिज़र्व बैंक के नवनियुक्त गवर्नर ने पदभार संभालने के बाद जब यह कहा कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता और गरिमा बनाए रखी जाएगी, तो यह स्पष्ट था कि दाल पूरी काली नहीं, तो भी इसमें कुछ काला अवश्य ही है। इसके बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी स्वीकार किया कि कुछ मुद्दों पर रिज़र्व बैंक के साथ मतभेद हैं।

रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच तनाव के मुद्दे पर डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य कह चुके हैं कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को कमज़ोर करना 'बेहद विनाशकारी' हो सकता है। सरकार में बैठे लोग रिज़र्व बैंक से कमज़ोर बैंकों के लिये कर्ज़ लेने के नियमों को आसान बनाने की भी मांग कर रहे हैं। साथ ही, रिज़र्व बैंक के नियामक अधिकारों में कटौती कर एक नई भुगतान नियामक एजेंसी भी बनाने की बात चल रही है। इन्हीं सब बातों को लेकर रिज़र्व बैंक और सरकार के बीच रस्साकशी चल रही है।

धारा 7 का मुद्दा भी आया सामने


इसके अलावा पूर्व गवर्नर RBI एक्ट की धारा 7 को लेकर भी सरकार से असहमत थे। RBI एक्ट की धारा 7 की तीन प्रमुख उप-धाराएँ हैं:

  1. सेक्शन 7(1): इसके तहत केंद्र सरकार रिज़र्व बैंक के गवर्नर से परामर्श कर बैंक को ऐसे दिशा-निर्देश दे सकती है, जो जनता के हित में आवश्यक हों।
  2. सेक्शन 7(2): इसके तहत इस तरह के किसी भी दिशा-निर्देश के बाद बैंक का काम एक केंद्रीय निदेशक मंडल को सौंप दिया जाएगा। यह निदेशक मंडल बैंक की सभी शक्तियों का उपयोग कर सकता है और रिज़र्व बैंक द्वारा किये जाने वाले सभी कार्यों को कर सकता है।
  3. सेक्शन 7(3): इसके तहत रिज़र्व बैंक के गवर्नर और उनकी अनुपस्थिति में उनके द्वारा नामित डिप्टी गवर्नर की गैर-मौजूदगी में भी केंद्रीय निदेशक मंडल के पास बैंक के सामान्य मामलों एवं कामकाज के सामान्य अधीक्षण (General Superintendence) एवं निर्देशन की शक्तियाँ होंगी और वह उन सभी शक्तियों का इस्तेमाल कर पाएगा, जिसे करने का अधिकार बैंक के पास है।

दरअसल, रिज़र्व बैंक ने 12 बैंकों को इंस्टैंट एक्शन की कैटेगरी में डाल दिया था। इससे बैंकों के नए कर्ज़ देने, नई ब्रांच खोलने और डिविडेंड देने पर प्रतिबंध लग गया। मुद्दे ने तब और तूल पकड़ा, जब सरकार ने RBI से अधिक डिविडेंड देने को कहा और आपातस्थिति के लिये अतिरिक्त रिज़र्व रखने की ज़रूरत पर सवाल उठाया। सरकार की ओर से RBI के कामकाज में बड़ा दखल उस समय सामने आया था जब सरकार ने RBI के कॉर्पोरेट गवर्नेंस की समीक्षा करने की मांग की थी। इसके साथ ही सरकार का कहना था कि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स द्वारा लिये जाने वाले फैसलों में उसकी भूमिका बढ़नी चाहिये।

क्या होगा तनातनी का असर?


केंद्र सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच चल रही तनातनी अर्थव्यवस्था से जुड़े अहम फैसले लेने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है। खासतौर पर ऐसे वक्त में जब भारत का वित्तीय बाज़ार बड़े बुनियादी निर्माण के लिये धन देने वाली कंपनियों के कर्ज़ भुगतान में नाकामी के कारण संकट में है। इसकी वज़ह से पूरे नॉन बैंकिंग फाइनेंस सेक्टर में तरलता (Liquidity) की कमी आ सकती है। ऐसे में सरकार और रिज़र्व बैंक के बीच शीर्ष स्तर पर असंतोष की वज़ह से अस्थिरता की आशंका बनी रहेगी, जिसका असर अर्थव्यवस्था और बाज़ार पर भी पड़ सकता है।

रिज़र्व बैंक के बारे में कितना जानते हैं आप?

RBI


भारतीय रिज़र्व बैंक के क्रमिक विकास, एकीकरण, नीतिगत बदलावों और सुधारों की एक लंबी और कठिन यात्रा रही है, जिसने इसे संस्थान के रूप में एक अलग पहचान दी है। रिज़र्व बैंक की स्थापना के लिये सबसे पहले जनवरी, 1927 में एक विधेयक पेश किया गया और सात वर्ष बाद मार्च, 1934 में यह अधिनियम बना। 1935 में रिज़र्व बैंक की स्थापना से पहले केंद्रीय बैंक के मुख्य कार्यकलाप प्राथमिक तौर पर भारत सरकार द्वारा संपन्न किये जाते थे। कुछ हद तक ये कार्य 1921 में अपनी स्थापना के बाद भारतीय इम्पीरियल बैंक द्वारा संपन्न होते थे। नोट जारी करने हेतु नियमन, विदेशी विनिमय का प्रबंधन एवं राष्ट्र की अभिरक्षा और विदेशी विनिमय भंडार जैसे कार्यों की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की होती थी। इम्पीरियल बैंक सरकार के बैंक के रूप में काम करता था और व्यावसायिक बैंक के रूप अपनी प्राथमिक गतिविधियों के अलावा यह एक हद तक बैंकों के बैंक के रूप में भी काम करता था। जब रिज़र्व बैंक की स्थापना हुई, तब भारत में संस्थागत बैंकिंग का विकास होना शुरू हुआ।

ये तो थी पुराने दिनों की बात, आज रिज़र्व बैंक एक ऐसे संस्थान के रूप में काम कर रहा है, जो मौद्रिक स्थायित्व, मौद्रिक प्रबंधन, विदेशी विनिमय, आरक्षित निधि प्रबंधन, सरकारी कर्ज़ प्रबंधन, वित्तीय नियमन एवं निगरानी सुनिश्चित करने का काम करता है। इसके मुख्य दायित्वों में मुद्रा प्रबंधन और भारत के हक में इसकी साख व्यवस्था का संचालन भी शामिल है।

नए गवर्नर के सामने प्रमुख चुनौतियाँ


भारतीय रिज़र्व बैंक के नए गवर्नर शक्तिकांत दास के सामने न सिर्फ पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल के अधूरे कामों का भारी-भरकम एजेंडा है बल्कि उन्हें RBI की साख सुधारने की बड़ी ज़िम्मेदारी भी निभानी होगी।

  1. शक्तिकांत दास के सामने सबसे बड़ी चुनौती रिज़र्व बैंक की साख को बचाने की है। उन्हें सरकार के साथ चल रही तनातनी को खत्म कर केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता सुनिश्चित करनी होगी। गौरतलब है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सभी देशों के केंद्रीय बैंको की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण होती है और अपनी सरकारों से स्वायत्त रहना इनके लिये आदर्श स्थिति होती है।
  2. रिज़र्व बैंक के गवर्नर को तीन साल के लिये नियुक्त किया जाता है। रिज़र्व बैंक के नए गवर्नर के सामने एक चुनौती यह भी होगी कि वह तीन साल के अपने कार्यकाल के दौरान घरेलू और वैश्विक आर्थिक स्थिति के आधार पर मौद्रिक नीति निर्धारित करें और केंद्र सरकार से बेहतर सामंजस्य स्थापित करें।
  3. पूर्व के गवर्नरों ने केंद्र सरकार द्वारा RBI में बदलाव का विरोध किया है। बीते कुछ समय से केंद्रीय बैंक ने देश में बैंकिंग क्षेत्र की अपनी नीतियों को कड़ा किया है और इसके चलते सरकारी बैंकों का कर्ज़ लेने और देने का काम प्रभावित हुआ है। साथ ही बैंकों के NPA में सुधार की नीतियों को संचालित करना भी नए गवर्नर के सामने एक बड़ी चुनौती है।
  4. केंद्र सरकार के सामने महँगाई सबसे बड़ा मुद्दा रहता है। महँगाई को अहम आधार बनाते हुए केंद्रीय बैंक अपनी नीतियाँ निर्धारित करता है। बैंकों की ब्याज दरों को बढ़ाना या घटाना देश में और वैश्विक स्तर पर महँगाई की दर को भी आधार बनाकर तय किया जाता है। बीते चार साल के दौरान देश को कच्चा तेल कम कीमतों में मिलने से भारी राहत मिली थी, जिसकी वज़ह से केंद्र सरकार और RBI के लिये महँगाई को काबू में रखना आसान हो गया था। ऐसे में वैश्विक स्थिति विपरीत होने पर महँगाई को काबू में रखना RBI के सामने अहम चुनौती होगी।
  5. केंद्र सरकार से स्वायत्तता के मुद्दे पर स्पष्टता और बेहतर मौद्रिक नीति के साथ-साथ मौजूदा घरेलू आर्थिक स्थिति और वैश्विक चुनौतियों को देखते हुए देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना भी रिज़र्व बैंक के गवर्नर के सामने एक अहम चुनौती है। इसके अलावा, देश में बड़े निवेश को बढ़ावा देना, वैश्विक अर्थव्यवस्था में कारोबारी सुगमता के मापदंड पर बेहतर प्रदर्शन करना और घरेलू कारोबार को बढ़ाने के लिये उचित नीतियों का सहारा लेना केंद्रीय बैंक के लिये बेहद चुनौतीपूर्ण होगा।

RBI की स्वायत्तता पर सरकार का पक्ष


रिज़र्व बैंक से हुए विवाद के चलते केंद्र सरकार ने 31 अक्तूबर को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर स्पष्टीकरण दिया था:

“RBI अधिनियम की रूपरेखा के तहत केंद्रीय बैंक के लिये स्वायत्तता का होना गवर्नेंस से जुड़ी एक अनिवार्य एवं अविवादित आवश्यकता है। विभिन्न सरकारों ने इसे ध्यान में रखा है और इसका सम्मान किया है। सरकार एवं केंद्रीय बैंक दोनों ही अपने कामकाज में जनहित और भारतीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं से निर्देशित होते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए समय-समय पर सरकार और RBI विभिन्न मुद्दों पर विस्तार से सलाह-मशविरा करते हैं। भारत सरकार इसकी विषय-वस्तु को सार्वजनिक नहीं करती और अंतिम निर्णयों के ही बारे में जानकारी उपलब्ध कराती है।


स्रोत: Hindu Business Line, PIB

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