भारतीय राजव्यवस्था
आपराधिक प्रक्रिया विधेयक
- 06 Apr 2022
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यह एडिटोरियल 01/04/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘This is a Criminal Attack on Privacy” लेख पर आधारित है। इसमें आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक, 2022 के महत्त्व एवं संबद्ध समस्याओं के बारे में चर्चा की गई है।
संदर्भ
हाल ही में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने लोकसभा में आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक [Criminal Procedure (Identification) Bill], 2022 पेश किया जो आधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग से अपराध की अधिक कुशल एवं त्वरित जाँच सुनिश्चित करने का उद्देश्य रखता है।
हालाँकि इसमें बायोमीट्रिक और जैविक डेटा संग्रहण को सक्षम करने का निहित प्रस्ताव इसकी कानूनी वैधता पर गंभीर सवाल उठाता है। इसके प्रावधान आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध संरक्षण के अधिकार (right against self-incrimination) और निजता के अधिकार (right to privacy) से टकराव तो रखते ही हैं, विधेयक में मौजूद कई बातें अति-व्यापी या पर्याप्त अस्पष्ट भी हैं।
आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक, 2022
विधेयक का उद्देश्य
- इस विधेयक का उद्देश्य ‘बंदी पहचान अधिनियम, 1920’ (Identification of Prisoners Act,1920) को प्रतिस्थापित करना है, जिसमें संशोधन का प्रस्ताव 1980 के दशक में भारत के विधि आयोग की 87वीं रिपोर्ट में और ‘उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राम बाबू मिश्र’ मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में किया गया था।
- आलोचना और संशोधन की आवश्यकता मुख्य रूप से इस अधिनियम के तहत ‘माप’ (measurements) की सीमित परिभाषा के संबंध में जताई गई थी।
विधेयक के प्रावधान
- यह पुलिस और जेल अधिकारियों को रेटिना एवं आईरिस स्कैन सहित भौतिक एवं जैविक नमूनों के एकत्रीकरण, सग्रहण और विश्लेषण की अनुमति देगा।
- इन प्रावधानों को आगे किसी भी निवारक निरोध कानून के तहत पकड़े गए व्यक्तियों पर लागू किया जाएगा।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) भौतिक और जैविक नमूनों, हस्ताक्षर तथा हस्तलेखन डेटा के रिपॉजिटरी के रूप में कार्य करेगा जहाँ इन्हें कम से कम 75 वर्षों तक संरक्षित किया जा सकता है।
- NCRB को किसी भी अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसी के साथ रिकॉर्ड साझा करने का भी अधिकार दिया गया है।
- यह आपराधिक मामलों में पहचान और जाँच हेतु दोषियों तथा ‘अन्य व्यक्तियों’ की ‘माप’ लेने के लिये भी अधिकृत करता है।
विधेयक का महत्त्व
- यह विधेयक उपयुक्त शरीर मापों को दर्ज करने के लिये आधुनिक तकनीकों के उपयोग का प्रावधान करता है।
- ‘बंदी पहचान अधिनियम, 1920’ के रूप में मौजूद कानून सीमित श्रेणी के दोषी व्यक्तियों के केवल ‘फिंगरप्रिंट’ और ‘फुटप्रिंट’ लेने की ही अनुमति देता है।
- ‘व्यक्तियों’ (जिनकी माप ली जा सकती है) के दायरे का विस्तार जाँच एजेंसियों को कानूनी रूप से स्वीकार्य पर्याप्त सबूत इकट्ठा करने और आरोपी व्यक्ति के अपराध को साबित करने में मदद करेगा।
- अधिक सटीक भौतिक एवं जैविक नमूने अपराध की जाँच को अधिक कुशल व तीव्र बनाएँगे और दोषसिद्धि दर को बढ़ाने में भी मदद करेंगे।
- अपेक्षा की गई है कि यह संगठित अपराध, साइबर अपराधियों एवं आतंकियों (जो पहचान की चोरी और पहचान धोखाधड़ी में दक्ष होते हैं) के खतरे को कम करेगा। उनके द्वारा उत्पन्न गंभीर राष्ट्रीय और वैश्विक खतरों पर नियंत्रण रखने में यह विधेयक मदद कर सकेगा।
विधेयक से संबद्ध समस्याएँ
- अस्पष्ट प्रावधान: ‘बंदी पहचान अधिनियम, 1920’ को प्रतिस्थापित करने का लक्ष्य रखता प्रस्तावित कानून काफी हद तक इसके दायरे और पहुँच का विस्तार करता है।
- ‘जैविक नमूने’ जैसे पदों का अधिक वर्णन नहीं किया गया है, इसलिये रक्त और बाल के नमूने लेने या डीएनए नमूनों के संग्रह जैसा कोई भी दैहिक हस्तक्षेप किया जा सकता है।
- वर्तमान में ऐसे हस्तक्षेपों के लिये एक मजिस्ट्रेट की लिखित स्वीकृति की आवश्यकता होती है।
- निजता के अधिकार को कमज़ोर करना: यह विधायी प्रस्ताव न केवल अपराध के दोषी व्यक्तियों के बल्कि प्रत्येक सामान्य भारतीय नागरिक के निजता के अधिकार को कमज़ोर करता है।
- यह विधेयक राजनीतिक विरोध से संलग्न प्रदर्शनकारियों तक के जैविक नमूने एकत्र कर सकने का प्रस्ताव करता है।
- अनुच्छेद 20 का उल्लंघन: आशंकाएँ जताई गई हैं कि विधेयक ने नमूनों के मनमाने संग्रह को सक्षम किया है और इसमें अनुच्छेद 20 (3) के उल्लंघन की क्षमता है जो आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार देता है।
- विधेयक में जैविक सूचना के संग्रह में बल का प्रयोग निहित है, जिससे ‘नार्को परीक्षण’ और ‘ब्रेन मैपिंग’ को बढ़ावा मिल सकता है।
- डेटा का प्रबंधन: यह विधेयक 75 वर्षों के लिये रिकॉर्ड को संरक्षित करने की अनुमति देता है. अन्य चिंताओं में वे साधन शामिल हैं जिनके द्वारा एकत्र किये गए डेटा को संरक्षित, साझा, प्रसारित और नष्ट किया जाएगा।
- बंदियों के बीच जागरूकता की कमी: यद्यपि विधेयक में यह प्रावधान है कि कोई गिरफ्तार व्यक्ति (जो महिला या बच्चे के विरुद्ध अपराध का आरोपी नहीं हो) नमूने देने से इनकार कर सकता है, लेकिन जागरूकता के अभाव में सभी बंदी इस अधिकार का प्रयोग कर सकने में सफल नहीं होंगे।
- पुलिस के लिये इस तरह के इनकार की अनदेखी करना भी अधिक कठिन नहीं होगा और बाद में वे दावा कर सकते हैं कि उन्होंने बंदी की सहमति से नमूने एकत्र किये हैं।
आगे की राह
- डेटा सुरक्षा सुनिश्चित करना: गोपनीयता और डेटा की सुरक्षा से संबद्ध चिंता निस्संदेह महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तिगत प्रकृति के महत्त्वपूर्ण विवरणों के संग्रहण, भंडारण और नष्ट करने संबंधी अभ्यास तभी शुरू हो सकेंगे जब एक सुदृढ़ डेटा संरक्षण कानून मौजूद हो जहाँ उल्लंघनों के लिये कठोर दंड का प्रावधान हो।
- निजता का कोई भी अतिक्रमण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित संवैधानिकता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिये।
- संसद की संवीक्षा: विधेयक को न तो पूर्व-विधायी परामर्श के लिये रखा गया था और न ही संसद में इसे सत्र के विधायी एजेंडे में इंगित किया गया था। उपयुक्त होगा कि इस विधेयक के अधिनियम के रूप में लागू होने से पहले इसे गहन संवीक्षा के लिये स्थायी समिति को भेजा जाए।
- बेहतर कार्यान्वयन: कानून प्रवर्तन एजेंसियों को नवीनतम तकनीकों के उपयोग से वंचित करना अपराध के शिकार लोगों और वृहत रूप से राष्ट्र के प्रति गंभीर अपकार या क्षति की स्थिति होगी। लेकिन बेहतर संवीक्षा और डेटा संरक्षण कानून के अलावा कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिये भी उपाय किये जाने की ज़रूरत है।
- आवश्यकता यह है कि अपराध स्थल से ‘माप’ एकत्र करने के लिये विशेषज्ञों की संख्या में वृद्धि हो और उनके विश्लेषण के लिये फोरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ाई जाए ताकि आपराधिक मामले में शामिल संभावित अभियुक्तों की पहचान करना सुगम हो सके।
- जाँच अधिकारियों, अभियोजकों, न्यायिक अधिकारियों आदि के प्रशिक्षण और चिकित्सकों एवं फोरेंसिक विशेषज्ञों के अधिकाधिक सहयोग को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: ‘‘निजता पर आघात केवल अकादमिक बहस का मामला नहीं है, यह लोगों के लिये वास्तविक और शारीरिक एवं मानसिक परिणाम उत्पन्न करता है। इसकी रक्षा करने का उत्तरदायित्व सरकार के प्रत्येक अंग पर है।’’ चर्चा कीजिये।