भारतीय राजव्यवस्था
भारतीय संसदीय प्रणाली में सदन का अध्यक्ष
- 07 Feb 2020
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इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में लोकसभा तथा विधानसभाओं के अध्यक्षों की भूमिका तथा उन पर पक्षपात के आरोप से संबंधित पहलुओं की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर विधानसभा में विधायकों की अयोग्यता से संबंधित केशिम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर विधानसभा अध्यक्ष वाद पर चर्चा करते हुए सिफारिश की है कि सदन के अध्यक्ष के किसी एक राजनीतिक दल से विशेष संबंध को देखते हुए संसद को इस बात पर पुनर्विचार करना चाहिये कि लोकसभा या विधानसभा अध्यक्ष को एक अर्द्धन्यायिक प्राधिकारी के रूप में दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य ठहराए जाने वाली याचिकाओं पर निर्णय लेने का अधिकार दिया जाना चाहिये या नहीं। ज्ञात हो कि कई अवसरों पर पक्षपात के आरोप में लोकसभा व विधानसभा अध्यक्षों की भूमिका पर प्रश्न उठाया जाता रहा है। किसी विशिष्ट राजनीतिक दल से संबंधित होने के कारण लोकसभा व विधानसभा अध्यक्ष सदैव ही संदेह के दायरे में रहते हैं। अध्यक्ष के पद से संबंधित उक्त विवादों को देखते हुए यह आवश्यक है कि पद को लेकर बड़े बदलाव किये जाएँ, ताकि लोकसभा व विधानसभा के प्रतिनिधि के रूप में अध्यक्ष पद की गरिमा बनाई रखी जा सके।
भारतीय संसदीय प्रणाली में अध्यक्ष
- संसद के प्रत्येक सदन का अपना एक पीठासीन अधिकारी होता है। राज्यसभा में इसे सभापति व लोकसभा में अध्यक्ष कहा जाता है। इसी प्रकार राज्य विधानमंडल के प्रत्येक सदन का भी अपना एक पीठासीन अधिकारी होता है। विधानसभा में इसे अध्यक्ष तथा विधानपरिषद में सभापति कहा जाता है। भारतीय संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष की भूमिका को काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है।
- लोकसभा अध्यक्ष के संदर्भ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “अध्यक्ष सदन की गरिमा तथा उसकी स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और चूँकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिये अध्यक्ष एक प्रकार से राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक होता है।”
- सदन का अध्यक्ष सदन के प्रतिनिधियों का मुखिया तथा उनकी शक्तियों और विशेषाधिकारों का अभिभावक होता है।
- भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे कई महत्त्वपूर्ण उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें सदन के अध्यक्षों ने महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर राज्य या राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित किया है:
- वर्ष 1988 में तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष पी.एच. पांडियन ने अपनी ही पार्टी- अन्नाद्रमुक (AIADMK) के छह वरिष्ठ मंत्रियों को अयोग्य ठहराया था।
संवैधानिक प्रावधान
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 93 लोकसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष की नियुक्ति का प्रावधान करता है, वहीं संविधान का अनुच्छेद 178 विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष की नियुक्ति के संबंध में प्रावधान करता है।
- संविधान के अनुच्छेद 94 में लोकसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को पद रिक्त होने, पद त्याग देने या पद से हटाए जाने से संबंधित प्रावधान किये गए हैं, वहीं संविधान के अनुच्छेद 179 में विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के पद रिक्त होने, पद त्याग देने या पद से हटाए जाने से संबंधित प्रावधान किये गए हैं।
- अनुच्छेद 95 के अंतर्गत लोकसभा अध्यक्ष के रूप में कार्य करने अथवा उसके दायित्त्वों का निर्वाह करने की उपाध्यक्ष या किसी अन्य व्यक्ति की शक्तियों का उल्लेख किया गया है, वहीं अनुच्छेद 180 के अंतर्गत विधानसभा अध्यक्ष के रूप में कार्य करने अथवा उसके दायित्त्वों का निर्वाह करने की उपाध्यक्ष या किसी अन्य व्यक्ति की शक्तियों का उल्लेख किया गया है।
- संविधान के अनुच्छेद 96 (लोकसभा से संबंधित) और अनुच्छेद 181 (विधानसभा से संबंधित) के अनुसार, यदि सदन के अध्यक्ष को पद से हटाने से संबंधित कोई प्रस्ताव विचाराधीन हो तो वह सदन की अध्यक्षता नहीं कर सकता।
- संविधान के अनुच्छेद 97 में लोकसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष और अनुच्छेद 186 में विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष के वेतन और भत्ते संबंधी प्रावधान किये गए हैं।
अध्यक्ष की भूमिका
- सदन का अध्यक्ष सदन का प्रधान प्रवक्ता होता है और सदन में सामूहिक मत का प्रतिनिधित्व करता है।
- दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता के मामलों सहित सभी संसदीय मामलों में अध्यक्ष का निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होता है, जिसे सामान्यतः न्यायालय के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस प्रकार अध्यक्ष सदन में मध्यस्थ के रूप में भी कार्य करता है।
- हालाँकि किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्लू मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय का मत था कि दसवीं अनुसूची के तहत सदस्यों की अयोग्यता के संबंध में सदन के अध्यक्ष के निर्णय को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जा सकती है।
- अध्यक्ष सदन की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने और उसे विनियमित करने के लिये सदन में व्यवस्था और शिष्टाचार बनाए रखने का कार्य भी करता है।
- अध्यक्ष को बहस के लिये अवधि आवंटित करने और सदन के सदस्यों को अनुशासित करने का अधिकार है। साथ ही वह सदन की विभिन्न समितियों द्वारा लिये गए निर्णयों को भी रद्द कर सकता है।
- सदन का अध्यक्ष सदन के कामकाज से संबंधित नियमों का अंतिम व्याख्याकार भी होता है।
पक्षपात का आरोप
- अध्यक्ष पद के साथ निहित तमाम अधिकारों और शक्तियों के कारण स्वतंत्रता और निष्पक्षता इस पद के लिये एक अनिवार्य शर्त हो जाती है। किंतु इसके बावजूद समय-समय पर अध्यक्ष पद पर राजनीतिक दल का एजेंट होने का आरोप लगाकर आलोचना की जाती है।
- वर्ष 2006 के जगजीत सिंह बनाम हरियाणा राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्षता के मामले में अध्यक्ष की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाया था।
- किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्लू मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा था कि सदन के अध्यक्ष की निष्पक्षता पर संदेह से इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसका चुनाव और कार्यकाल सदन के बहुमत (या विशेष रूप से सत्ता पक्ष) पर निर्भर करता है।
- इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अध्यक्ष की नियुक्ति के तरीके और कार्यालय संबंधी कुछ संरचनात्मक समस्याएँ हैं जिनका तत्काल निवारण किये जाने की आवश्यकता है।
उपाय
- आवश्यक है कि इस संदर्भ में वैश्विक स्तर पर प्रयोग होने वाली प्रथाओं का विश्लेषण किया जाए और भारतीय परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन कर उन्हें लागू करने का प्रयास किया जाए।
- ब्रिटेन में सदन का अध्यक्ष अनिवार्य रूप से एक निर्दलीय सदस्य होता है। ब्रिटेन में यह परंपरा है कि अध्यक्ष को अपनी पार्टी से इस्तीफा देना होगा और राजनीतिक रूप से तटस्थ रहना होगा। इसके अलावा वह एक बार निर्वाचित होने पर सेवानिवृत्ति तक पद पर बना रहता है, भले ही सदन में उसके दल का बहुमत न रहे।
- न्यायालय ने हालिया केशिम मेघचंद्र सिंह बनाम मणिपुर विधानसभा अध्यक्ष वाद में एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण के गठन का सुझाव दिया है जो दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता से संबंधित मामलों को निपटने के लिये लोकसभा और विधानसभाओं के अध्यक्ष का स्थान लेगा।
- इस स्वतंत्र न्यायाधिकरण का नेतृत्व सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा।
- निष्पक्षता और स्वायत्तता किसी भी मज़बूत संस्थान की पहचान होते हैं। अतः आवश्यक है कि सदन के अध्यक्ष पद की निष्पक्षता और स्वायत्तता को बरकरार रखा जाए।
आगे की राह
- हस्तक्षेप और दबाव से मुक्ति ही एकमात्र मार्ग है जिसके माध्यम से तटस्थता का वातावरण तैयार किया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति को हस्तक्षेप और दबाव से मुक्त किये बिना उससे तटस्थ रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
- नवीनतम लोकतंत्र सूचकांक में भारत की रैंकिंग में आई गिरावट नीति निर्माताओं के लिये चिंता का सबब बना हुआ है। ऐसे में भारतीय नीति निर्माताओं से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए सुझावों पर ध्यान देंगे और इस संदर्भ में कम-से-कम समय में नियम बनाने का प्रयास करेंगे।
प्रश्न: हाल के घटनाक्रमों ने सदन के अध्यक्ष की संदिग्ध भूमिका के चलते प्रतिनिधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाया है। विभिन्न घटनाक्रमों के आलोक में सदन के अध्यक्ष की भूमिका की जाँच करें तथा उनके निष्पक्ष व्यावहार के लिये उपाय निर्दिष्ट करें।