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प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिये क्षमता-निर्माण

  • 24 Jan 2018
  • 10 min read

संदर्भ:

  • हाल ही में मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक 2017 को स्वीकृति प्रदान की गई, जिसका उद्देश्य चिकित्सा शिक्षा व्यवस्था को पहले से अधिक पारदर्शी और गुणवत्तायुक्त बनाना है।
  • गौरतलब है कि इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा विधेयक के तहत राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन किया जाएगा।

लेकिन इस विधेयक के अंतर्गत किये गए प्रावधानों को लेकर व्यापक विरोध देखने को मिल रहा है। अतः यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि इस सार्थक उद्देश्यों वाले विधेयक के आपत्तिजनक प्रावधान कौन से हैं और यह इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?

क्या है राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2017?

  • विदित हो कि 15 दिसंबर, 2017 को मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2017 को स्वीकृति प्रदान की गई थी।
  • विधेयक के अंतर्गत एक राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के गठन की बात कही गई है।
  • इस कमीशन के तहत 25 सदस्य शामिल होंगे जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाएगी। इनका कार्यकाल अधिकतम 4 वर्षों का होगा।
  • इस विधेयक में शामिल अन्य महत्त्वपूर्ण प्रावधान हैं:
    ► भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) के स्थान पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन करना। 
    ► चिकित्सा परिषद 1956, अधिनियम को परिवर्तित करना।
    ► चिकित्सा शिक्षा सुधार के क्षेत्र में दूरगामी कार्य करना।
    ► प्रक्रिया आधारित नियमन की बजाय परिणाम आधारित चिकित्सा शिक्षा नियमन का अनुपालन करना।
    ► स्वशासी बोर्डों की स्थापना करके नियामक के अंदर उचित कार्य विभाजन सुनिश्चित करना।
    ► चिकित्सा शिक्षा में मानक बनाए रखने के लिये उत्तरदायी और पारदर्शी प्रक्रिया बनाना।
    ► भारत में पर्याप्त स्वास्थ्य कार्यबल सुनिश्चित करने का दूरदर्शी दृष्टिकोण विकसित करना।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक की ज़रूरत क्यों?

  • दरअसल, देश में स्वास्थ्य क्षेत्र बदहाल है और इसकी बदहाली के कई कारण हैं। मसलन, चिकित्सा शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार और नैतिकता एवं कुशल प्रशासन के मानकों में लगातार गिरावट देखी जा रही है।
  • उल्लेखनीय है कि लोढ़ा समिति, नीति आयोग और संसदीय स्थायी समिति ने बदहाली के इन कारणों का ज़िम्मेदार भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 को माना है।
  • यह मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को मेडिकल प्रशासन में असमान शक्तियाँ प्रदान करता है।

क्या है मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया?

  • मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना वर्ष 1934 में हुई थी। भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1933 के तहत स्थापित इस परिषद का कार्य एक मेडिकल पंजीकरण और नैतिक निरीक्षण करना था।
  • दरअसल, तब चिकित्सा शिक्षा में इसकी कोई विशेष भूमिका नहीं थी, किन्तु वर्ष 1956 के संशोधन द्वारा स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों ही स्तरों पर चिकित्सा शिक्षा की देख-रेख हेतु यह अधिकृत कर दिया गया।
  • वर्ष 1992 शिक्षा के निजीकरण का दौर था और इसी दौरान एक अन्य संशोधन के ज़रिये एमसीआई को एक सलाहकार निकाय की भूमिका दे दी गई। जिसके तीन महत्वपूर्ण कार्य थे-
    ► मेडिकल कॉलेजों को मंज़ूरी देना
    ► छात्रों की संख्या तय करना
    ► छात्रों के दाखिला संबंधी किसी भी विस्तार को मंजूरी देना

एमसीआई में सुधार आवश्यक क्यों?

  • लाइसेंस-राज नियंत्रक की तरह, एमसीआई द्वारा मेडिकल कॉलेजों के लाइसेंस पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करना चिंताजनक है।
  • साथ ही एमसीआई ने कई अव्यावहारिक आदेश भी जारी किये हैं, इस पेशे में नैतिक आचरण सुनिश्चित करने के अपने कार्य से वह दूर रहा है।
  • यह मेडिकल कॉलेजों में सीटों की खरीद-फरोख्त को रोकने में विफल रहा है। साथ ही यह एक ऐसी सर्व-शक्तिशाली एजेंसी के रूप में उभरा है जो कॉर्पोरेट अस्पतालों से काफी प्रभावित है।

विधेयक में व्याप्त खामियाँ

  • जैसा की हम जानते हैं कि इस विधेयक में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के गठन की बात कही गई।
  • लेकिन निर्वाचित होने की बजाय आयोग के सदस्य सरकार द्वारा चुने जाएंगे और इस प्रकार की व्यवस्था सरकार को चिकित्सा प्रशासन के क्षेत्र में असमान शक्ति प्रदान करती है।
  • साथ ही चिकित्सा सलाहकार परिषदों को भी इसी आयोग के अंतर्गत लाया जाएगा। इससे राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अत्यंत की शक्तिशाली निकाय बन सकता है।
  • आयुष चिकित्सकों को एलोपैथी चिकित्सा की ज़िम्मेदारी सौंपना सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये ज़ोखिम भरा हो सकता है।

नए कानून के प्रत्याशित लाभ

  • चिकित्सा शिक्षा संस्थानों पर कठोर नियामक नियंत्रण की समाप्ति और परिणाम आधारित निगरानी व्यवस्था कायम की जा सकेगी।
  • यह पहला मौका होगा जब देश के किसी उच्च शिक्षा क्षेत्र में ऐसा प्रावधान लागू किया जाएगा जैसा कि इससे पहले नीट तथा साझा काउंसलिंग व्यवस्था के रूप में किया किया गया था।
  • चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र को और अधिक उदार तथा मुक्त बनाने के उद्देश्य से यूजी और पीजी स्तरीय सीटों की संख्या में वृद्धि की जाएगी।
  • इससे अवसंरचना क्षेत्र में भी निवेश के नए अवसरों का सृजन होगा और आयुष चिकित्सा प्राणाली के साथ बेहतर समन्वय स्थापित होगा।

प्राथमिक स्वास्थ्य क्षेत्र के क्षमता निर्माण में महत्त्वपूर्ण

  • गौरतलब है कि इस विधेयक में एक प्रावधान यह भी है कि आयुष (Ayurveda, yoga and naturopathy, Unani, Siddha and homoeopathy- AYUSH) प्रैक्टिशनर्स को अन्य क्षेत्रों में भी प्रैक्टिस का अवसर दिया जाना चाहिये।
  • इस प्रावधान के पक्ष एवं विपक्ष में विभिन्न प्रकार के तर्क दिये जाते रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि आयुष प्रैक्टिशनर्स प्राथमिक स्वास्थ्य क्षेत्र के क्षमता निर्माण में अहम् साबित हो सकते हैं।
  • भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य क्षेत्र अत्यंत ही दयनीय स्थिति में है जहाँ चिकित्सक-जनसंख्या अनुपात 0.76/1000 है और यह यह दुनिया में सर्वाधिक कम चिकित्सक-जनसंख्या अनुपात में से एक है।
  • दरअसल, एमबीबीएस चिकित्सकों की कमी के कारण प्राथमिक स्वास्थ्य क्षेत्र बदहाली का शिकार है और ऐसे में आयुष प्रैक्टिशनर्स अहम् साबित हो सकते हैं।
  • जहाँ तक इन्हें एलोपैथी चिकित्सा के क्षेत्र में सक्षम बनाने का प्रश्न है तो वर्तमान में 7.7 लाख से ज़्यादा पंजीकृत आयुष चिकित्सकों के शैक्षिक प्रशिक्षण में पारंपरिक बायोमेडिकल सिलेबस शामिल है।

निष्कर्ष

  • ऐसा माना जा रहा है कि सेवा का एकाधिकारी स्वरूप अनावश्यक दबाव उत्पन्न करेगा। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह विधेयक कई प्रभावी सुधारों का वाहक भी है।
  • जैसा कि संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि दोयम दर्ज़े के मेडिकल कॉलेजों को भी एक बहुत बड़ी संख्या में लाइसेंस दिये गए हैं, इस विधेयक के माध्यम से इस स्थिति को बदला जा सकता है।
  • साथ ही आयुष चिकित्सकों को एलोपैथी चिकित्सा की ज़िम्मेदारी सौंपना प्राथमिक स्वास्थ्य क्षेत्र के क्षमता निर्माण में तभी प्रभावी साबित होगा, जब स्वयं आयुष प्रैक्टिशनर्स के क्षमता निर्माण में निवेश किया जाए।
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