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एडिटोरियल

जैव विविधता और पर्यावरण

स्थायी ग्रह के लिये एक नई नैतिकता

  • 11 Sep 2019
  • 14 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में विश्व के सबसे बड़े वन क्षेत्र में आग लगने, एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय जलवायु संधि से विश्व के प्रमुख प्रदूषणकर्त्ता के अलग हो जाने और यू.के. की अलगाववादी नीतियों के कारण वैश्विक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

ब्राज़ील का अमेज़न वन आग लगने की दर्ज़नों घटनाओं के कारण झुलस रहा है, इनमें से आग की अधिकांश घटनाओं के लिये लकड़हारा एवं अन्य समुदाय ज़िम्मेदार हैं जिनके द्वारा अधिकाधिक वन भूमि के लालच में जान-बूझकर आग लगाई गई है। यह कहना मुश्किल है कि आखिर कब तक ये वन जलते रहेंगे, लेकिन इस तरह की वृहत पैमाने की आग वैश्विक जलवायु के विनाश का मार्ग प्रशस्त कर रही है। यूरोप के नेताओं और विभिन्न देशों के नागरिक समाजों द्वारा अमेज़न में आग की घटनाओं को बढ़ावा देने वाली नीतियों के विरोध में आवाज़ बुलंद की जा रही है लेकिन इसके प्रत्युत्तर में ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सनारो का कहना है कि यह देश का आंतरिक मामला है और वस्तुतः यह आग उन्हीं गैर-सरकारी संगठनों द्वारा भड़काई गई है जो अब ‘आग-आग’ चिल्ला रहे हैं।

वर्तमान परिदृश्य

  • अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह कहते हुए पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलने की घोषणा कर दी कि यह अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है। अटलांटिक के दूसरे सिरे से यूरोपीय एकीकरण के मुखर आलोचक ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने जलवायु परिवर्तन के विषय पर दोहरी नीति का प्रदर्शन किया है, उन्होंने जहाँ एक ओर जलवायु विज्ञान को अस्वीकृत करने वाले समूहों (Climate Science Denial Groups) से धन प्राप्त किया है, तो वहीँ दूसरी ओर वे जलवायु परिवर्तन को अधिक गंभीरता से लेने के लिये अमेरिका को मनाने का आश्वासन भी दे रहे हैं।
  • इस बीच यूरोप के कई शहरों और अन्य स्थानों पर उच्च तापमान भी दर्ज किया गया है जो कि पहले कभी नहीं देखा गया था। ग्रीष्म लहरों (Heat Waves) ने ग्रीनलैंड में ग्लेशियरों के पिघलने की दर को इतना तेज़ कर दिया है जिसका अनुमान वैज्ञानिकों को इस सदी के उत्तरार्द्ध से पहले तक नहीं था।
  • विश्व के सबसे बड़े वन क्षेत्र में आग लगना, एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय जलवायु संधि से विश्व के प्रमुख प्रदूषणकर्त्ता का बाहर निकल जाना और यू.के. की अलगाववादी नीतियाँ देश विशेष में राष्ट्रवादी विचारधारा की जीत प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन इन घटनाक्रमों के परिणाम वहीं तक सीमित नहीं रहेंगे बल्कि राष्ट्रीय सीमाओं को पार करते हुए उन सभी प्राणियों को प्रभावित करेंगे जो इस ग्रह पर जीवन साझा करते हैं।

जलवायु परिवर्तन के चालक

  • एक तरफ जहाँ ऊर्जा और परिवहन मुख्य रूप से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के संचय के लिये ज़िम्मेदार हैं, वहीं भूमि उपयोग प्रतिरूपों में परिवर्तन ने भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। वनों की कटाई, औद्योगिक कृषि प्रणाली और मरुस्थलीकरण जलवायु परिवर्तन के प्रमुख चालक हैं। वर्ष 2007-2016 के बीच कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग गतिविधियों ने ग्रीनहाउस गैसों के कुल शुद्ध मानवजनित उत्सर्जन में लगभग एक-चौथाई (23 प्रतिशत) तक का योगदान किया।
  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) ने हाल ही में ‘जलवायु परिवर्तन एवं भूमि’ (Climate Change and Land ) शीर्षक से विशेष रिपोर्ट जारी की है, जिसमें मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण, स्थायी भूमि प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा और स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों में ग्रीनहाउस गैस के प्रभाव पर विचार किया गया है। अपने दायरे में अत्यंत विस्तृत यह रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि यदि भूमि को एक स्थायी/संवहनीय तरीके से प्रबंधित नहीं किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन का सामना करने का मानव का सीमित अवसर और कमज़ोर पड़ जाएगा।

IPCC क्या है?

  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक आकलन हेतु संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है जिसमें 195 सदस्य देश शामिल हैं।
  • इसे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा 1988 में स्थापित किया गया था।
  • इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु नीति निर्माताओं को रणनीति बनाने के लिये नियमित वैज्ञानिक आकलन प्रदान करना है।
  • IPCC का आकलन सभी स्तरों पर सरकारों को वैज्ञानिक सूचनाएँ प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल जलवायु के प्रति उदार नीति विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
  • IPCC का आकलन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भूमि प्रबंधन

भूमि लोगों के जीवन का एक अहम हिस्सा है। यह खाद्य, जल, आजीविका, जैव विविधता और अपने पारिस्थितिक तंत्रों के अन्य वृहत लाभ प्रदान करती है। भूमि उपयोग वास्तव में पृथ्वी पर जीवन के कई पहलुओं के साथ परस्पर संबद्ध है। उदाहरण के लिये कृषि प्रणाली में दशकों से जारी बदतर भूमि प्रबंधन अब हमें संकटग्रस्त कर रही है। रसायनों के भारी उपयोग के कारण मृदा का क्षरण हुआ है, खेतों में मित्र/सहयोगी कीटों/कृमियों की समाप्ति हो गई है, एकल कृषि (Monoculture) ने उपयोगी गुणों वाले स्वदेशी फसल किस्मों के उपयोग में कमी की है, भूजल में कमी आई है और प्रदूषित खेत अपवाह (Polluted Farm Runoffs) दूषित जल निकायों में योगदान कर रहे हैं, साथ ही जैवविविधता को भी नष्ट कर रहे हैं। हमने एक ऐसी प्रणाली विकसित कर ली है जो अब कृषक परिवारों का समर्थन नहीं करती बल्कि इस प्रणाली के कारण उत्पन्न दबाव व तनाव ने किसानों द्वारा आत्महत्या जैसे संकट को जन्म दिया है।

  • खेती के लिये बेहतर भूमि प्रबंधन में अधिक संवहनीय कृषि अभ्यासों के अनुपालन को शामिल करना होगा। उदाहरण के लिये- रासायनिक इनपुट में भारी कमी लाना और खाद्य उत्पादन अभ्यास को कृषि विज्ञान के प्राकृतिक तरीकों के निकट ले जाना, क्योंकि ये उत्सर्जन को कम करेंगे और वैश्विक तापन (Global Warming) के प्रति प्रत्यास्थता में वृद्धि करेंगे।
  • रिपोर्ट में घास के मैदानों को फसल उत्पादन हेतु भूमि में बदलने से रोकना, कृषि में जल के न्यायसंगत प्रबंधन, फसल विविधीकरण, कृषि-वानिकी और उच्च तापमान सहन कर सकने वाले स्थानीय और बीज की स्वदेशी किस्मों में निवेश का आह्वान किया गया है। यह उन अभ्यासों की भी सिफारिश करता है जो मृदा में कार्बन की वृद्धि करते हैं और लवणन (Salinization) को कम करते हैं।
  • सतत् या संवहनीय खाद्य प्रणालियों की स्थापना का अर्थ है खाद्य की बर्बादी को कम करना जो कि उत्पादित खाद्य का लगभग एक-चौथाई आकलित किया जाता है। यह स्थानीय स्तर पर उत्पादित खाद्यान्नों के उपभोग और मांस की खपत में कमी लाने जैसे प्रयासों की आवश्यकता पर बल देता है। इन परिवर्तनों के साथ ही वनों की कटाई पर रोक लगाना और कच्छ वनस्पति (Mangroves), पीट-भूमि (Peatland) एवं अन्य आर्द्रभूमियों का संरक्षण किया जाना भी आवश्यक है।
  • इन महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के लिये और असमानता व गरीबी को कम करने के लिये भूमि उपयोग नीति में लघु एवं सीमांत किसानों की बेहतर बाज़ार पहुँच, महिला कृषकों का सशक्तीकरण, कृषि सेवाओं का विस्तार और भूमि-धारण प्रणालियों को मज़बूत करना शामिल होना चाहिये। सतत् भूमि प्रबंधन पारिस्थितिकी तंत्रों और समाजों पर हावी कई दबावों को कम कर सकता है। यह समाजों को गर्म जलवायु के प्रति बेहतर ढंग अनुकूलित होने और उनके ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाने में भी मदद करेगा।

आगे की राह

  • जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग की अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों के समाधान में राष्ट्रवाद का संकीर्ण चश्मा अब हमारे काम नहीं आएगा। हमें एक नई भूमंडलीय नैतिकता की आवश्यकता है जो भविष्य के लिये एक संवहनीय पृथ्वी हेतु वैकल्पिक प्रणालियों का समर्थन करती हो। यही नैतिकता पारिस्थितिक संवेदनाओं के विकास को बढ़ावा देगी, बहुलवाद का समर्थन करेगी, जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करेगी, उपभोक्तावाद से मूल्यों की रक्षा करेगी और नई पहचान और संस्कृतियों के निर्माण से पारंपरिक सीमाओं को पार करेगी।
  • ऐसे मूल्यों की मांग नई नहीं है, ला वाया कैंपसीना (La Via Campesina), ट्रांज़िशन नेटवर्क (The Transition Network) और पारिस्थितिक-क्षेत्रीयता (Ecoregionalism) जैसे कई सफल नागरिक समाज आंदोलनों ने भौतिक सीमाओं को पार कर अपना असर दिखाया है। अभी हाल में Fridays for Future और Fossil Fuel Divestment जैसे प्रतिरोधी आंदोलन इन्हीं उभरती संवेदनाओं का अंग रहे। इन सफलताओं के साथ एक किलाबंद विश्व के निर्माण की बजाय सीमाओं को लाँघते हुए एकजुटता की भावना पैदा करने हेतु हम जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, हमारा पथ प्रशस्त होता जाएगा।
  • ‘Great Transition Initiative’ में पॉल रस्किन ने कहा है कि जीवन के केंद्र के बजाय इसके ताने-बाने के हिस्से के रूप में स्वयं को देखने के लिये विश्व के विचारों में ‘कोपर्निकन’ परिवर्तन की आवश्यकता है। जिस तरह कोपर्निकस ने ब्रह्मांड के केंद्र में पृथ्वी के होने की धारणा को बदल कर इसे कई ग्रहों में से एक के रूप में स्थापित कर दिया, उसी प्रकार हमें अपनी संवेदनाओं को भी रूपांतरित करना होगा। यदि हम स्वयं को पृथ्वी के एक हिस्से के रूप में देखने में विफल रहते हैं तो इसके साथ ही हमारा भी अवसान हो जाएगा।

प्रश्न: जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग की अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों के समाधान में राष्ट्रवाद का संकीर्ण चश्मा अब हमारे काम नहीं आएगा। टिप्पणी कीजिये।

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