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श्रीलंका का 20वाँ संविधान संशोधन: पृष्ठभूमि और आलोचना

  • 14 Sep 2020
  • 12 min read

प्रिलिम्स के लिये

भारत-श्रीलंका समझौता (1978), श्रीलंका का 19वाँ और 13वाँ संविधान संशोधन

मेन्स के लिये

श्रीलंका का 20वाँ संविधान संशोधन और उसकी आलोचना तथा भारत-श्रीलंका संबंधों पर इसके प्रभाव

चर्चा में क्यों?

श्रीलंका सरकार ने देश के संविधान में 20वाँ संशोधन प्रस्तावित किया है, जिसे स्वयं सत्तारूढ़ दल के भीतर विरोध का सामना करना पड़ रहा है। 

प्रमुख बिंदु

  • श्रीलंका सरकार 20वें संविधान संशोधन के माध्यम से वर्ष 2015 के 19वें संविधान संशोधन को बदलता चाहती है, हालाँकि भारत के लिये सबसे बड़ी चिंता यह है कि यदि परिस्थितियाँ यही रहती हैं तो श्रीलंका सरकार भविष्य में 13वें संविधान संशोधन को भी समाप्त कर सकती है।

20वें संविधान संशोधन के प्रावधान

  • 2 सितंबर, 2020 को श्रीलंका सरकार ने संविधान संशोधन का एक मसौदा प्रकाशित किया था, जिसके माध्यम से राष्ट्रपति पद की शक्तियों पर अंकुश लगाने वाले 19वें संविधान संशोधन के कुछ प्रावधानों को बदलने के लिये विधायी प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।
    • तकरीबन 42 वर्ष पूर्व श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री जे.आर. जयवर्धने द्वारा लागू किये गए श्रीलंका के संविधान में यह 20वाँ संशोधन होगा।
  • प्रस्तावित संविधान संशोधन में संवैधानिक परिषद को संसदीय परिषद के साथ बदलने का प्रावधान किया गया है। मौजूदा नियमों के अनुसार, संवैधानिक परिषद के निर्णय राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी हैं, किंतु प्रस्तावित संसदीय परिषद के निर्णय को मानने के लिये राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।
  • संविधान संशोधन के माध्यम से मंत्रिमंडल और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी के लिये प्रधानमंत्री की सलाह की आवश्यकता को हटा दिया गया है, इस प्रकार अब श्रीलंका में प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी संसद के विश्वास पर नहीं बल्कि राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर है। 
  • प्रस्तावित संशोधन के तहत, राष्ट्रपति को कुछ सीमित परिस्थितियों के अलावा संसद की एक वर्ष की अवधि के बाद उसे भंग करने के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति दी गई है, जिसका अर्थ है कि संसद की एक वर्ष की अवधि की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति उसे किसी भी समय भंग कर सकता है।
  • प्रस्तावित संशोधन में किसी भी विधेयक को संसद के समक्ष प्रस्तुत करने से पूर्व आम जनता के लिये प्रकाशित करने की अवधि को 14 दिन से घटाकर 7 दिन कर दिया गया है।

आलोचना

  • 20वाँ संविधान संशोधन संवैधानिक परिषद की बहुलवादी और विचारशील प्रक्रिया के माध्यम से स्वतंत्र संस्थानों के लिये महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों के संबंध में राष्ट्रपति की शक्तियों पर बाध्यकारी सीमाओं को समाप्त करने का प्रावधान करता है।
  • श्रीलंका के कई कानून विशेषज्ञों ने सरकार पर आरोप लगाया है कि सरकार इस संशोधन के माध्यम से देश की संस्थाओं का राजनीतिकरण करने का प्रयास कर रही है, जिन्हें राजनीति के दायरे से स्वतंत्र होकर आम नागरिकों के कल्याण के लिये गठित किया गया था। 
  • सरकार द्वारा किये जा रहे ये संविधान संशोधन जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही को प्रभावित करेंगे और श्रीलंका के संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के समक्ष चुनौती उत्पन्न करेंगे।
  • संवैधानिक नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत की समाप्ति से सार्वजनिक धन के कुशल, प्रभावी और पारदर्शी उपयोग पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

कब पारित होगा यह संशोधन?

  • मौजूदा नियमों के अनुसार, श्रीलंका का संविधान किसी भी प्रकार के विधेयक को कम-से-कम दो सप्ताह अथवा 14 दिनों तक आम जनता के लिये प्रकाशित करने का प्रावधान करता है, जिसके बाद उस विधेयक को श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। 
    • ध्यातव्य है कि श्रीलंका के विपक्षी दलों ने पहले ही इस संशोधन के मसौदे को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती देने का इरादा ज़ाहिर किया है।
  • संविधान संशोधन के विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय के अवलोकन के पश्चात् संसद में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जा सकेगा। इस संशोधन के पारित करने के लिये श्रीलंका के सत्तारूढ़ दल के पास पर्याप्त बहुमत है।

20वें संविधान संशोधन के कारण?

  • गौरतलब है कि जब से गोतबाया राजपक्षे सत्ता में आए हैं, तभी से 19वें संशोधन के माध्यम से पेश किये गए संवैधानिक प्रावधानों को निरस्त करना उनके प्रमुख उद्देश्यों में से एक रहा है। 
  • दिसंबर 2019 में राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे ने कहा था कि 19वाँ संविधान देश के शासन के समक्ष एक बड़ी बाधा है, जिसके कारण इसे समाप्त करना आवश्यक है। 
  • राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे के इस विचार को पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री  रानिल विक्रमसिंघे के बीच खराब संबंधों के कारण और अधिक बल मिला था, और इस प्रकरण के कारण श्रीलंका के समक्ष एक बड़ा संवैधानिक और राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया था।

श्रीलंका का 19वाँ संविधान संशोधन

  • वर्ष 2015 में पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के कार्यकाल (2015-19) के दौरान इसे पारित किया गया था। इस संशोधन के माध्यम से वर्ष 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे द्वारा प्रस्तुत किये गए 18वें संशोधन को एक प्रकार से निरस्त करने का प्रयास किया गया था। 
  • 18वें संविधान संशोधन की सबसे मुख्य बात यह थी कि इसमें लगभग सभी महत्त्वपूर्ण शक्तियों को राष्ट्रपति के पास केंद्रीकृत कर दिया गया, जबकि 19वें संविधान संशोधन से राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित किया गया और स्वतंत्र संस्थाओं के अस्तित्त्व को मज़बूत किया गया।
  • साथ ही 19वें संविधान संशोधन में चुनाव आयोग, राष्ट्रीय पुलिस आयोग, मानवाधिकार आयोग, वित्त आयोग और लोक सेवा आयोग समेत 9 आयोगों में नियुक्तियों की प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत किया गया।
  • 19वें संविधान संशोधन के माध्यम से संवैधानिक परिषद में नागरिक समाज का प्रतिनिधित्त्व भी सुनिश्चित किया गया था, जो कि इस संशोधन का सबसे प्रगतिशील प्रावधान था।
  • इस प्रकार श्रीलंका की वर्तमान सरकार द्वारा लाया गया 20वाँ संविधान संशोधन 19वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को पूरी तरह से बदलने का प्रावधान करता है।

भारत की भूमिका

  • भारत ने श्रीलंका के 20वें संविधान संशोधन को लेकर अभी तक कोई भी आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है और न ही भारत द्वारा बयान जारी करने का कोई अनुमान है, क्योंकि यह संशोधन पूरी तरह से श्रीलंका का आंतरिक मामला है।
  • हालाँकि भारत सरकार निश्चित रूप से श्रीलंका के घटनाक्रम पर नज़र बनाए हुई है, क्योंकि 20वें संशोधन के प्रावधान स्पष्ट रूप से राष्ट्रवादी सिंहली भावनाओं को प्रकट करते हैं, ऐसे में यह घटनाक्रम भारत-श्रीलंका के दीर्घकालिक संबंधों के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है।
  • हालाँकि भारत के दृष्टिकोण से 19वें संविधान संशोधन से ज़्यादा 13वाँ संविधान संशोधन अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसी वर्ष फरवरी माह में जब श्रीलंका के वर्तमान प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे भारत के दौरे पर आए थे, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोहराया था कि श्रीलंका को 13वें संशोधन के कार्यान्वयन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • ध्यातव्य है कि 13वें संविधान संशोधन के प्रावधानों का हटना श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यकों के लिये एक बड़ा खतरा उत्पन्न कर सकता है।

श्रीलंका का 13वाँ संविधान संशोधन

  • श्रीलंका का 13वाँ संविधान संशोधन वर्ष 1987-1990 के बीच श्रीलंका में भारतीय हस्तक्षेप का ही परिणाम है।
  • यह संविधान संशोधन 29 जुलाई, 1987 को हुए भारत-श्रीलंका समझौते के प्रावधानों के तहत लाया गया था। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य तत्कालीन पूर्वोत्तर प्रांत (श्रीलंका का तमिल बहुल क्षेत्र) में राजनीतिक शक्तियों के हस्तांतरण का एक नया मार्ग खोजना था।
  • इस समझौते के तहत श्रीलंका की संसद में 13वाँ संविधान संशोधन प्रस्तुत किया गया, जो कि पूरे श्रीलंका में एक निर्वाचित प्रांतीय परिषद की प्रणाली प्रस्तुत करता है।
  • इस प्रकार न केवल श्रीलंका के पूर्वोत्तर प्रांत को, बल्कि वहाँ के शेष सभी प्रांतों को एक प्रांतीय परिषद प्राप्त हुई।
  • उल्लेखनीय है कि अधिकांश सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन को भारत द्वारा अधिरोपित किये गए प्रावधान के रूप में देखते हैं। सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को तमिल अलगाववाद को प्रोत्साहित करने वाला प्रावधान मानते हैं।

Sri-Lanka

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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