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भारतीय राजव्यवस्था

SC या HC को कोई उत्तर नहीं: महाराष्ट्र

  • 17 Dec 2020
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में महाराष्ट्र राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों ने यह कहते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है कि वे किसी टीवी संपादक या एंकर के खिलाफ विशेषाधिकार के उल्लंघन के मामले में उच्च न्यायालय (High Court- HC) या सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court- SC) द्वारा भेजे गए किसी नोटिस का जवाब नहीं देंगे।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • एक टीवी एंकर के खिलाफ राज्य विधानसभा में विशेषाधिकार के उल्लंघन का मामला चलाया गया, जिसमें एक टीवी डिबेट के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ "अपमानजनक भाषा" एवं "आधारहीन टिप्पणी" के इस्तेमाल और "मंत्रियों का अपमान" करने का आरोप लगाया गया।
  • एंकर ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी जिसमें विशेषाधिकार के उल्लंघन के प्रस्ताव को चुनौती दी गई थी।
  • विधानसभा के सहायक सचिव ने इस कदम को लेकर अध्यक्ष और सदन विशेषाधिकार समिति के सामने "गोपनीय" संचार का सवाल उठाया।

वर्तमान परिदृश्य और राज्य विधानसभा का रूख:

  • सदन के अध्यक्ष ने ट्रेजरी बेंच से प्रस्ताव की शुरुआत की और संविधान के अनुच्छेद 194, जो विधानमंडलों के सदनों की शक्तियों एवं विशेषाधिकारों से संबंधित है तथा अनुच्छेद 212, जो अदालतों से संबंधित हैं और विधायिका की कार्यवाही की जाँच नहीं करने का प्रावधान करते हैं, का हवाला दिया।
  • इस तरह के नोटिस का जवाब देने के प्रस्तावों का मतलब यह माना जा सकता है कि  वे न्यायपालिका को विधायिका पर निगरानी रखने का अधिकार दे रहे हैं और यह संविधान के आधारभूत ढाँचे का उल्लंघन है।
  • प्रस्तावों को सर्वसम्मति से पारित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गए किसी नोटिस या तलब का जवाब नहीं देंगे।
  • विधान परिषद ने भी सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और कहा कि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये गए किसी भी नोटिस या तलब पर कोई संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

प्रतिक्रियाएँ:

  • महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव के संदर्भ में राजनेताओं द्वारा यह उल्लेख किया कि नोटिस, पत्र में प्रयुक्त भाषा के अपवाद स्वरुप जारी की गई थी और यह किसी भी तरह से विधायिका के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करती है। ऐसे में यदि विधायिका इस तरह का प्रस्ताव पारित करती है, तो यह एक गलत मिसाल कायम करेगा।
  • संसदीय कार्य मंत्री का मानना है कि यह प्रस्ताव अध्यक्ष के पद के सम्मान को बनाए रखने तक ही सीमित था और इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि पीठासीन प्राधिकरण को कानूनी मामलों में न्यायिक जाँच से सुरक्षित रखा जाए।

विशेषाधिकार प्रस्ताव:

  • इसका संबंध एक मंत्री द्वारा संसदीय विशेषाधिकारों के उल्लंघन से है।
  • विशेषाधिकार का उल्लंघन:
    • संसदीय विशेषाधिकार संसद के प्रत्येक सदन तथा उसकी समितियों को सामूहिक रूप से तथा प्रत्येक सदन के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से प्राप्त हैं ताकि वे अपने कार्यों का निर्वहन प्रभावी ढंग से कर सकें।
    • जब इनमें से किसी भी अधिकार की अवहेलना की जाती है, तो इसे विशेषाधिकार का उल्लंघन माना जाता है तथा यह संसद के कानून के तहत दंडनीय है।
    • विशेषाधिकार के उल्लंघन के लिये दोषी पाए जाने पर किसी भी सदन के किसी भी सदस्य द्वारा प्रस्ताव के रूप में एक नोटिस दिया जाता है।
  • अध्यक्ष की भूमिका:
    • विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव की जाँच प्रथम स्तर पर लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा की जाती है।
    • अध्यक्ष/सभापति स्वयं विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव पर निर्णय ले सकते हैं या इसे संसद की विशेषाधिकार समिति को संदर्भित कर सकते हैं।

विशेषाधिकार समिति:

  • इसकी कार्य प्रकृति अल्प-न्यायिक की तरह है, यह सदन एवं इसके सदस्यों के विशेषाधिकारों के उल्लंघन का परीक्षण करती है एवं उचित कार्यवाही की सिफारिश करती है।
    • लोकसभा समिति में 15 सदस्य होते हैं।
    • राज्यसभा समिति में 10 सदस्य होते हैं।

विशेषाधिकारों के स्रोत:

  • मूल रूप में संविधान (अनुच्छेद 105) में दो विशेषाधिकार बताए गए हैं:
  1. संसद में भाषण देने की स्वतंत्रता।
  2. इसकी कार्यवाही के प्रकाशन का अधिकार।
  • लोकसभा नियम पुस्तिका के अध्याय 20 में नियम संख्या 222 तथा राज्यसभा की नियम पुस्तिका के अध्याय 16 में नियम संख्या 187 विशेषाधिकार को नियंत्रित करते हैं।
  • संसद ने अभी तक विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने के लिये कोई विशेष विधि नहीं बनाई है। यह पाँच स्रोतों पर आधारित है-
    • संवैधानिक उपबंध, संसद द्वारा निर्मित अनेक विधियाँ, दोनों सदनों के नियम, संसदीय परंपरा, न्यायिक व्याख्या।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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