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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

GFSR रिपोर्ट के निष्कर्षों की भारत की वित्तीय स्थिरता के लिये प्रासंगिकता

  • 14 Apr 2018
  • 4 min read

चर्चा में क्यों?

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी ग्लोबल फाइनेंसियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि किसी भी अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता के लिये न केवल ऋण की मात्रा महत्त्वपूर्ण है बल्कि ऋण जिन कंपनियों को मिल रहा है उनकी गुणवत्ता भी महत्त्वपूर्ण है। 

प्रमुख बिंदु

  • इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ऋण आवंटन के जोखिम के आकलन से बैंकिंग संकट, वित्तीय क्षेत्र में तनाव तथा विकास को अवरुद्ध करने वाले कारकों का विश्लेषण करने में सहायता मिलती है।

इस आकलन के लिये यह जानना आवश्यक है कि जिन कंपनियों को ऋण मिल रहा है वे अधिक जोखिमपूर्ण हैं या कम, जिसके मूल्यांकन हेतु IMF द्वारा ब्याज कवरेज अनुपात तथा ऋण-से-लाभ के अनुपात जैसे मानदंडों का प्रयोग किया गया है।

वैश्विक चलन तथा भारत की समस्याएँnpa  

  • लगभग एक दशक पूर्व हुए वैश्विक वित्तीय संकट का एक संभावित कारण जोखिमपूर्ण ऋण आवंटन भी माना जाता है तथा इस संकट के बाद इस प्रकार के ऋण आवंटन में कमी आई।
  • भारत भी वैश्विक चलन का अनुपालन कर रहा है तथा 2016 तक यहाँ ऋण के जोखिम की कमी की एक वज़ह “ट्विन बैलेंस शीट” समस्या भी थी।
  • हालाँकि हाल में जोखिमपूर्ण ऋण आवंटन के स्तर में फिर से उछाल आया है जो वित्तीय स्थिरता के लिये खतरा हो सकता है।
  • हाल ही में भारत में ‘बैड डेट’ या “गैर-निष्पादक आस्तियों (NPA)” की घटनाओं तथा बैंकिंग प्रणाली में गड़बड़ी में जिस तरह बढ़ोतरी हुई है, उससे एक अधिक प्रभावी बैंकिंग नियामक ढाँचे की आवश्यकता महसूस हो रही है।
  • भारत में राज्य-सचालित बैंकों को नियमित करने के लिये RBI के पास अपर्याप्त शक्ति भी एक गंभीर समस्या है। 

RBI द्वारा उठाए गए कदम

  • दबावग्रस्त आस्तियों के समाधान हेतु RBI के नए फ्रेमवर्क में साप्ताहिक रूप से 5 करोड़ से अधिक की गैर-निष्पादक आस्तियों (NPA) की रिपोर्टिंग करना अनिवार्य किया गया है। इससे ट्रैकिंग सरल हो सकेगी।
  • कोटक समिति की अनुशंसाओं को स्वीकृति भी कॉर्पोरेट गवर्नेंस के लिये लाभकारी कदम है।
  • अल्पांश स्टेकधारकों के हितों की रक्षा के लिये फ्रेमवर्क को सुदृढ़ बनाने के लिये काम किया जा रहा है। 

2015-16 के बीच सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों के NPA में वृद्धि

आगे की राह 

हालाँकि, IMF की रिपोर्ट में कॉर्पोरेट क्षेत्रक में सरकार की उपस्थिति पर प्रकाश डाला गया है लेकिन भारत में वर्तमान “बैड डेट” की समस्या के लिये राज्य-संचालित बैंकों का वित्तीय तंत्र पर प्रभुत्व ही जिम्मेदार है। इसलिये यह आवश्यक है कि ऐसी व्यवस्था विकसित की जाए जिससे बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी उनके संचालन को प्रभावित न करे।

  • इसके अलावा नीति-निर्माताओं को नियामक फ्रेमवर्क को मज़बूत बनाने के लिये ऋण वृद्धि दर में बढ़ोतरी के साथ-साथ कंपनियों के मूल्यांकन हेतु उचित नीतियों का निर्माण करना चाहिये।
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