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नो-डिटेंशन पॉलिसी में प्रस्तावित बदलाव का मूल्यांकन

  • 11 Aug 2017
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?

  • हाल ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आठवीं कक्षा तक के छात्रों को फेल न करने की नीति को खत्म करने की मंज़ूरी दे दी है। सरकार इस संबंध में ‘बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2017’ लाने जा रही है।
  • शिक्षा के अधिकार के मौजूदा प्रावधान के अनुसार छात्रों को 8वीं कक्षा तक फेल होने के बाद भी अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता है, इसे ही हम 'नो-डिटेंशन पॉलिसी' के नाम से जानते हैं।

नो-डिटेंशन पॉलिसी में बदलाव की ज़रूरत क्यों ?

  • नो-डिटेंशन पॉलिसी, शिक्षा के अधिकार अधिनियम (2009) का अहम हिस्सा है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि बच्चों को आठवीं तक किसी भी कक्षा में फेल होने पर उसी कक्षा में पुनः पढ़ने के लिये बाध्य न किया जाए; अगर किसी छात्र के प्राप्तांक कम हैं तो उसे पासिंग ग्रेड देकर अगली कक्षा में भेज दिया जाए।
  • इस पॉलिसी का मुख्य उद्देश्य यह था कि छात्रों की सफलता का मूल्यांकन केवल उनके द्वारा परीक्षा में प्राप्त अंको के आधार पर न किया जाए बल्कि इसमें उनके सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाए।
  • किन्तु, इसके लागू होने के कुछ ही वर्षों में यह शिकायत मिलने लगी कि बच्चो में उस कक्षा के स्तर की अपेक्षित जानकारी नहीं है जिस कारण उनके सीखने के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। कहा जा रहा है कि इस पॉलिसी के लागू होने से छात्र और अभिभावक दोनों सुस्त हो गए हैं, जिससे सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में गिरावट आई है।
  • इस पॉलिसी के विरोध में यह भी कहा जा रहा है कि यह "गुड और बैड स्टूडेंट" के बीच में फर्क नहीं करती है। 

इस बदलाव के नकारात्मक प्रभाव

  • शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को मूल अधिकार बनाने का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना है। लेकिन नो-डिटेंशन पॉलिसी में प्रस्तवित बदलाव सामाजिक-आर्थिक कारकों को नज़रअंदाज़ करता दिख रहा है।
  • मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मुताबिक, 2014-2015 में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर लगभग 4% थी और बच्चों को परीक्षाओं के आधार पर फेल करने से स्कूल छोड़ने की दर में वृद्धि होगी।
  • दरअसल, हमारी समूची शिक्षा व्यवस्था ही लचर है। आर्थिक रूप से वंचित समूहों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे अपने बच्चों को निजी ट्यूशन दिला सकें। नो-डिटेंशन पॉलिसी में प्रस्तवित इस बदलाव के कारण फेल होने वाले बच्चों को आगे की कक्षाओं में प्रोन्नति नहीं मिल सकेगी और ऐसे में उनके माता-पिता को यह लगना स्वाभाविक है कि बच्चे स्कूल जाने की बजाय कहीं काम पर जाएँ।
  • लड़कियों के लिये तो यह बदलाव और भी गंभीर साबित हो सकता है। कम उम्र में विवाह, स्कूलों का घर के नज़दीक न होना, कम लागत वाले सैनिटरी नैपकिन और स्कूलों में शौचालयों का अभाव आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वज़ह से लड़कियाँ माध्यमिक स्तर तक पहुँचते-पहुँचते स्कूल छोड़ देती हैं। अब नो-डिटेंशन पॉलिसी में प्रस्तावित यह बदलाव उनके स्कूल छोड़ने का एक और कारण बन सकता है।
  • यह भी देखा गया है कि जब किसी बच्चे को उसकी उम्र से कम उम्र के बच्चों के समूह में बैठने को मज़बूर किया जाता है, तो वह परेशान होता हैं; दूसरे बच्चे उसका मज़ाक बनाते हैं परिणामस्वरूप वह स्कूल छोड़ देता है।

निष्कर्ष

यह ज़रूरी है कि हम वर्तमान शिक्षा पद्धति का नए सिरे से मूल्यांकन करें, इसकी पृष्टभूमि को मनुष्य के समग्र विकास के लिये तैयार करें ताकि आने वाली पीढ़ी केवल सरकारी और कॉर्पोरेट नौकरियों की तरफ न दौड़े बल्कि स्वयं की परख के आधार पर समाज में कला, विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में आदर्श स्थापित करे।

हालाँकि नो-डिटेंशन पॉलिसी में बदलाव लाने के बाद बच्चों को आगे की कक्षाओं में प्रवेश हेतु अतिरिक्त मौके दिये जाने की बात की जा रही है, लेकिन फिर भी नो-डिटेंशन पॉलिसी को हटाने की इतनी ज़ल्दबाजी ठीक नहीं कही जा सकती है। इस पर गहन अध्ययन की ज़रूरत है और इस प्रक्रिया में इसके विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन होना चाहिये।

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