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कैदियों की सुरक्षा बनाम कानूनी तंत्र

  • 11 Dec 2018
  • 17 min read

संदर्भ


जेल का नाम सुनते ही कोई भी भला मानस एक पल के लिये ठिठक जाता है। उसके मन में यह भाव भी आ सकता है कि वह कोई ऐसा काम न करे जिससे उसे जेल जाना पड़े। जाहिर तौर पर जेल अपराधियों को समाज से अलग-थलग कर उन्हें उनकी करतूत का दंड देने का सबसे मुकम्मल स्थान माना जाता है। लेकिन एक सभ्य समाज की पहचान इससे भी होती है कि वह अपराध करने वालों के मानवाधिकारों का हनन न करे। साथ ही जो दोष सिद्ध हुए बिना भी न्याय का इंतजार करते हुए कैदी का जीवन जी रहा है उसके मनावाधिकार की रक्षा करना तो और अहम् हो जाता है।

हाल का सुप्रीम कोर्ट का आदेश

  • हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में जेल सुधारों के सभी पहलुओं को देखने और उस पर सुझाव देने के लिये तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जज जस्टिस अमिताव रॉय की अध्यक्षता में गठित यह समिति जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों और जेलों में सज़ा भुगत रही महिलाओं की स्थिति को देखेगी।
  • दरअसल, देश भर के 1,382 जेलों में कैदियों की अमानवीय दशाओं के बारे में 2013 की एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने समिति के गठन का फैसला लिया है। कोर्ट ने साफतौर पर कहा कि है कि कैदियों को जानवरों की तरह जेल में नहीं रखा जा सकता है।
  • हालाँकि, यह पहला मामला नहीं है जब कोर्ट ने कैदियों की स्थिति पर चिंता जताई है। 2016 के मई और अक्तूबर के महीने में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कई निर्देश दिये थे। कोर्ट ने कहा था कि जेलों में बढ़ती भीड़ के मुद्दे पर सभी राज्य और केंद्रशासित प्रदेश कोर्ट को सुझाव दें कि इस मसले पर क्या किया जा सकता है। लेकिन, कोई भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश तय समय-सीमा के अंदर रिपोर्ट नहीं सौंप सका।
  • इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारी सरकारें कैदियों की सुरक्षा और उनके मानवाधिकारों के प्रति कितनी संजीदा हैं। जाहिर है, सरकारों का यह रवैया कई सवाल भी खड़े करता है।

गंभीर होती स्थिति

  • सबसे अहम सवाल यह है कि क्या कैदियों के अधिकार और उनकी सुरक्षा भारतीय संविधान के दायरे में नहीं आते? एक ऐसे समय में जब देश भर में मानवाधिकारों पर बहस छिड़ी हुई है, तब कैदियों के अधिकार के लिये सरकारें गंभीर क्यों नहीं दिख रही हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकारें सिर्फ इसलिये खामोश रहती हैं कि कैदियों का मुद्दा किसी दल के वोट बैंक में इज़ाफा नहीं करता? या फिर यह मान लिया जाए कि हमारी सरकारें महँगे होते इंसाफ और जेल में कैदियों की बढ़ती भीड़ से होने वाले आर्थिक नुकसान से अंजान हैं।
  • जाहिर है, कैदियों की सुरक्षा और कानूनी तंत्र के बीच की यह लड़ाई चिंता का विषय बनती जा रही है। आइये इन सभी पहलुओं पर विचार करते हैं।

कैदियों की वर्तमान स्थिति क्या है?

  • सबसे पहले आपको यह बता दें कि मोटेतौर पर देश में तीन तरह की जेलें हैं। इनमें उप-जेलों की संख्या सबसे ज़्यादा 741 है। इसके अलावा, 379 ज़िला जेल हैं, जबकि 134 सेंट्रल जेल हैं। शेष जेलों को महिला जेल, विशेष जेल आदि की श्रेणी में रखा गया है जिनकी संख्या बेहद कम है।
  • इसी वर्ष बजट सत्र में राज्यसभा में केंद्र सरकार ने बताया कि 31 दिसम्बर, 2016 तक देश भर की 1,412 जेलों में 4.33 लाख कैदी थे, जबकि इन जेलों की क्षमता 3.81 लाख थी। NCRB यानी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2015 में भी क्षमता से 14 फीसदी ज़्यादा कैदी जेलों में बंद थे और कुछ मामलों में तो यह तादाद इससे भी कहीं ज़्यादा थी।
  • 2015 के इन आँकड़ों के मुकाबले 2018 तक कैदियों की तादाद में लगातार इज़ाफा होता रहा है, जबकि जेलों की संख्‍या में कोई खास इज़ाफा नहीं हुआ है। ऐसे में इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन जेलों में बंद कैदियों की हालत कितनी बदहाल होगी।
  • एक आँकड़े के मुताबिक, जेलों की बदहाल स्थिति के कारण 2015 में 1,584 कैदियों की मृत्यु हुई। इन मौतों में 1,469 प्राकृतिक रूप से हुई मौतें हैं जबकि 115 लोगों की मृत्यु अप्राकृतिक रूप से हुई। यदि महिला कैदियों की बात करें तो पता चलता है कि इस एक साल के दौरान 51 महिला कैदियों की मृत्यु हुई। इनमें से 48 प्राकृतिक मौतें थीं, जबकि तीन मौतें अप्राकृतिक थीं।

ऐसे में सवाल उठता है कि जेलों की बदहाली के क्या कारण हैं?

  • जेलों में क्षमता से अधिक कैदी होने की सबसे बड़ी वज़ह ज़्यादा तादाद में न्यायालयों में लंबित पड़े मामले हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, Undertrial Cases के मामले में भारत दुनिया का 10वाँ बड़ा देश है।
  • 31 मार्च, 2016 तक के आँकड़ों के अनुसार, देश के विभिन्न न्यायालयों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।
    NCRB के मुताबिक, देश में प्रत्येक तीन जेल कैदियों में से दो ऐसे हैं जिनके केस विचाराधीन यानी Undertrial हैं। NCRB ने बताया है कि 2015 में 67 फीसदी मामले विचाराधीन थे और ऐसे मामलों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है।
  • अब सवाल है कि इतने मामलों के विचाराधीन होने के पीछे क्या वज़हें रही है? दरअसल, इसकी दो वज़हें हैं। पहली वज़ह यह है कि भारत जजों और फास्ट ट्रैक कोर्ट की कमी से जूझ रहा है। मौजूदा वक्त में देश की विभिन्न अदालतों में 38 फीसदी जज कम हैं।
  • एक आँकड़े के मुताबिक, देश के उच्च न्यायालयों में लगभग 400 जज कम हैं, जबकि निचली अदालतों में लगभग 6 हज़ार जजों की कमी है। दूसरी बड़ी वज़ह है इंसाफ का महँगा होना। यह हैरत वाली बात है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिये दशकों तक जेल में रहना पड़ता है, क्योंकि वह जमानत कराने में सक्षम नहीं है।
  • एक रिपोर्ट के मुताबिक, जेलों में बंद 70 फीसदी लोग ऐसे होते हैं जिनके खिलाफ कोई दोष साबित नहीं हो पाता। इनमें से ज़्यादातर दलित, मुस्लिम और जनजातीय आबादी से हैं जो आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं। दरअसल, यह रिपोर्ट इस तरफ इशारा कर रही है कि ज़्यादातर कैदी गरीबी की वज़ह से सही समय पर जमानत नहीं करा पाते और उन्हें मजबूरन जिन्दगी का ज़्यादातर हिस्सा जेलों में गुज़ारना पड़ता है।
  • इसके अलावा, जेलों की दयनीय स्थिति की सबसे बड़ी वज़ह है यह है कि जेलों में कर्मचारियों की भारी कमी है। नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी यानी NALSA के मुताबिक, देश भर की जेलों में कर्मचारियों की अनुमोदित क्षमता 77,230 है। लेकिन, इनमें से तकरीबन 24,588 यानी 30 फीसदी से भी अधिक पद खाली हैं। जहाँ 225 कैदियों पर केवल एक मेडिकल स्टाफ है, वहीं 702 कैदियों पर केवल एक कैदी-सुधारक है।
  • हालाँकि, सभी राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि वे कैदियों, खासतौर पर पहली बार अपराध करने वालों की काउंसलिंग के लिये परामर्शदाताओं और मदद देने वालों की नियुक्ति करें। इसी तरह, कैदियों के लिये चिकित्‍सा सहायता की उपलब्‍धता का अध्‍ययन करने का भी निर्देश दिया गया था, लेकिन सच्चाई सबके सामने है।

जेल सुधार क्यों ज़रुरी है?

  • राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा जारी Prison Statistics Report 2015 में भारत की जेलों की दयनीय स्थिति बताई गई है। कैदियों की ज़्यादा तादाद के कारण उचित भोजन, रहने लायक स्थान, सोने के लिये जगह और स्वच्छ माहौल के सरकारी दावों को इस रिपोर्ट ने सिरे से खारिज़ किया है। जाहिर है, कैदियों की मौत के पीछे ये वज़हें भी काफी अहम हैं।
  • दूसरी तरफ, अक्सर देखा गया है कि अपराधी जेल से निकलने के बाद दोबारा अपराध में संलिप्त हो जाते हैं। कई छोटे अपराधी बड़े अपराधियों की संगति में बड़े अपराध करने लग जाते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, जेल की अमानवीय परिस्थितियाँ और कैदियों के साथ किया जाने वाला दुर्व्यवहार इसकी बड़ी वज़ह हैं।
  • Commonwealth Human Right Initiative यानी CHRI की कार्यकारी समिति के एक सदस्य का मानना है कि जो कश्मीरी लड़के 18 साल से कम उम्र में हिंसा के आरोप में पकड़े गए थे, वे ही एक दशक बाद कश्मीर में हिंसक समूहों के बड़े नेता के रूप में उभरे हैं। मुमकिन है कि ऐसे लड़कों पर सुधार-गृहों में कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया होगा।
  • इससे इतर, कुल कैदियों के लगभग 70 फीसदी वैसे मुकदमे विचाराधीन हैं जिनकी सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि देखें तो साफ पता चलता है कि दलित, आदिवासी और मुस्लिम कैदियों की तादाद ज़्यादा है। इसकी वज़ह गरीबी बताई गई है।
  • लेकिन सवाल है कि अगर परिवार का मुखिया सिर्फ इसलिये सालों-साल जेलों में बंद हो कि जमानत कराने लायक खर्च जुटाने में सक्षम नहीं है तो, यह बेहद चिंता का विषय है। इससे कैदियों के परिवार को मिलने वाले उन सभी संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है जिसका हर भारतीय हकदार है। इतना ही नहीं, उसके परिवार की स्थिति बिगड़ जाने के कारण बच्चों की बेहतर परवरिश नहीं हो पाती और यह देश के भविष्य के लिये कतई अच्छी बात नहीं है।

ऐसे में सवाल है कि जेल सुधार के लिये क्या उपाय हो?

  • व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो, जेल सुधार का मसला असल में एक मानवीय मसला है। जेल सुधार से यह कहकर मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि उसमें समाज के गुनहगार रहते हैं। एक सभ्य समाज में जेलों का मकसद अपराधियों को सुधार कर एक बेहतर इंसान बनाना होता है। ऐसे में हमारी सरकारों को चाहिये कि वे जेलों को सुधारने के लिये ठोस कदम उठाएँ। अब सवाल है कि इसके क्या-क्या उपाय हो सकते हैं?
  • सबसे पहले तो सरकार को CrPC यानी Code of Criminal Procedure की धारा 436 और 436A को प्रभावी रूप से लागू करने की कोशिश करनी होगी। धारा 436ए में साफतौर पर लिखा है कि अगर किसी कैदी का केस विचाराधीन है और अगर उसने कथित अपराध के लिये मिलने वाली अधिकतम सज़ा का आधा समय जेल में गुजार लिया है तो उसे निजी बॉण्ड पर रिहा कर देना चाहिये। लेकिन, अफसोस की बात है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों का दावा करने वाली हमारी सरकारें इस बिंदु पर अक्सर मौन रह जाती हैं।
  • दूसरी तरफ, गौर करें तो जेलों में कैदियों की अधिक संख्या का कारण न्यायालयों में लंबित मुकदमे हैं और इसकी सबसे बड़ी वज़ह जजों की संख्या में कमी है। ऐसे में यह बेहद ज़रूरी है कि न केवल जजों की मौजूदा खाली सीटें भरी जाएँ बल्कि, जजों की तादाद भी बढ़ाई जाए। इससे ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में फास्ट-ट्रैक अदालतों का गठन हो सकेगा ताकि मामलों का जल्द-से-जल्द निपटारा किया जा सके।
  • दरअसल, समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई रिपोर्ट्स भी जेल की दयनीय स्थिति से सरकारों को आगाह करती रही हैं। लेकिन, अक्सर ही इसे अनसुना कर दिया जाता है या समिति दर समिति गठित कर दी जाती है।
  • ऐसा लगता है कि सरकारों द्वारा जनहित से जुड़े मुद्दों को अनसुना कर देने की एक परिपाटी सी चल पड़ी है। यह सरकार की नीयत पर सवालिया निशान ही तो है कि सुप्रीम कोर्ट 2016 में जेल सुधार के मसले पर जवाब- तलब करता है,लेकिन एक भी राज्य सरकार इस पर दिलचस्पी नहीं लेती।
  • सच तो यह है कि आज़ादी के बाद जेल सुधार के लिये कई समितियाँ बनीं, मसलन-1983 में मुल्ला समिति, 1986 में कपूर समिति और 1987 में अय्यर समिति। पर, इन सारी समितियों के सुझावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यही वज़ह है कि जेलों की हालत बिगड़ती ही चली गई।
  • आए दिन जेलों से कैदियों के संदिग्ध स्थिति में मरने और भागने की खबरें आती रहती हैं। जाहिर है, इनके पीछे मूल वज़ह जेलों की बदइंतजामी ही होती है। लिहाज़ा, यह ज़रुरी है कि सरकार न्यायालयों और रिपोर्ट्स के सुझावों को अमल में लाए।
    इसके अलावा, कैदियों के सुधार के लिये एक ऐसा बोर्ड बनाया जाना चाहिये जिसमें समाज के प्रबुद्ध लोग शामिल हों। ताकि उनके ज़रिये मॉडल जेल मैन्युअल को लागू कराया जाए और कैदियों के सुधार में सहयोग मिल सके। साथ ही, जेलों में कैदियों के कौशल विकास की व्यवस्था की जाए, ताकि बाहर निकलने के बाद उन्हें आजीविका संबंधी समस्या का सामना न करना पड़े।

समझना होगा कि एक जीवित व्यक्ति, चाहे वह जेल में हो या जेल से बाहर, उसे पूरी तरह से सम्मान से जीने का अधिकार है। यह सच है कि जेल की खुद में एक अलग दुनिया होती हैं। लेकिन, अगर वह इतनी अलग हो कि अमानवीय यातना की जगह में तब्दील हो जाए और इंसान को सुधारने की बजाय अंतहीन पीड़ा व सिर्फ दुखद यादों का ज़रिया बन जाए तो, उसे फौरन बदलने की ज़रूरत है। जेल का मतलब हर तरह की हिंसा, अवसाद और दूसरी नकारात्मकता से निजात दिलाना होना चाहिये। लिहाज़ा, न्याय का शासन वास्तविक रूप में स्थापित करने के लिये जेल-सुधार समय की मांग है।

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