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ग्रीष्म लहर (हीट वेव्स)

  • 04 Jan 2019
  • 7 min read

प्रस्तावना

  • ग्रीष्म लहर असामान्य रूप से उच्च तापमान की वह स्थिति है, जिसमें तापमान सामान्य से अधिक रहता है और यह मुख्यतः देश के उत्तर-पश्चिमी भागों को प्रभावित करता है।
  • ग्रीष्म लहर मार्च-जून के बीच चलती है परंतु कभी-कभी जुलाई तक भी चला करती है। ऐसे चरम तापमान के परिणामतः बनने वाली वातावरणीय स्थितियाँ तथा अत्यधिक आर्द्रता से लोगों पर पड़ने वाले शारीरिक दबाव बेहद दुष्प्रभावी होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप यह जानलेवा भी साबित हो सकती है।

भारतीय मौसम विभाग ने ग्रीष्म लहर से प्रभावित क्षेत्र के संबंध में निम्नलिखित मानदंड तय किये हैं-

  • ग्रीष्म लहर प्रभावित क्षेत्र घोषित किये जाने के लिये किसी क्षेत्र का अधिकतम तापमान मैदानी इलाके के लिये कम-से-कम 40 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ी इलाके के लिये कम-से-कम 30 डिग्री सेल्सियस होना चाहिये।
  • जब किसी क्षेत्र का अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस या उससे कम हो, ग्रीष्म लहर का सामान्य से विचलन 5 डिग्री सेल्सियस से 6 डिग्री सेल्सियस हो और प्रचंड ग्रीष्म लहर का सामान्य से विचलन 7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक हो।
  • जब किसी क्षेत्र का अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो, ऊष्मा तरंग का सामान्य से विचलन 4 डिग्री सेल्सियस से 5 डिग्री सेल्सियस हो और प्रचंड ग्रीष्म लहर का सामान्य से विचलन 6 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक हो। 
  • वास्तविक अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक बने रहने पर उस क्षेत्र को ग्रीष्म लहर प्रभावित क्षेत्र घोषित कर दिया जाना चाहिये, चाहे अधिकतम तापमान कितना भी रहे।

ग्रीष्म लहर और जलवायु परिवर्तन

  • ऐसा कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन ने पूर्वानुमानों को गलत साबित करते हुए प्राकृतिक सीमाओं को परिवर्तित कर दिया है, जिससे ग्रीष्म लहर की तीव्रता और बारंबारता अधिक हो गई है।
  • वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि से अतिशय मौसमी घटनाओं, जैसे-ऊष्मा तरंगों को और बढ़ावा मिलेगा।
  • भारतीय मौसम विभाग का कहना है कि अल-नीनो की घटना और मानवीय क्रियाकलापों के कारण ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा ही देशभर में ग्रीष्म लहर की बढ़ी हुई बारंबारता और खिचीं हुई अवधि के लिये ज़िम्मेदार है।

ऊष्मा तरंगों के प्रभाव

  • ग्रीष्म लहर से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में सामान्यतः पानी की कमी, गर्मी से होने वाली ऐंठन तथा थकावट और लू लगना आदि शामिल हैं।

♦ गर्मी से होने वाली ऐंठन (हीट क्रेंप्स)- इसके लक्षण हैं- 39 डिग्री सेल्सियस (यानी 102 डिग्री फारेनहाइट) से कम ताप के हल्के बुखार के साथ सूज़न और बेहोशी।
♦ गर्मी से होने वाली थकान (हीट एग्जॉस्शन)- थकान, कमज़ोरी, चक्कर, सिरदर्द, मितली, उल्टियाँ, मांसपेशियों में खिचाव और पसीना आना इसके कुछ लक्षण हैं।
♦ लू लगना या हीट स्ट्रोक- यह एक संभावित प्राणघातक स्थिति है। जब शरीर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस यानी 104 डिग्री फॉरेनहाइट या उससे अधिक हो जाता है तो उसके साथ अचेतना, दौरे या कोमा भी हो सकता है।

  • विनाशकारी रूप से फसल का नष्ट होना, हाइपरथर्मिया से मृत्यु और व्यापक रूप से बिजली की कटौती आदि ग्रीष्म लहर के कुछ अन्य प्रभाव हैं।

क्षति कम करने के लिये ओडिशा मॉडल

  • 1998 में बड़ी संख्या में हुई मौतों के बाद ओडिशा सरकार इसे चक्रवात या बड़े स्तर की आपदा के रूप में देखती है।
  • अप्रैल-जून के दौरान राज्य-स्तर और जिला-स्तर के आपदा केंद्रों के द्वारा भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के तापमान पूर्वानुमान की लगातार निगरानी की जाती है। वे तब स्थानीय स्तर पर ऊष्मा तरंगों से निपटने की रणनीति बनाते हैं।
  • सरकार द्वारा किये गए उपायों में कुछ इस प्रकार हैं- विद्यालयों, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों का कार्य समय सुबह-सुबह का करना, सार्वजनिक वेतन कार्यक्रम, जैसे-मनरेगा पर रोक, दिन के विभिन्न घंटों में सार्वजनिक यातायात सुविधा को बंद करना इत्यादि।
  • इसके अतिरिक्त राज्य सरकार ग्रीष्म लहर का सामना करने के लिये लोगों में जागरूकता लाने हेतु विज्ञापन लगाती है, ऊष्मा तरंगों या लू के मरीजों के इलाज के लिये अस्पतालों में अतिरिक्त साधन उपलब्ध करवाए जाते हैं और नागरिक समाज संगठन जागरूकता फैलाने का कार्य करते हैं।

आगे का रास्ता

  • जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्म लहर वैश्विक रूप से तीव्र होने वाली है और दैनिक उच्चतम तापमान अधिक और लंबी अवधि के लिये होगा।
  • ग्रीष्म लहर के विपरीत प्रभावों और उनके कारण होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या को कम करने के लिये, दीर्घावधि उपायों के साथ-साथ अल्पावधि क्रियान्वयन योजनाओं को भी लागू करना होगा।
  • जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिये स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय सरकारों की तत्परता के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता और सहयोग ही मुख्य निर्धारक सिद्ध होंगे।
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