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महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट्स की जिस्ट

आपदा प्रबंधन

संकट प्रबंधन

  • 21 Oct 2019
  • 104 min read

‘संकट’ शब्द से तात्पर्य एक अस्थिर अथवा संकटकालीन समय अथवा कार्य दशा से है, जिसमें अत्यधिक अवांछनीय परिणाम की स्पष्ट संभावना से एक निर्णायक परिवर्तन होता है। लोक नीति के परिप्रेक्ष्य में, किसी घटना को संकट की स्थिति कहा जा सकता है, यदि उसमें मानव जीवन और संपत्ति को खतरा होता है अथवा सामान्य जीवन में बड़े पैमाने पर बाधा उत्पन्न होती है। इस प्रकार ‘संकट’ की परिभाषा प्राकृतिक अथवा मानवीय क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाली एक अपात-स्थिति है, जिससे मानव जीवन और संपत्ति को खतरा उत्पन्न होता है अथवा जिससे सामान्य जीवन में बड़े पैमाने पर बाधा उत्पन्न होती है, के रूप में दी जा सकती है।

संकट की विभिन्न श्रेणियाँ

(Categories of Crisis)

संकट को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. प्रकृति द्वारा उत्पन्न संकट।
  2. पर्यावरणीय ह्रास और पारिस्थितिकीय संतुलन में गड़बड़ी द्वारा उत्पन्न संकट।
  3. दुर्घटनाओं द्वारा उत्पन्न संकट। इन्हें आगे औद्योगिक, न्यूक्लियर दुर्घटनाओं और अग्नि संबद्ध दुर्घटनाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  4. जैविक कार्यकलापों से उत्पन्न संकट: लोक स्वास्थ्य संकट, महामारियाँ आदि।
  5. हिंसक तत्त्वों द्वारा उत्पन्न संकट: युद्ध, आतंकवाद, उग्रवाद, घुसपैठ आदि।
  6. संचार प्रणाली सहित मुख्य अवसंरचना सुविधाओं में बाधा/विफलता बड़े स्तर पर हड़ताल आदि से उत्पन्न संकट और
  7. अनियांत्रित भीड़ द्वारा उत्पन्न संकट।

संकट/आपदा प्रबंधन के चरण

(Phase of Crisis/Disaster Managment)

संकट पूर्व : तैयारी (Pre-Crisis Preparedness)

  1. यह ऐसी अवधि है जब संभावित खतरे के जोखिम और सुभेद्यता का आकलन कर संकट के निवारण तथा इसके वास्तविक स्वरूप को कम करने के लिये उपाय किये जा सकते हैं। इनमें बाढ़ रोकने के लिये बांध के निर्माण, सिंचाई सुविधाएँ सृजित करने अथवा बढ़ाने, भूस्खलन की घटना कम करने के लिये वृक्षारोपण करने, भूकंप-रोधी संरचनाओं के निर्माण और सुदृढ़ पर्यावरण प्रबंधन जैसे दीर्घावधिक निवारण उपाय शामिल हैं।
  2. संकट को कई अल्पावधिक उपायों के माध्यम से भी कम किया जा सकता है, जो या तो खतरे की सीमा और तीव्रता को कम अथवा संशोधित कर सकते हैं अथवा जोखिम व प्रबंधन की क्षमता को सुधार सकते हैं, उदाहरणार्थ- भवन संहिताओं को बेहतर ढंग से लागू करना, आंचलिकरण विनियम (Zoning Regulations), जल निकासी प्रणालियों का उचित रख-रखाव, खतरों के जोखिम को कम करने के लिये बेहतर जागरूकता और जन शिक्षा अभियान आदि।
  3. विभिन्न श्रेणियों की आपदाओं को कम करने के उपाय भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परंतु इस बात पर बल दिये जाने की आवश्यकता है कि विभिन्न उपायों के साथ प्राथमिकता और उनका महत्त्व रेखांकित किया जाए। इसके लिये एक उपयुक्त कानूनी और प्रचालनात्मक ढाँचा अनिवार्य है।

संकट के दौरान आपातकालीन प्रत्युत्तर

(During Crisis-Emergency Response)

इस चरण में कई प्राथमिक क्रियाकलाप अनिवार्य हो जाते हैं। इसमें निकासी, खोज, बचाव और उसके बाद की बुनियादी आवश्यकताँ (भोजन, वस्त्र, आश्रय स्थल और दवाईयाँ) प्रभावित समुदाय का जीवन सामान्य करने के लिये जरूरी हैं।

संकट - पश्चात् (Post-Crisis)

सुधार: यह ऐसा चरण है जब शीघ्र समाधान प्राप्त करने और सुभेद्यता तथा भावी जोखिम कम करने के लिये प्रयास किये जाते हैं। इसमें वे कार्यकलाप शामिल होते हैं जो पुनर्वास और पुनर्निर्माण के दो चरणों को सम्मिलित करते हैं। जो निम्नलिखित हैं-

  1. पुनर्वास
  2. पुनर्निर्माण

Crisis Management

आपदा जोखिम की कमी का ढाँचा

(Disaster Risk Reduction Framework)

  1. जोखिम प्रबंधन के लिये नीति
  2. खतरा विश्लेषण और असुरक्षा सहित जोखिम का आकलन
  3. जोखिम के प्रति जागरूकता और जोखिम कम करने के लिये योजनाएँ तैयार करना
  4. योजना का क्रियान्वयन
  5. शीघ्र चेतावनी प्रणालियाँ
  6. ज्ञान का प्रयोग

प्राकृतिक आपदा को कम करने पर विश्व सम्मेलन, योकोहामा, 1994

(World Conference on Natural Disaster Reduction YoKohama-1994)

  • यह आपदा प्रबंधन की दिशा में पर्याप्त और सफल नीतियाँ और उपाय अपनाने के लिये अपेक्षित कदम है।
  • आपदा निवारण और उसके लिये तैयारी आपदा राहत की आवश्यकता कम करने में प्राथमिक महत्त्व रखती है।
  • आपदा निवारण और तैयारी की राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर विकास की नीति और योजना का अभिन्न पहलू माना जाना चाहिये।
  • आपदाओं के निवारण, कम करने और प्रशासन के लिये क्षमताओं का विकास और सुदृढ़ीकरण ध्यान देने का उच्च प्राथमिकता वाला क्षेत्र हैं ताकि आईडीएनडीआर के लिये अनुवर्ती कार्यकलापों हेतु सुदृढ़ आधार प्रदान किया जा सके।
  • आसन्न आपदाओं की शीघ्र चेतावनी और उनका प्रभावी प्रचार सफल आपदा निवारण और तैयारी के लिये मुख्य कारक हैं।
  • निवारक उपाय सर्वाधिक प्रभावी होते हैं जब उनमें राष्ट्रीय सरकार से क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक स्थानीय समुदाय के सभी स्तरों पर भागीदारी शामिल होती है।
  • संपूर्ण समुदाय की उपयुक्त शिक्षा और प्रशिक्षण द्वारा लक्षित समूहों पर ध्यान केंद्रित उचित डिजाइन और विकास की पद्धतियों के प्रयोग द्वारा असुरक्षा कम की जा सकती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय समुदाय आपदा के निवारण, उसकी कमी और प्रशासन के लिये आवश्यक प्रौद्योगिकी की भागीदारी करने की आवश्यकता स्वीकार करता है।
  • निर्धनता उन्मूलन के संगत सतत् विकास के संघटक के रूप में पर्यावरणीय संरक्षण प्राकृतिक आपदाओं के निवारण और प्रशासन में अनिवार्य है।
  • प्रत्येक देश अपने लोगों, अवसंरचना और अन्य राष्ट्रीय परिसंपत्तियों का प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से संरक्षण के लिये प्राथमिक रूप से उत्तरदायी होता है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को विकासशील देशों, विशेषकर कम विकसित देशों का आवश्यकताओं के ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आपदा की कमी के क्षेत्र में वित्तीय, वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय साधनों सहित मौजूदा संसधानों के सक्षम प्रयोग के लिये अपेक्षित सुदृढ़ राजनीतिक संकल्प प्रदर्शित करना चाहिये।

यद्यपि संकट प्रबंधन के स्थूल सिद्धांत आपदाओं की विभिन्न किस्मों पर लागू है; फिर भी प्रत्येक श्रेणी की आपदा अपनी विशिष्ट विशेषताएँ होती हैं; जिन्हें संकट प्रबंधन प्रयासों में शामिल करना आवश्यक है।

भूकंप (Earthquakes)

पर्वतीय शृंखलाओं में सबसे युवा पर्वत हिमालय है जो अभी तक विकसित हो रहा और संरचनात्मक संचलनों से समायोजन कर रहा है। इसके पश्चिम और पूर्व में स्थित दो मुख्य भ्रंश रेखाओं (Fault lines) की मौजूदगी से हिमालय के कई भागों और उसके आसपास के क्षेत्रों में बहुत गंभीर भूकंप हुए हैं। यह चौदह राज्यों (पश्चिमी और मध्य हिमालय क्षेत्र, पूर्वोत्तर और भारत-गंगा पठार के भागों में स्थित) को शामिल करते आएं संपूर्ण क्षेत्र को भूकंप-प्रवण बना देता है। पर्वतीय क्षेत्र भूकंप-प्रेरित भूस्खलन प्रवण भी हैं। देश के अन्य भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्रों में पश्चिमी गुजरात में खंभात की खाड़ी और कच्छ का क्षेत्र, प्रायद्वीपीय भारत के भाग, लक्षद्वीप और अंडमान तथा निकोबार द्वीपसमूह शामिल हैं।

चक्रवात (Cyclones)

पूर्व और पश्चिम में 8000 किमी. से अधिक की तटीय सीमा तीव्र चक्रवातों और मानसून के पूर्व और पश्चात् संबद्ध तूफान और भारी वर्षा के खतरों का सामना करती है। मानसून-पूर्व चक्रवात संख्याओं और तीव्रता दोनों में प्राय: अधिक तीव्र होते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि चक्रवाती तूफानों के 58 प्रतिशत से अधिक, जो बंगाल खाड़ी में उत्पन्न होते हैं, अक्तूबर और नवंबर में पूर्वी तट के समीप पहुँचता अथवा उसे पार करते हैं। अरब सागर पर जो तूफान उत्पन्न होते हैं उनका केवल 25 प्रतिशत ही पश्चिमी तट को प्रभावित करता है।

सुनामी (Tsunamis)

सुनामी तरंगे समुद्र की सतह पर जल की बड़ी मात्रा को विस्थापित करती हैं, अचानक हुए इस विस्थापन से ऊँची तरंगे उत्पन्न होती हैं। यद्यपि, ये प्राय: भूकंप के साथ जुड़ी होती है परंतु सुनामी उप-समुद्री अथवा पृथ्वी के भूस्खलन, ज्वालामुखी के विस्फोटों अथवा यहाँ तक कि उल्कापात (अर्थात् तारों, उल्कापिंड, पुच्छलतारा) जैसी घटनाओं के प्रभावों से भी हो सकते हैं।

बाढ़ (Floods)

भारत में बाढ़ लगभग 10 प्रतिशत क्षेत्र को प्रभावित करते हुए नियमित रूप से आती है। बाढ़ शब्द का प्रयोग साधारणतया तब किया जाता है जब नदियों, झरनों और अन्य जलस्रोतों में जल प्रवाह को प्राकृतिक अथवा कृत्रिम बांधों के भीतर नहीं रखा जा सकता है।

किसी भी स्थान में बाढ़ आने की गंभीरता वर्षा की तीव्रता और सीमा तथा जलग्रहण क्षेत्र की पूर्व दशाओं नदी की भौतिक विशिष्टता भू-स्थलाकृति आदि जैसे कारकों का कार्य है। कई मामलों में बाढ़ आने की प्राकृतिक प्रक्रिया को बाढ़ के जल को कृषि क्षेत्रों और विशेषकर शहरी क्षेत्रों दोनों में आयोजनाबद्ध अथवा अनधिकृत निर्माण कार्यकलापों से स्वतंत्र रूप से बाहर प्रवाहित/अवशोषित करने में मानव निर्मित बाधाओं, उर्ध्वप्रवाह जलाशयों से अचानक भारी मात्रा में जल छोड़ने जो प्राय: नदी घाटी की वहन क्षमता से अधिक होता है, से नदी के तटबंध नष्ट होते हैं और अधोप्रवाह बाढ़ आती है।

बाढ़ नियंत्रण और प्रबंधन

  • प्रत्येक बाढ़-प्रवण क्षेत्र के लिये बाढ़ नियंत्रण और प्रबंधन की एक प्रभावी योजना होनी चाहिये।
  • आवश्यकतानुसार बेहतर बाढ़ प्रबंधन को सुविधाजनक बनाने के लिये पर्याप्त बाढ़ सुरक्षा तंत्र स्थापित करना चाहिये। अत्यधिक बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में सिंचाई अथवा विद्युत संबंधी लाभों का त्याग करते हुए जलाशय विनियमन नीति में बाढ़ नियंत्रण को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिये।
  • जबकि तटबंध और कुंडों जैसे भौतिक बाढ़ संरक्षण कार्यक्रम महत्त्वपूर्ण बने रहेंगे वहीं बाढ़ का पूर्वानुमान करने और चेतावनी देने, क्षति को न्यूनतम करने और बाढ़ राहत पर आवर्ती व्यय कम करने के लिये बाढ़ प्रवण क्षेत्रों का क्षेत्रीकरण और बाढ़ रोधन जैसे असंरचनात्मक उपायों पर वर्धित बल दिया जाना चाहिये।
  • बाढ़ के कारण जान और माल की क्षति को न्यूनतम करने के लिये बाढ़ रोधन के साथ बाढ़ प्रवण क्षेत्र में स्थापन और आर्थिक कार्यकलाप का सख्त विनियमन होना चाहिये।
  • बाढ़ पूर्वानुमान कार्यकलापों को आधुनिकीकृत व मूल्यवर्द्धित कर शेष शामिल नहीं किये गए क्षेत्रों तक विस्तारित किया जाना चाहिये। जलाशयों के अंतर्प्रवाह पूर्वानुमान को उनके प्रभावी विनियमन के लिये संस्थागत किया जाना चाहिये।

भूस्खलन और हिमस्खलन

(Landslides and Avalanches)

भूस्खलन चट्टानों, मलबे अथवा मिट्टी का पर्वतों की ढलान से नीचे नदी तटों की ओर बड़ी मात्रा में संचलन है। ऐसा संचलन धीरे-धीरे हो सकता है परंतु भूस्खलन अचानक और चेतावनी के बिना भी हो सकता है। वे प्राय: भूकंप, बाढ़ और ज्वालामुखी के फटने के साथ होते हैं। कभी-कभी दीर्घकालीन वर्षा से होने वाले अत्यधिक भूस्खलन कुछ समय के लिये नदियों का प्रवाह रोक देते हैं, जो अचानक टूटने पर नीचे मानव आबादी पर कहर ढा सकते हैं।

भारत में पर्वतीय विशेषकर हिमालय और पश्चिमी घाट के क्षेत्र भूस्खलन से सर्वाधिक असुरक्षित हैं। भूस्खलन को नियंत्रित करने के उपायों में खतरा-प्रवण क्षेत्रों में निवासस्थलों को विनियमित करने के लिये सूक्ष्म क्षेत्रीकरण; प्राकृतिक जलमार्गों के साथ हस्तक्षेप नहीं करना, गहरी ढलानों के लिये प्रतिधारण दीवारों का निर्माण और कमजोर क्षेत्रों का सुदृढ़ीकरण शामिल हैं। भारत में भूस्खलन अध्ययन के कई अनुसंधान और शैक्षणिक संस्थानों हैं। यद्यपि इन संस्थानों तथा प्रयोक्ता एजेंसियों के बीच भी बेहतर समन्वय होने की आवश्यकता है।

पर्वतीय ढलान पर बर्फ के पहाड़ों के खिसकने से हिमस्खलन होता है। हिमस्खलन पर्वत की ढलान, बर्फ के आवरण की गहराई; वायु की गति और मौसम, तापक्रम, तोप अथवा बंदूक चलने से हुए कंपन और वृक्षों तथा झाड़ियों के आच्छादन जैसे प्रतिरोधी बलों की सुदृढ़ता जैसे कारकों के संयोजन से हो सकता है।

औद्योगिक आपदाएँ (Industrial Disasters)

मानव निर्मित आपदाओं में संभवत: सर्वाधिक हानिकारक (युद्ध के बाद) औद्योगिक आपदाएँ हैं। ये आपदाएँ दुर्घटना अथवा लापरवाहीहेलना के कारण रासायनिक, यांत्रिक, सिविल, विद्युतीय अथवा अन्य प्रक्रियाओं की विफलता से किसी औद्योगिक संयंत्र में हो सकती है, जिनसे संयंत्र के भीतर और/अथवा बाहर व्यापक क्षति हो सकती है। वैश्विक रूप से इसका सबसे खराब उदाहरण भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से वर्ष 1984 में मिथाइल आइसो-साइनाइट गैस का रिसाव (जिसका उल्लेख भोपाल गैस त्रासदी के रूप में किया गया है) था।

महामारी (Epidemics)

भारत में महामारियों के मुख्य स्रोतों को मोटे तौर पर निम्नलिखित रूप में श्रेणीकृत किया जा सकता है: (क) हैजा (और गैस्ट्रोएंट्राइटिस के रूप), टाइफॉइड, हेपेटाइटिस ए, हेपेटाइटिस बी आदि जैसी जल से उत्पन्न होने वाली बीमारियाँ ऐसी बीमारियों की महामारियों को पूर्व में दर्ज किया गया है और वे होना जारी हैं; (ख) वेक्टर-जनित (प्राय: मच्छरों से होने वाली) महामारी जैसे डेंगू बुखार, चिकनगुनिया बुखार, जापानी इन्सेफलाइटिस, मलेरिया, कालाजार आदि जो प्राय: देश के कतिपय भाग में होते हैं; (ग) व्यक्ति से व्यक्ति को संचारित बीमारियाँ अर्थात् एड्स और अन्य यौन बीमारियाँ; और (घ) इंफ्लूएंजा और खसरा जैसी वायु से उत्पन्न बीमारियाँ जो प्रयोग में लाए वस्त्रों से उत्पन्न होती हैं।

न्यूक्लीय खतरे (Nuclear Hazards)

परमाणु ऊर्जा विभाग को सरकारी क्षेत्र में मानव-निर्मित विकिरण वैज्ञानिक आपातस्थितियों के संबंध में देश में नोडल एजेंसी के रूप में अभिज्ञात किया गया है। जनता और पर्यावरण के लिये सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु भारत में न्यूक्लीय सुविधाओं ने अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत दिशा-निर्देश अपनाए हैं। न्यूक्लीय खतरे पर ध्यान रखने के लिये एक संकट प्रबंधन प्रणाली भी मौजूद है।

मरुभूमि की टिड्डिया (Desert loctusts)

सिस्टोसेरका ग्रेगेरिया निसंदेह टिड्डियों की प्रजातियों में सर्वाधिक खतरनाक है। अनुकूल पर्यावरणीय दशाओं के अधीन ये नाटकीय रूप से कई गुणा बढ़ सकते हैं, अत्यधिक दूरी तक विस्थापित होने की क्षमता के साथ ही मध्य-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम एशिया के बड़े भाग में कृषि को खतरा उत्पन्न करने के लिये विशाल झुंड बनाने में समर्थ है।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग टिड्डी नियंत्रण के लिये प्रभावी कार्यनीति के केंद्र में निहित है, जिसके परिणामस्वरूप, टिड्डी प्रबंधन निर्णय राष्ट्रीय एजेंसियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों (जिसमें मरुभूमि में टिड्डियों और मौसम का उनके कृषि क्षेत्र में पहुँचने से पूर्व नियमित रूप से अनुवीक्षण शामिल है) द्वारा संग्रहित और आदान-प्रदान की गई सूचनाओं पर आधारित है। यह कार्यनीति काफी प्रभावी सिद्ध हुई है क्योंकि विभिन्न देशों ने यह स्वीकार किया है कि मरुभूमि की टिड्डियों के विरुद्ध लड़ने में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग महत्त्वपूर्ण है।

धीमी गति से प्रारंभ होने वाली आपदाएँ (Slow Onset Disasters)

भूकंप, चक्रवात, बाढ़, सूनामी तीव्र गति से प्रारंभ होने वाली आपदाओं की श्रेणी में आएंगे। मौसम में परिवर्तन (वैश्विक उष्मन), मरुभूमिकरण, मृदा अवनमन और सूखा धीमी गति से प्रारंभ होने वाली आपदाओं की श्रेणी में आएंगे। धीमी गति से प्रारंभ होने वाली आपदाओं को धीरे-धीरे आने वाली आपात स्थिति भी कहा जाता है। यह कहा जा सकता है कि प्रबंधन चक्र का एक अभिन्न भाग होने वाले निवारण से वैश्विक उष्मन और मरुभूमिकरण जैसे धीमी गति से प्रारंभ होने वाली आपदाओं को आपदा की तैयारी में पर्याप्त रूप से प्रदर्शित किया जाना चाहिये। ये घटनाएँ धीरे-धीरे पारिस्थितिकी प्रणाली की सुदृढ़ता नष्ट करती है और समाज को प्राकृतिक कठिनाईयों के समक्ष खड़ा कर देती है।

ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण हुआ वैश्विक उष्मन वातावरण में परिवर्तन के मुख्य कारणों में से एक है। वैश्विक उष्मन से ग्लेशियर पिघलते हैं, समुद्र की सतह में वृद्धि होती है और निचले तटीय क्षेत्रों जैसे सुंदरवन क्षेत्र तथा बांग्लादेश तथा मालदीव जैसे राष्ट्रों को खतरा उत्पन्न होता है। हाल ही में हुई अप्रत्याशित बेमौसम वर्षा और सूखे से वैश्विक उष्मन बढ़ा है।

सूखा (Drought)

सूखे का अर्थ मुख्यत: वर्षा की कमी के कारण जल की उपलब्धता में कमी है, जो कृषि, पेय जलापूर्ति और उद्योगों को प्रभावित करता है। भारत में सूखे की अपनी विशिष्टताएँ हैं, जिनके कुछ मूलभूत तथ्यों पर विचार करना अपेक्षित है। ये निम्नानुसार है:

  • भारत में लगभग 1150 मिमी. की औसत वार्षिक वर्षा होती है, जिनके लिये कुछ इतना अधिक वार्षिक औसत नहीं है; तथापि, काफी वार्षिक भिन्नता होती है।
  • 80 प्रतिशत से अधिक वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून के दौरान 100 से कम दिनों में होती है और इसका भौगोलिक विस्तार असामान्य है।
  • 21 प्रतिशत क्षेत्र में वार्षिक रूप से 700 मिमी. से कम वर्षा होती है, जो ऐसे क्षेत्रों को सूखे का संभावित स्थल बना देती है।
  • प्रतिकूल भूमि-मानव अनुपात के साथ वर्षा की अपर्याप्तता देश के बड़े भाग में किसानों को वर्षा-पोषित कृषि करने के लिये बाध्य करती है।
  • भू-जल का प्रयोग करते हुए सिंचाई दीर्घावधि में स्थिति गंभीर बना देती है क्योंकि भू-जल का दोहन पुन: पूर्ति से अधिक हो जाता है; प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूजल की उपलब्धता वर्षा की अपर्याप्तता वाले क्षेत्रों में कम हो जाती है।
  • देश में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता स्थिर रूप से घट रही है।
  • 1953 घन किमी. की कुल वार्षिक जल उपलब्धता की तुलना में, जल का लगभग 600 घन किमी. और भूजल संसाधनों से 396 घन किमी. का प्रयोग किया जा सकता है। अभी तक लगभग 600 घन किमी. की मात्रा का प्रयोग किया गया है।
  • पारंपरिक जल कृषि प्रणालियाँ मोटे तौर पर छोड़ दी गई हैं।

मरुस्थलीकरण और मृदा अवक्रमण

(Desertification and Soil Degradation)

भूमि अवक्रमण के किसी भी भाग को मरुस्थलीकरण कहा जा सकता है। यह मृदा क्षरण, मृदा में बढ़ती हुई क्षारीयता और जल-जमाव के कारण हो सकता है। भूमि अवक्रमण द्वारा देश का एक-तिहाई क्षेत्र प्रभावित है। भारत में कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 8.6 मिलियन हेक्टेयर जल क्षारीयता और लवणीयता की दोहरी समस्याओं से ग्रस्त है, जो गंभीर रूप से कृषि उत्पादकता कम कर देती है और इससे हमारी खाद्य सुरक्षा प्रणाली के लिये गंभीर जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं।

समुद्री क्षरण (Sea Erosion)

तरंगों और लहरों से उत्पन्न बल द्वारा तटरेखा का भूमि की ओर विस्थापन क्षरण कहलाता है। तटीय क्षरण उस समय होता है जब वायु तरंगे और दीर्घ तटीय तरंगे तट से रेत लाती है और उसे कहीं अन्यत्र जमा करती हैं। रेत गहरे समुद्री तल तक, समुद्री खाई में अथवा भूमि के किनारे तक ले जाया जा सकता है। रेत-अंतरण प्रणाली से रेत हटाने से तट के आकार और संरचना में स्थायी परिवर्तन होता है। प्रभाव देखने में महीनों अथवा वर्षों लग जाते हैं। इसलिये इसे साधारणतया दीर्घावधिक तटीय खतरे के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत की मुख्य भूमि की 5423 किलोमीटर की तटरेखा का लगभग 23 प्रतिशत भाग क्षरण से प्रभावित हो रहा है, जो लगभग 1248 किलोमीटर का क्षेत्र है इसमें से केरल के 569 किलोमीटर की तटरेखा में से 480 किलोमीटर तक का भाग प्रभावित है।

समुद्र क्षरण के रोकथाम उपायों में (i) समुद्री दीवार; (ii) ओट, (iii) शिलाखंड, (iv) पलस्तर लगाना, (v) चट्टान के रोधक और (vi) अपतटीय चट्टानी बाधाएँ शामिल हैं। महासागर विकास विभाग ने कई तटरेखा प्रबंधन परियोजनाएँ प्रारंभ की है। राज्य सरकारों ने भी समुद्र-क्षरण-रोधी निर्माण कार्यों का क्रियान्वयन प्रारंभ किया है।

भारत में संकट/आपदा प्रत्युत्तर कार्यतंत्र

(Crisis/Disaster Response Mechanism in India)

अर्थशास्त्र, (चौथी सदी ईसा पूर्व में चाणक्य द्वारा लोक प्रशासन पर लिखी गई एक पुस्तक) ने सूखे का सामना करने के लिये प्रशमन उपायों को एक खंड समर्पित किया है। पहले सूखा आयोग ने सूखे से रक्षोपाय के रूप में कृषि उत्पादन सुधारने तथा साथ ही वर्षा की बारंबार विफलता द्वारा हुए अत्यधिक अभाव से निपटने के लिये प्रारंभिक उपाय करने के लिये सूखा संहिता तैयार करने और प्रांतों में कृषि विभागों की स्थापना का सुझाव दिया था।

राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन पर आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अधिनियमित किया गया था। कई राज्यों ने भी राष्ट्रीय अधिनियम के पूर्व आपदा प्रबंधन पर स्वयं अपने विधान भी पारित किये थे।

प्रत्युत्तर कार्यतंत्र (The Response Mechanism)

किसी आपदा के मामले में प्राय: समुदाय ही पहला प्रत्युतर-दाता होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार की ओर से क्षेत्र स्तर का प्रत्युत्तर निकटतम पुलिस स्टेशन और राजस्व पदाधिकारी (पटवारी/पटेल/तलाती/करनाम आदि) द्वारा होता है; शहरी क्षेत्रों में प्रत्युत्तर नागरिक प्राधिकारियों, फायरबिग्रेड और स्थानीय पुलिस स्टेशन द्वारा दिया जाता है।

भारतीय संविधान में संघ और राज्य सरकारों की विशिष्ट भूमिकाओं का वर्णन किया गया है। तथापि आपदा प्रबंधन के विषय का उल्लेख भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की तीन सूचियों में से किसी में भी नहीं किया गया है।

राज्य सरकार की भूमिका (Role of State Government)

भारत में प्राकृतिक विपदाओं की स्थिति में बचाव, राहत और पुनर्वास उपाय करने का बुनियादी उत्तरदायित्व राज्य सरकारों पर है। अधिकांश राज्यों में राहत आयुक्त है, जो राहत और पुनर्वास का प्रभारी होता है। राहत आयुक्त कार्यालय सामान्यतया राजस्व विभाग का सहायक है, जिसका मुख्य कार्य भू-स्वामित्व, भू-राजस्व और ग्रामीण क्षेत्रों में काश्तकारी की शर्तों को प्रशासित करना है। राहत आयुक्त राजस्व विभाग के सचिव के अधीन कार्य करता है। कुछ राज्यों में राजस्व सचिव राहत आयुक्त भी होता है। इसमें जिला समाहर्ताओं और तहसीलदारों, जो प्रशासन की बुनियादी इकाइयों, जिले और उप-जिले में मुख्य क्षेत्र पदाधिकारी होते हैं।

प्रत्येक राज्य में संबंधित विभागों के प्रभारी सचिवों को शामिल करते हुए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में संकट प्रबंधन समिति है जो संकट के समय दिन-प्रतिदिन के आधार पर संकट की स्थितियों की समीक्षा करती है, सभी विभागों के कार्यकलापों को समन्वित करती है तथा जिला प्रशासन को निर्णय समर्थन प्रणाली प्रदान करती है।

जिलाधीश/समाहर्ता पर जिले में आपदा के समग्र प्रबंधन का उत्तरदायित्व होता है। उसे प्रत्युत्तर कार्यतंत्र को एकजुट करने का प्राधिकार है और उसे सामान्य वित्तीय नियम/राजकोषीय संहिताओं के उपबंधों के अधीन धनराशि आहरित करने की वित्तीय शक्तियाँ दी गई है।

जिला समाहर्ता परिस्थितियों के अनुसार सशस्त्र सेनाओं से सहायता का अनुरोध करने का प्राधिकार भी रखता है। गैर-सरकारी संगठन भी हाल के समय में राहत प्रदान करने, बचाव और पुनर्वास कार्यों में प्रभावी रहे हैं।

संघ सरकार की भूमिका (Role of Union Government)

शीर्ष स्तर पर प्राकृतिक आपदा पर मंत्रिमंडल समिति संकट की स्थितियों की समीक्षा करती है। कृषि मंत्री की अध्यक्षता में मंत्रियों की एक उच्च-स्तरीय समिति केंद्रीय राहत निधि के अधीन राज्य सरकारों के पास उपलब्ध निधियों के अपर्याप्त होने पर राष्ट्रीय विपदा आकस्मिकता निधि से राज्य सरकारों को प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता के मुद्दों पर कार्रवाई करती है। परमाणुविक, जैविक और रासायनिक आपातस्थितियों की देख-रेख सुरक्षा पर मंत्रिमंडल समिति द्वारा की जाती है।

उच्चतम कार्यपालक अधिकारी के रूप में मंत्रिमंडल सचिव, राष्ट्रीय संकट प्रबंध समिति (एन.सी.एम.सी.) के प्रमुख होते हैं। एन.सी.एम.सी. संकट की स्थिति का सामना करने के लिये आवश्यक विशिष्ट कार्रवाई के लिये किसी मंत्रालय, विभाग अथवा संगठन को निर्देश दे सकती है।

पूर्व में कृषि और सहकारिता विभाग के पास आपदाओं के प्रबंधन का केंद्रीय उत्तरदायित्व था, परंतु वर्ष 2001 में गुजरात, भूकंप के बाद यह उत्तरदायित्व गृह मंत्रालय को अंतरित कर दिया गया।

आपदा/संकट की किस्म नोडल मंत्रालय
प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाएँ गृह मंत्रालय
सूखा कृषि मंत्रालय
विमान दुर्घटनाएँ नागर विमानन मंत्रालय
रेल दुर्घटनाएँ रेल मंत्रालय
रासायनिक आपदाएँ पर्यावरण मंत्रालय
जैविक आपदाएँ स्वास्थ्य मंत्रालय
न्यूक्लियर दुर्घटनाएँ परमाणु ऊर्जा विभाग

गृह मंत्रालय में कंद्रीय राहत आयुक्त विभिन्न संबंधित मंत्रालयों के नोडल अधिकारियों को शामिल करते हुए संकट प्रबंधन समूह (सी.एम.जी.) का अध्यक्ष है। सी.एम.जी. का कार्य विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और संगठनों द्वारा अपने संबंधित क्षेत्रों में तैयार की गई वार्षिक आकस्मिकता योजनाओं, प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिये अपेक्षित उपायों की समीक्षा, आपदा से निपटने की तैयारी और राहत के संबंध में केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों के कार्यकलापों से सूचना प्राप्त करना है। प्रभावित राज्य के रेजिडेंट आयुक्त को भी ऐसी बैठकों में शामिल किया जाता है।

प्राकृतिक आपदाओं के समय राहत पर व्यय के वित्तपोषण की योजना का नियंत्रण प्रत्येक पाँच वर्ष में भारत सरकार द्वारा नियुक्त वित्त आयोग की सिफारिशों द्वारा किया जाता है। मौजूदा योजना के अधीन प्रत्येक राज्य के पास राज्य सरकार के मुख्य सचिव के नेतृत्वाधीन राज्य स्तरीय, समिति द्वारा प्रशासित आपदा राहत कोष (सी.आर.एफ.) नामक निधियों का संचय होता है। इस संचित निधि का आकार पिछले दो वर्षों में राहत और पुनर्वास पर राज्य द्वारा सामान्यतया किये गए व्यय के संदर्भ में निर्धारित किया जाता है। अगर सी.आर.एफ. के अधीन निधियाँ विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं है तो राज्य सरकारें राष्ट्रीय अधिशासन स्तर पर सृजित राष्ट्रीय आकस्मिकता निधि (ए.सी.सी.एफ.) से सहायता मांग सकती है।

उच्च शक्ति प्राप्त समिति (High Powered Committee)

भारत ने आपदा प्रबंधन पर एक उच्च शक्ति प्राप्त समिति (एच.पी.सी.) का उद्देश्य देश में प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों आपदाओं के प्रभावी प्रबंधन के लिये संस्थात्मक उपायों का सुझाव देना था।

नई संस्थात्मक व्यवस्थाएँ

(New Institutional Arrangments)

  • गुजरात में आए भूकंप के बाद सरकार ने आपदा प्रबंधन प्रणाली को पुनर्जीवित करने के लिये महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय/उपाय किये गए। ये निम्नलिखित हैं:
  • तीव्र गति से आने वाली आपदाओं के संदर्भ में आपदा प्रबंधन कृषि मंत्रालय के सीमाक्षेत्र से गृह मंत्रालय को हस्तांतरित हो गया। कृषि मंत्रालय के पास सूखा, कीट आक्रमण और ओलावृष्टि जैसी आपदाओं के प्रबंधन का उत्तरदायित्व है।
  • राज्य सरकारों को अपने राहत और पुनर्वास विभाग को एक पृथक् आपदा प्रबंधन विभाग में पुनर्गठित करने का सुझाव दिया गया था।
  • राज्य सरकारों को राज्य के कुछ मंत्रियों की अध्यक्षता में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और जिला समाहर्ताओं की अध्यक्षता में जिला आपदा प्रबंधन समिति गठित करने का सुझाव दिया गया था।
  • विभिन्न प्राकृतिक और मानव-निर्मित आपदाओं का प्रत्युत्तर देने के लिये अत्याधुनिक उपस्करों और प्रशिक्षण के साथ गठित राष्ट्रीय आपदा प्रत्युत्तर बल नामक विशिष्ट बल में आठ बटालियनों को शामिल किया गया।
  • राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर आपातकालीन प्रचालन केंद्र (ई.ओ.सी.) के माध्यम से एक उन्नत विफलता-रोधी आपदा संचार नेटवर्क स्थापित किया जाएगा।
  • देश में आपदा प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण, अनुसंधान और प्रलेखीकरण के लिये दिल्ली में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान स्थापित किया गया।
  • स्कूली शिक्षा में आपदा प्रबंधन की बुनियादी विषयवस्तु, अभियांत्रिकी और वास्तुविज्ञान पाठ्यक्रमों में आपदा-रोधी प्रौद्योगिकियाँ, चिकित्सा और नर्सिंग शिक्षा में आपातिक स्वास्थ्य प्रबंधन शामिल किया गया।
  • देश के बहु-खतरों से प्रभािवत जिलों में एक समुदाय-आधारित आपदा जोखिम प्रबंधन कार्यक्रम प्रारंभ किया गया।

Crisis

व्यवहारिक रूप आपदाओं का प्रबंधन करने का प्राथमिक उत्तरदायित्व राज्य सरकारों पर होता है। कृषि मंत्रालय ने समवर्ती सूची में इस विषय पर एक प्रविष्टिी की सिफारिश करने के लिये संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग (एन.सी.आर.सी.डब्ल्यू.) को अनुरोध किया। एन.सी.आर.सी.डब्ल्यू. ने अंतत: निम्नलिखित सिफारिश की:

सिफारिश

एक नई प्रविष्टि ‘आपदाओं और आपात-स्थितियों, (प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित) के प्रबंध को संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची-III (समवर्ती सूची) में शामिल किया जा सकता है।

कानूनी ढाँचा (Legal Framework)

पारंपरिक रूप से संघ और राज्य सरकारों के अनुदेशाधीन जिला प्रशासन आपदा प्रबंधन कार्यकलापों के केंद्रीय बिंदु हैं और शक्तियाँ (औपचारिक और अनौपचारिक) समाहतों में विहित की गई हैं। जहाँ इस विषय पर कोई व्यापक कानून नहीं था, वहीं विशिष्ट प्रकार की आपदा की स्थितियों से संबंधित कानून और विनियम मौजूद थे। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986, जो भूमि, जल और वायु के संरक्षण के लिये नियम निर्धारित करता है और खतरनाक रसायनों का विनिर्माण, भंडारण और ढुलाई नियमावली, 1989 और रासायनिक दुर्घटना (निवारण और तैयारी) नियमावली, 1996 के साथ सूचना साझाकरण के अधिकार को शामिल करता है। इसके अंतर्गत भोपाल त्रासदी के बाद फैक्टरी अधिनियम, 1948 संशोधित किया गया।
  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 जो परमाणु दुर्घटनाओं/आपदाओं के लिये कार्यस्थल और कार्यस्थल से भिन्न स्थलों के लिये आपातस्थिति प्रत्युत्तर योजनाओं की व्यवस्था करता है, के अधीन अधिसूचित नियमों के साथ परमाणु ऊर्जा अधिनियम की रूपरेखा तैयार करता है।
  • राज्य अनिवार्य सेवा अनुरक्षण अधिनियम (एस्मा), जो अनिवार्य सार्वजनिक सेवाओं के क्रियान्वयन के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर नियंत्रण करता है।
  • आपदा प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित विभिन्न विनियम/संहिताएँ/नियम अर्थात् तटीय क्षेत्र विनियम, संहिता निर्माण, अग्नि सुरक्षा नियम आदि।
  • राज्य जन स्वास्थ्य अधिनियम।
  • सार्वजनिक उपद्रव से संबंधित आपराधिक कार्यविधि संहिता का उपबंध
  • सेना अधिनियम, जो संकट के दौरान सेना की सहायता लेने के लिये नागरिक प्रशासन को अधिकार देता है।
  • सार्वजनिक व्यवस्था और स्थानीय सरकारों से संबंधित राज्य के कानून।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 का विश्लेषण

(Analysis of the Disaster Management Act, 2005)

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 आपदा की परिभाषा प्रकृति अथवा मानव-निर्मित घटना के रूप में देता है, जो जान-माल और पर्यावरण के विनाश का कारण बनती है। यह अधिनियम आपदाओं से निपटने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक शक्तियाँ और कार्य संकेंद्रित करता है। इस प्रकार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन.डी.एम.ए.) पर न केवल नीतियाँ, योजनाएँ और दिशा-निर्देश निर्धारित करने बल्कि आपदाओं का सामयिक और प्रभावी प्रत्युत्तर सुनिश्चित करने के लिये कार्यकारी कार्यों का उत्तरदायित्व भी है। राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (एन.ई.सी.), जिसे एन.डी.एम.ए. के अधीन गठित किया जाना है, की अध्यक्षता आपदा प्रबंधन का प्रशासनिक नियंत्रण रखने वाले संघ सरकार के मंत्रालय अथवा विभाग के प्रभारी सचिव द्वारा की जाएगी।

दूसरे शब्दों में, एन.डी.एम.ए. तथा साथ ही राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (एन.ई.सी.) को किसी आपदा के दौरान योजना बनाने, समन्वय करने, अनुवीक्षण करने और सहायता प्रदान करने की ही नहीं बल्कि आपातकालीन राहत और प्रत्युत्तर के क्रियान्वयन से संबद्ध कार्यों की भी भूमिका दी गई है।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संगठन की भूमिका और कार्य

आपदा प्रबंधन कानून अथवा राष्ट्रीय प्रतिरोध उपाय अधिनियम का मुख्य सीमा क्षेत्र आपदा प्रबंधन के समन्वय के लिये एक राष्ट्रीय एजेंसी/संगठन स्थापित करना है।

ऐसे संगठन की भूमिका निम्नलिखित है:

  • तैयारी और प्रशमन से लेकर प्रत्युत्तर और सुधार तक सभी चरणों में आपदा प्रबंधन के लिये एक संगत दृष्टिकोण प्रदान करना
  • साचा ढाँचा प्रदान करना
  • स्पष्टतया उत्तरदायित्व आवंटित करना
  • समन्वित प्रत्युत्तर के लिये ढाँचा प्रदान करना

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संगठन (एन.डी.एम.ओ.) का अभिप्राय: निम्नलिखित नहीं है:

  • सामान्य सरकार का दूसरा रूप बनाना
  • सरकार से स्वतंत्र कार्य करना
  • अन्य एजेंसियों का नियंत्रण करना

आपदा प्रबंधन अधिनियम देश में आपदा प्रबंधन की एकीकृत संरचना हैं। एन.डी.एम.ए. और एन.ई.सी. न केवल राष्ट्रीय योजनाओं और संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों की योजनाओं को अनुमोदित करेंगे बल्कि वे राज्य प्राधिकारियों के लिये दिशा-निर्देश, आपदा प्रबंधन की नीतियों और योजनाओं को लागू करने का समन्वय और कार्यान्वयन तथा सामाजिक प्रत्युत्तर भी सुनिश्चित करेंगे।

अंतर्राष्ट्रीय पद्धतियाँ भी सामान्यता आपदाओं से निपटने के लिये आदेश और नियंत्रण कार्यों के साथ केंद्रीयकृत प्राधिकरण स्थापित करने के पक्ष में होती हैं। आयोग ने प्रशासनिक दृष्टिकोण से सावधानीपूर्वक मुद्दों पर विचार किया है और इसका मत है कि आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को पर्याप्त संशोधनों की अपेक्षा है। जिससे इसे संघ, राज्य, जिला और स्थानीय स्तरों पर आपदाओं से निपटने के लिये एक संगत और व्यावहारिक ढाँचा प्रदान किया जा सकें।

सिफारिशें

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 (केंद्रीय अधिनियम) को निम्नलिखित विशेषताएँ शामिल करने के लिये संशोधित किये जाने की आवश्यकता है:

क. आपदा/संकट प्रबंधन को राज्य सरकारों का प्राथमिक उत्तरदायित्व बनाए रखा जाना चाहिये और संघ सरकार को एक समर्थनकारी भूमिका निभानी चाहिये।
ख. अधिनियम को आपदाओं का वर्गीकरण (स्थानीय, जिला, राज्य अथवा राष्ट्रीय स्तर) प्रदान करना चाहिये। आपदाओं की तीव्रता के अनुसार यह वर्गीकरण आपदा से निपटने के लिये प्राथमिक रूप से उत्तरदायी प्राधिकारी तथा प्रत्युत्तर और राहत की मात्रा निर्धारित करने में सहायता करेगा - इस विषय पर विस्तृत दिशा-निर्देश एन.डी.एम.ए. द्वारा निर्दिष्ट किये जाएँ।
ग. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का कार्य नीतियों की सिफारिश करना, विभिन्न आपदा प्रबंधन योजनाएँ और मानव प्रचालक कार्यविधियाँ तैयार करने के लिये दिशा-निर्देश निर्धारित करना; असुरक्षा अध्ययन का संवर्धन और आयोजन, अनुसंधान और मूल्यांकन; वर्गीकरण के मानकों, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय आपदाओं की घोषणा पर सुझाव देना; संकट/आपदा के क्षेत्र में विशेषज्ञता और ज्ञान विकसित करना तथा इसे क्षेत्र में प्रसारित करना; प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम विकसित और आयोजित करना; शीघ्र चेतावनी प्रणालियों का समन्वय करना; स्थानीय/राज्य सरकारों के समर्थन में, जहाँ अपेक्षित हो विशिष्ट मानवशक्ति और मशीनरी तैनात करना; आपदा प्रबंधन निधियों की स्थापना तथा उसके अनुप्रयोग पर सुझाव देना; सरकार को संकट/आपदा प्रबंधन से संबंधित सभी मामलों पर सिफारिशें देना।
घ. प्रशमन/निवारण और प्रत्युत्तर संबंधी उपायों के क्रियान्वयन का कार्य भारत सरकार के संबद्ध मंत्रालयों/विभागों द्वारा समर्थनकारी भूमिका निभाने सहित राज्य सरकारों और जिला तथा स्थानीय प्राधिकारियों पर छोड़ दिया जाए।
ङ. प्रत्येक सरकारी पदाधिकारी द्वारा किसी भी संकट के बारे में संबंधित प्राधिकारी को तत्काल सूचित करने का कर्त्तव्य सौंपा जाना चाहिये अगर वह महसूस करता/करती है कि ऐसे प्राधिकारी के पास ऐसी सूचना नहीं है।
च. कानून द्वारा संकट से निपटने के लिये शीर्ष स्तर पर समरूप संरचना सृजित करनी चाहिये। ऐसी संरचना का नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री और राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री द्वारा किया जा सकता है। प्रशासनिक स्तर पर संरचना का नेतृत्व उपायुक्त, मंत्रिमंडल सचिव और मुख्य सचिव द्वारा किया जाता है।

क्या आपदा/संकट प्रबंधन के लिये एक पृथक मंत्रालय/विभाग गठित करने का मामला बनता है?

(Is there a Case for a Separate Ministry/Department of Disaster/Crisis Managment)

उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने आपदा के लिये तैयारी, प्रशमन और प्रबंधन के क्षेत्र में सतत् और ध्यान केंद्रित प्रयासों के लिये आपदा प्रबंधन के पृथक मंत्रालय के सृजन की सिफारिश की। यह संकल्पना की गई थी कि यह मंत्रालय नोडल मंत्रालय के रूप में मानव निर्मित और प्राकृतिक दोनों आपदाओं पर कार्रवाई करेगा। मंत्रालय का प्राथमिक कार्य राष्ट्रीय संसाधनों की नेटवर्किंग और समन्वय था जबकि संबंधित कार्यात्मक मंत्रालय अपनी संबद्ध आपदा प्रबंधन योजनाओं के अनुसार अपने उत्तरदायित्वों और कार्यों का निवर्हन करते रहेंगे तथा नोडल मंत्रालय के घनिष्ठ सहयोग से कार्य करेंगे। उत्तराखंड एकमात्र राज्य है, जिसमें आपदा प्रबंधन का एक पृथक् विभाग है। बांग्लादेश आपदा प्रबंधन और राहत के लिये पृथक् मंत्रालय स्थापित करने वाला एकमात्र दक्षिण एशियाई देश है।

हालाँकि एक पृथक् मंत्रालय के सृजन से समन्वय की अपेक्षा विवाद और विलंब होना संभावित है। योजना बनाने, अनुसंधान, क्षमता-निर्माण और राष्ट्रीय संसाधनों के समन्वय के लिये एन.डी.एम.ए. के गठन से अब ऐसा समन्वय तंत्र उपलब्ध है। क्रियान्वयन के प्रयोजनार्थ, मंत्रिमंडल सचिव के नेतृत्वाधीन एक समन्वय तंत्र अधिक प्रभावी होगा।

भारत के संपूर्ण भूमि क्षेत्र को तीन प्रमुख प्राकृतिक खतरों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। इनमें भूकंप, चक्रवात (आंधी) और बाढ़ प्रमुख हैं। इस वर्गीकरण के लिये भारतीय सर्वेक्षण के समान पैमाने के आधार पर मानचित्रण किया गया है। यह मानचित्र वर्ष 1998 में भारत के सुभेद्य एटलस (Vulnerability Atlas) में प्रकाशित किया गया था। इसके बाद इन खतरों को शामिल करते हुए समान पैमाने में प्रत्येक राज्य के लिये सुभेद्य एटलस तैयार किया गया। संरचनाओं की सुभेद्यता का आकलन करने और आवासीय इकाइयों का जिलेवार जोखिम विश्लेषण करने के लिये मौजूदा आवासीय सांख्यिकी आँकड़ों का प्रयोग किया गया। यह एटलस, विकास योजनाविदों, निर्णयकर्त्ताओं, व्यवसायिकविदों और गृहधारकों के लिये किसी विशेष क्षेत्र में आश्रय स्थलों को होने वाले जोखिम का आकलन करने हेतु एक उपयोगी मार्गनिर्देशन प्रदान करता है। वर्तमान में इस एटलस का संशोधन किया जा रहा है।

भूकंपीय क्षेत्र जोखिम क्षेत्र तीव्रता राज्य
एमएसके आर.पैमाना
अत्यधिक क्षति जोखिम क्षेत्र IX 8+ संपूर्ण उत्तर-पूर्व और जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, गुजरात, बिहार तथा अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के भाग
IV अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र VIII 7-7.9 जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र के भाग
III संयत क्षति जोखिम क्षेत्र VII 5-6.9 पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के भाग, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और लक्षद्वीप
II निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र VI 4.9 राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल के भाग
मेडवेडेव-स्पॉनहेर-कार्निक भूकंपीय तीव्रता पैमाना (एमएसके)
रिचर पैमाना (आर पैमाना)


पाँच लाख से अधिक जनसंख्या वाले पैंतीस बड़े नगर भूकंपीय क्षेत्र III, IV और ट में अवस्थित है। इन नगरों की कुल जनसंख्या 100 मिलियन है। इन नगरों में जान और माल की भूकंपीय क्षति का संभावित जोखिम मौजूद है।

जोखिम के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के संबंध में सिफारिशें

(Recommendations for Generating Awareness about Risk)

क. जागरूकता सृजन कार्यक्रमों का संचालन सामाजिक प्रचार-प्रसार के साधनों का प्रयोग करते हुए किया जाना चाहिये।
ख. एक उत्तरदायी मीडिया, जिसे आपदा के सभी पहलुओं की भी अच्छी जानकारी हो, लोगाें को सुग्राही बनाने के लिये एक शक्तिशाली साधन है। आपदा प्रबंधन के सभी पहलुओं के बारे में सक्रिय प्रकटीकरण से मीडिया एवं आपदा प्रबंधन अभिकरणों के बीच एक सुदृढ़ संबंध का निर्माण होगा।
ग. विगत दुर्घटनाओं तथा आपदाओं के ब्यौरे तथा सीखे गए पाठों को प्रलेखित किया जाना चाहिये तथा सार्वजनिक क्षेत्र में रखा जाना चाहिये। यह कार्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों द्वारा किया जाना अपेक्षित है।

आपदा प्रबंधन योजनाएँ तैयार करने के संबंध में सिफारिशें

(Recommendations for Preparation of Disaster Management Plans)

क. जिला प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत यथा निर्धारित संकट/आपदा प्रबंधन योजनाएँ खतरे तथा सुभेद्यता विश्लेषण के आधार पर तैयार किये जाएंगे। औद्योगिक खतरों के मामले में ऑफ साईट आपातकाल योजनाएँ जिला संकट/आपदा प्रबंधन योजना में एकीकृत की जाएंगी। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को समय-समय पर इन योजनाओं की प्रभावशीलता के मूल्यांकन के लिये तंत्र स्थापित करना चाहिये।
ख. खतरनाक औद्योगिक यूनिटों में ऑन साईट तथा ऑफ साईट आपातकालीन सेवाओं की गुणता को आधारिक स्थिति में बढ़ाया जाना आवश्यक है।
ग. योजना सभी संबंधित प्रतिभागियों के परामर्श से तैयार की जानी चाहिये।
घ. ऑन साईट तथा ऑफ साईट आपातकालीन सेवाओं (खतरनाक इकाइयों के लिये) की गुणता सुनिश्चित करने के लिये, उद्योग तथा कारखाना निरीक्षणालय जैसे प्रवर्तन अभिकरणों, दोनों में उपलब्ध पेशेवर विशेषज्ञता को सुधारना होगा।
ङ. सभी संकट/आपदा प्रबंधन योजनाओं का मॉक ड्रिल के माध्यम से आवधिक परीक्षण किया जाना चाहिये।
च. यह सुनिश्चित करना राज्य स्तर के नोडल विभाग का उत्तरदायित्व होगा कि योजनाओं को तैयार करने एवं उन्हें आवधिक रूप से अद्यतन करने के लिये जिला स्तर पर पर्याप्त सहायता उपलब्ध है।

संकट/आपदा प्रबंधन योजनाओं को विकास योजनाओं का भाग बनाने के संबंध में सिफारिशें

(Recommendation's for Making Crisis/Disaster Management Plans a part of Development Plans)

क. आपदा प्रबंधन योजनाओं की गतिविधियों को पंचायत एवं नगर निकायों जैसे स्थानीय निकायों तथा संबंधित अभिकरणों की विकास योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिये।
ख. प्रत्येक अभिकरण के पर्यवेक्षी स्तर पर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि उस अभिकरण की वार्षिक योजना में प्राथमिकता के आधार पर आपदा प्रबंधन योजना में सूचीबद्ध गतिविधियों को शामिल किया जाए।
ग. आपदा शमन योजनाओं के विकास योजनाओं में समावेशन के लिये राज्य एवं केंद्र (योजना आयोग) के स्तर पर पंचवर्षीय एवं वार्षिक योजना की चर्चाओं में विशेष रूप से अनुवीक्षण किया जाना चाहिये। योजना आयोग, राज्य आयोजना बोर्डों तथा आयोजना विभागों को योजना प्रस्तावों का निरूपण करने के प्रारूप को प्राथमिकता के आधार पर संशोधित करना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रक्रिया में आपदा निवारण/शमन मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए।

खतरों को दूर करने के साधन

(Instruments for Mitigation of Hazards)

ऐसे विभिन्न साधन हैं जिनके माध्यम से खतरे के प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जा सकता है।

  1. उचित पर्यावरण प्रबंधन: मानव बस्तियाँ में प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन तथा अनियोजित वृद्धि पर्यावरणीय अवक्रमण का कारण होती है। आगे यह आपदा का कारण बनती हैं क्योंकि नाजुक पारिस्थितिकी संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है तथा इससे समाज के पर्यावरणीय संसाधनों पर निर्भर कतिपय वर्गों की सुभेद्यता में भी वृद्धि हो सकती है। पर्यावरणीय प्रबंधन को सभी योजनाओं एवं विकास कार्यकलापों में शामिल किया जाना चाहिये।
  2. खतरा कम करने के उपाय: विभिन्न आपदाओं के लिये भिन्न-भिन्न शमन उपाय अपेक्षित हैं। जैसे- बाढ़ शमन के लिये नदियों को नियंत्रित करना, नदी तट निर्माण, बस्तियों के स्तर को बढ़ाना इत्यादि जैसे उपाय आवश्यक हैं। भूकंप शमन के लिये आपदा रोधी संरचनाओं का निर्माण, भवनों की पुनर्सज्जा तथा बस्तियों का पुन: अवस्थितिकरण आवश्यक है। मृदा संरक्षण उपायों केा अपनाना, जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग, सूखा रोधी वनस्पति तथा रोपण, सूखा प्रवण क्षेत्रों की सुभेद्यता को कम करने के कुछ उपाय हैं। मृदा एवं फसल प्रबंधन, फसल सुधार, सिंचाई, मृदा लवणता को नियंत्रित करने के कुछ उपाय हैं। दीर्घावधिक निवारण एवं शमन उपायों को मोटे तौर पर तीन शीर्षक के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है- (1) प्रमुख सिविल अभियांत्रिकी संरचनाओं का निर्माण (2) आपदारोधी रिहायशी स्थलों तथा सार्वजनिक उपयोग वाले भवनों का निर्माण तथा (3) गैर-संरचनात्मक उपाय। इन तीन शीर्षकों के अंतर्गत निम्नलिखित सिफारिशें आयोग द्वारा अपनी इस रिपोर्ट में प्रस्तुत की गई-

आपदारोधी रिहायशी स्थलों तथा सार्वजनिक उपयोग वाले भवनों के निर्माण के संदर्भ में प्रमुख सिफारिशें

  1. संरचनात्मक निवारण उपाय किसी क्षेत्र के लिये दीर्घावधिक आपदा प्रबंधन योजनाओं का भाग होना चाहिये।
  2. समुचित क्षेत्रीकरण विनियमों का विस्तार सभी क्षेत्रों में किया जाना आवश्यक है। शामिल किये जाने वाले क्षेत्रों के विभिन्न स्तरों का निर्धारण प्रत्याशित खतरे की गहनता के आधार पर किया जाना चाहिये।
  3. भवन निर्माण उपविधियाँ में भवनों की आपदारोधी विशिष्टताएँ शामिल की जाएंगी। चूँकि सुरक्षा संहिता जटिल भवन तकनीकी है, ऐसे सरलीकृत दिशा-निर्देश जारी करना आवश्यक है जिन्हें नागरिक समझ सकें।
  4. आपदारोधी संरचनाओं तथा सरलीकृत सुरक्षा दिशा-निर्देशों के महत्त्व का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिये ताकि अनुपालन केा सुनिश्चित किया जा सके। जहाँ तक ग्रामीण क्षेत्रों का संबंध है, भवन निर्माण प्रौद्योगिकी प्रदर्शन केंद्रों की स्थापना तथा गंभीर जोखिम प्रवण क्षेत्रों में प्रदर्शनात्मक आपदा संरचनाएँ स्थापित करने सहित प्रसार की अन्य विधियाँ अपनाई जानी चाहिये।
  5. भवन निर्माण संरचनाओं के आकलन तथा सुरक्षित भवनों के प्रमाणन के लिये वास्तुकारों तथा संरचनात्मक इंजीनियरों को लाइसेंस देकर इसका व्यावसायीकरण किया जाना चाहिये।
  6. आपदारोधी भवनों के लिये भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standard—BIS) द्वारा निर्धारित मानक सार्वजनिक क्षेत्र में संवर्द्धन करने के लिये संबंधित सरकारी अभिकरणों की वेबसाईटों पर डाला जाना चाहिये।
  7. मौजूदा भवनों में सार्वजनिक रूप से प्रयुक्त सरकारी भवनों का पहले मूल्यांकन एवं पुनर्सज्जा की जानी चाहिये, वरीयता उन भवनों को दी जानी चाहिये जिनमें आवश्यक सेवाएँ चलाई जा रही हैं।
  8. ये सभी दीर्घावधिक उपाय आपदा/संकट प्रबंधन योजनाओं का अभिन्न भाग होने चाहिये।

गैर-संरचनात्मक उपायों तथा नियमों-विनियमों के प्रभावी कार्यान्वयन संबंधी सिफारिशें

  1. अनधिकृत प्रवेश, लोक स्वास्थ्य एवं सुरक्षा, औद्योगिक सुरक्षा, अग्नि के खतरों, सार्वजनिक स्थलों पर सुरक्षा संबंधी कानूनों का प्रभावी प्रवर्तन सुनिश्चित किया जाना चाहिये। क्षेत्रीकरण विनियमों तथा भवन निर्माण उपविधियों पर भी यही प्रयोज्य है।
  2. सभी प्रमुख कथित उल्लंघनों की तृतीय पक्ष लेखापरीक्षा की शुरुआत गतिविधि को शासित करने वाले संबंधित विनियम में शुरू की जानी आवश्यक है।
  3. अनुमति/लाइसेंसों से संबंधित सभी अभिलेख स्वप्रेरणा से सार्वजनिक क्षेत्र में लाए जाने चाहिये।
  4. विशेषज्ञों द्वारा सहायता प्राप्त हितधारकों के एक दल द्वारा ऐसे सभी स्थानों/सुविधाओं का आवधिक निरीक्षण किया जाना चाहिये।
  5. कानून प्रवर्तन योजना दीर्घावधिक शमन योजना का एक भाग होना चाहिये।
  6. उल्लंघनों के परिणामों के संबंध में जनता को शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है।

शीघ्र चेतावनी प्रणालियाँ (Early Warning Systems)

Crisis Warning

  1. यद्यपि चेतावनी का प्रसार करना सरकारी मशीनरी तथा स्थानीय निकायों का दायित्व है, लोगों की सहभागिता को सूचीबद्ध करने के लिये समुदाय के नेताओं, गैर-सरकारी संगठनों तथा अन्य की भूमिका को आपातिक प्रत्युत्तर योजना के अनुसार सुस्पष्ट परिभाषित किया जाना चाहिये तथा उन्हें अपनी संबंधित भूमिकाओं के लिये पूर्णतया प्रशिक्षित तथा तैयार किया जाना चाहिये।
  2. डेटा नेटवर्क केंद्रों को जोखिम प्रवण क्षेत्रों के बीच स्थापित किये जाने चाहिये।
  3. शीघ्र चेतावनी प्रणालियों का मूल्यांकन प्रत्येक आपदा के बाद किया जाना चाहिये ताकि आगे और सुधार किये जा सकें।

सामुदायिक समुव्थान शक्ति निर्मित करने के संबंध में सिफारिशें

(Recommendation's for Building Community Resilience)

  1. समुदाय के लिये स्थान विशिष्ट प्रशिक्षण कार्यक्रमों का निष्पादन पंचायतों के माध्यम से किया जाना चाहिये।
  2. संकट प्रबंधन जागरूकता को शिक्षा की मुख्य धारा में लाया जाना आवश्यक है। इस प्रयोजनार्थ, आपदा जागरूकता के एक समुचित संघटक की शुरुआत विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में तथा पेशेवर एवं व्यावसायिक शिक्षा में की जानी चाहिये।
  3. महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों यथा राजस्व, कृषि, सिंचाई, स्वास्थ्य तथा लोक निर्माण विभाग के कार्मिकों, पुलिस कार्मिकों, सिविल कर्मचारियों सहित नेताओं के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम में आपदा जागरूकता को शामिल किया जाना चाहिये।
  4. आपदा प्रबंधन में मुद्दों तथा समस्याओं पर विशिष्ट प्रकाश डालते हुए कानून निर्माताओं, नीति निर्माताओं तथा शहरी स्थानीय निकायों एवं पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचित नेताओं के लिये उन्मुखीकरण एवं सुग्राहित कार्यक्रम शुरू किये जाने चाहिये।
  5. एन.आई.डी.एन. तथा एन.डी.एम.ए. को विभिन्न प्राधिकरणों द्वारा कार्यान्वयन के लिये इन सुझावों के ब्यौरे परिकल्पित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।

अनुसंधान और ज्ञान के प्रयोग में सिफारिशें

(Research and Lise of Knowledge)

  1. एन.आई.डी.एम. को आपदा प्रबंधन संबंधी ज्ञान के प्रभावी प्रसार के लिये प्रविधियों का विकास करना चाहिये।
  2. आपदा प्रबंधन योजनाओं में समुदायों के पास उपलब्ध पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
  3. एन.आई.डी.एम. को एक ओर अनुसंधान संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों के साथ तथा दूसरी ओर क्षेत्रीय कार्यकर्त्ताओं के साथ समन्वय करना चाहिये तथा उन क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिये जहाँ अनुसंधान अपेक्षित है।
  4. यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि आई.डी.आर.एन. नेटवर्क को नियमित रूप से अद्यतन किया जाए।

आपातिक प्रत्युत्तर प्रणाली

(Emergency Response System)

किसी बड़े संकट के दौरान सामान्य आपातिक प्रत्युत्तर प्रणाली आमतौर पर पूर्णत: सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाती है। ऐसी स्थिति में समाज, सरकार, स्थानीय निकायों (नगरपालिकाएँ और पंचायतें), गैर-सरकारी संगठनों और निजि क्षेत्र के सभी संसाधनों को जुटाना जरूरी हो जाता है। यह समस्या निम्नलिखित कारणों से और गंभीर हो जाती हैं:

  1. किसी भी संकट की प्रारंभिक अवस्था में तस्वीर अक्सर साफ नहीं होती और स्थिति आमतौर पर बिगड़ जाती है जिससे संगठित राहत कार्य में कठिनाई आती है।
  2. उपलब्ध संसाधन सीमित होते हैं जबकि मांग बहुत अधिक होती है।
  3. पहली प्रतिक्रिया बिना योजना के और बिना सोचे-समझे अनायास कार्य करने की होती है।
  4. सूचना-संप्रेषण और परिवहन नेटवर्क ध्वस्त हो जाने से स्थिति और बिगड़ जाती है।

सिफारिशें

  • चूँकि किसी भी संकट/आपदा में आरंभिक प्रत्युत्तर समय पर और तेजी से होनी चाहिये, आपातिक प्रत्युत्तर योजनाएँ अद्यतन होनी चाहिये और उनमें स्पष्ट शब्दों में ट्रिगर प्वाइंट निर्धारित होने चाहिये।
  • जिला आपातिक प्रत्युत्तर योजना सभी संबंधित व्यक्तियों के साथ परामर्श करके तैयार की जानी चाहिये। यह योजना सभी मुख्य भागीदारों को ज्ञात और स्वीकृत होनी चाहिये।
  • क्षेत्र की असुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जिला और सामुदायिक स्तर पर प्रत्येक आपदा के लिये मानक प्रचालन प्रक्रियाएँ विकसित की जानी चाहिये। सभी स्तरों पर आपदा प्रबंधन योजनाओं में पुस्तिकाएँ, जाँच सूचियाँ, आपदा प्रबंधन कार्मिकों, खोज और बचाव दलों तथा आपातिक प्रचालन केंद्रों के लिये सटीक अनुदेशों वाली नियम पुस्तिकाएँ होनी चाहिये।
  • कारगर बचाव कार्यों के लिये आदेश का एकत्व बुनियादी सिद्धांत होना चाहिये।
  • योजना वार्षिक तौर पर किये गए मॉक-ड्रिल पर आधारित होनी चाहिये तथा यह भी आवश्यक है कि यह क्षमता निर्माण प्रयासों के द्वारा समर्थित हो।
  • किसी भी योजना की अपनी सीमाएँ होती हैं, क्योंकि प्रत्येक संकट की स्थिति एक-दूसरे से भिन्न होती है। इसलिये योजनाएँ संकट के समय सही निर्णय का स्थान नहीं ले सकती।
  • किसी भी संकट की प्रबंधन व्यवस्था अधिकारियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने का मानदंड बना दिया जाना चाहिये।
  • ये सिद्धांत अन्य स्तरों की योजनाओं पर लागू होते हैं और महानगरों के मामले में भी लागू होते हैं।
  1. आपातिक प्रत्युत्तर चरण के कार्यकलाप को दो स्पष्ट श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहला-बचाव और दूसरा-राहत। किसी भी आपदा पर तत्काल प्रत्युत्तर बचाव कार्य शुरू करने की होनी चाहिये जिसका मुख्य उद्देश्य है मानव-जीवन की रक्षा करना और उसके बाद पशुधन तथा संपत्ति की रक्षा करना। जब बचाव कार्य चल रहा हो, तब राहत पहुँचाने का चरण भी शुरू हो जाता है। राहत पहुँचाने के क्रम में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि जीवन की बुनियादी जरूरतें जैसे भोजन, वस्त्र, आश्रय, सुरक्षा और बुनियादी स्वास्थ्य एवं सफाई की सुविधाएँ पहले उपलब्ध कराई जाएँ।
  2. सबसे बड़ा कार्य यह सुनिश्चित करना है कि संसाधन इस तरीके से प्रयोग किये जाएँ कि वे सभी प्रभावित वर्गों तक समान रूप से पहुँच सकें।
  3. आपदा के तुरंत बाद महामारियाँ फैलने की संभावनाएँ बहुत अधिक होती है। इसलिये सुरक्षित जल की आपूर्ति और रहने की स्वच्छ स्थितियों को उतनी ही प्राथमिकता दी जानी चाहिये जितनी राहत संबंधी अन्य कार्यों को दी जाती है।
  4. राहत सामग्री के वितरण और खरीद में पूरी पारदर्शिता बरती जानी चाहिये।
  5. प्रत्येक बड़ी आपदा के बाद आकलन प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस तदर्थ प्रक्रिया में अनेक कमियाँ हैं। नुकसान के आकलन के लिये वस्तुपरक तरीके विकसित करने की आवश्यकता है ताकि पक्षपात, विकृति, अत्योक्ति या मनमाने ढंग से आकलन के आरोप न लगाए जाएँ।

सिफारिशें

  • बचाव/राहत कार्यों के लिये और राहत की उपयुक्त प्राप्ति और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिये जिला और तहसील स्तर पर कारगर समन्वय होना आवश्यक है। बचाव और राहत कार्यों के दौरान नेतृत्व की कमान एक होनी चाहिये जो समाहर्ता के हाथ में हो।
  • मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन से बचने के लिये तत्काल मांग का आकलन किया जाना चाहिये और मीडिया समेत सभी संबंधित अभिकरणों को सूचित किया जाना चाहिये ताकि जरूरतों के अनुसार राहत की व्यवस्था की जाए।
  • सुरक्षित पेयजल और स्वच्छ स्थितियाँ सुनिश्चित करने को उतना ही महत्त्व दिया जाना चाहिये जितना आजीविका के अन्य बुनियादी साधनों को दिया जाता है।
  • राहत सामग्री की समस्त खरीद और वितरण पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिये।
  • हितधारकों को शामिल करते हुए अनुवीक्षण और सतर्कता समितियाँ गठित की जानी चाहिये, जो शिकायतों का निवारण कर सकें।
  • मानसिक आघात संबंधी देखरेख परामर्श राहत कार्य का अभिन्न अंग होना चाहिये।
  • नुकसान के आकलन के लिये वस्तुपरक तरीके तत्काल विकसित करने ज़रूरी हैं ताकि पक्षपात, विकृति, अत्योक्ति या मनमाने ढंग से आकलन के कम आंकने के आरोप न लगाए जाएँ।

विशिष्ट अभिकरणों की भूमिका

(Role of Specialized Agencies)

सिविल डिपेंस (Civil Defence)

  • अधिनियम में यथा प्रस्तावित संशोधन किये जाने चाहिये ताकि सभी प्रकार की आपदाएँ उसमें शामिल की जा सकें।
  • सिविल डिपेंस सभी ज़िलों में गठित की जानी चाहिये जो न सिर्प सुभेद्य हैं शत्रुतापूर्ण हमलों के लिये बल्कि प्राकृतिक आपदाओं के लिये भी।
  • जनसंख्या के 1 प्रतिशत हिस्से को पांच वर्ष के भीतर सिविल डिपेंस की परिधि में शामिल किया जाना चाहिये। चिकित्सा सहायकों (Paramedics) को सिविल डिपेंस के स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं के रूप में नामांकित कराने के प्रयास किये जाने चाहिये।
  • सिविल डिपेंस के लिये केंद्रीय वित्तीय सहायता से संबंधित बजटीय आवंटन में पर्याप्त वृद्धि की जानी चाहिये।
  • सभी स्तरों पर सिविल डिपेंस संरचनाओं को दान स्वीकृत करने के अनुमति होनी चाहिये।
  • राज्य स्तर पर सिविल डिपेंस संरचना को संकट/आपदा प्रबंधन संरचना के नियंत्रण के अंतर्गत लाया जा सकता है।

पुलिस, होमगार्ड और अग्निशमन सेवाएँ

(Police, Home Guards and fire Services)

  • क्षेत्र स्तर पर पुलिस कर्मी, अग्नि कर्मी और होम गार्ड जो प्रथम प्रत्युत्तरदाताओं में शामिल होते हैं, को संकटों/आपदाओं से निपटने हेतु पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। ऐसा प्रशिक्षण क्षेत्र विशेष में संभावित संकटों के अनुरूप होना चाहये।
  • होम गार्डों को सौंपे गए कार्यों की पेचीदगी और बढ़ती ज़िम्मेदारी को देखते हुए होम गार्ड सेवा में भर्ती की न्यूनतम योग्यता कम-से-कम 10वीं कक्षा पास कर दी जानी चाहिये।
  • होम गार्डं के एक भाग को अर्ध-चिकित्सीय प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिये।
  • अग्निशमन सेवाओं का नाम बदलकर अग्निशमन और बचाव सेवा कर दिया जाना चाहिये जिसमें सभी प्रकार के संकटों पर प्रत्युत्तर देने की अधिक बड़ी भूमिका शामिल हो।
  • हालाँकि, आगे चलकर अग्निशमन सेवाओं को समस्त नगरपालिका निकायों के नियंत्रण में रखना वांछनीय होगा। प्रारंभिक चरण में ऐसा बड़े शहरों (2.5 मिलियन से अधिक जनंसख्या वाले) में किया जा सकता है।
  • संकट/आपदा प्रबंधन में विशेषज्ञता रखने वाले व्यक्तियों को ही अग्निशमन (और बचाव) सेवा के शीर्ष प्रबंधन स्तर पर शामिल किया जाना चाहिये।
  • अग्निशमन एवं बचाव सेवाओं को आपदा प्रबंधन कानून के तहत स्थापित राज्य संकट/आपदा प्रबंधन संरचना के नियंत्रण में लाया जाना चाहिये।
  • एनडीएमए से अनुरोध किया जा सकता है कि वह आपदा प्रबंधन अधिनियम/अधिनियमों में शामिल करने के लिये इन सेवाओं के संबंध में मॉडल उपबंधों का सुझाव दें।

एकीकृत आपातिक प्रचालन केंद्र की स्थापना

(Setup for Emergency Operations Centre-EOC)

सभी प्रकार के संकटों में निवारक उपाय करने और बिना देरी किये उपयुक्त बचाव एवं राहत कार्य करने के लिये शीघ्र चेतावनी मिलना बहुत महत्त्व रखता है। यह तभी संभव होगा जब नोडल मंत्रालयों (निर्दिष्ट स्वरूप के संकट के लिये) में पूर्णकालिक ई.ओ.सी. हों।

ऐसे ईओसी का विभिन्न इलैक्ट्रानिक मीडिया से भी संपर्क होना चाहिये और इन मीडिया चैनलों के ज़रिये सूचना प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। क्योंकि बहुत से चैनलों के पास ज़िला/ब्लॉक स्तर तक बेहतरीन रिपोर्टिंग प्रणालियाँ हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था राज्य और ज़िला स्तरों पर भी की जानी चाहिये। विषय से संबंधित मंत्रालयों/विभागाें को इस केंद्र में प्रतिनिधि नियुक्त करने चाहिये जिसे अन्य सभी ईओसी और नियंत्रण कक्षों से जोड़ा जाना चाहिये।

आपातिक चिकित्सा राहत की व्यवस्था

(Organising Emergency Medical Relief)

  • कई विकसित देशों में ऐसी आपातिक स्थितियों से निपटने के लिये तंत्र मौजूद हैं। संयुक्त राज्य अमरीका में दूरभाष नंबर 911 किसी भी प्रकार की आपातिक सहायता प्राप्त करने के लिये निर्धारित है।
  • इसी प्रकार, यूरोप में 128 ऐसा नंबर है जिसे कोई व्यक्ति आपातिक स्थिति में डायल कर सकता है।
  • भारत में आपातकालीन नंबर 108 के साथ ईएमआरआई का काल सेंटर सभी ‘डिस्ट्रेस कॉल’ को प्राप्त करने का नोडल केंद्र बन गया है। पुलिस व अग्निशमन से जुड़ी काले तत्काल राज्य अभिकरणाें को अंतरित कर दी जाती हैं।

सिफारिशें

  • चिकित्सीय आपातिक स्थितियों का सामना करने के लिये एक संस्थागत व्यवस्था स्थापित किये जाने की ज़रूरत है।
  • इस प्रणाली से देश भर में ‘एक ही टेलीफोन नंबर’ से संपर्क स्थापित करने की सुविधा होनी चाहिये।
  • इस व्यवस्था में निजी अस्पतालों को शामिल करने की बात कही गई है। विभिन्न प्रतिभागियों की भूमिका कानून के ज़रिये स्पष्ट की जा सकती है।

राहत और पुनर्वास के संबंध में सिफारिश

(Recommendations for Relief and Rehabilitation)

  • क्षति का आकलन एनडीएमए द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुसार बहु-विषयक दलों द्वारा पारदर्शी और सहभागी रूप से किया जाना चाहिये।
  • गैर-सरकारी संगठनों और अन्य समूहों के प्रयासों को ज़िला तथा राज्य स्तरों पर सरकारी गतिविधियों के साथ समन्वित किया जाना चाहिये।
  • सुधार संबंधी कार्यनीति प्रभावित लोगों तथा संबंधित प्राधिकरणों एवं संगठनों के साथ परामर्श करके विकसित की जानी चाहिये। सुधार कार्यनीति में पुनर्वास के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सभी पहलू शामिल होने चाहिये।
  • भोजन, स्वास्थ्य, जल, सफाई, और आश्रय संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये राहत के न्यूनतम मापदंड निर्धारित किये जाने चाहिये। समाज के कमज़ोर वर्गों अर्थात बच्चों, महिलाओं, वयोवृद्धों और शारीरिक रूप से अपंग लोगों की विशेष ज़रूरतों को महत्त्व दिया जाना चाहिये।
  • पुनर्वास प्रयासों का कार्यान्वयन ग्राम पंचायतों/स्थानीय निकायों द्वारा किया जाना चाहिये। पहली प्राथमिकता लाभार्थी-उन्मुख कार्यों को स्वयं लाभार्थियों के ज़रिये निष्पादित करवाया जाना होना चाहिये।
  • निधियों के दुरुपयोग को रोकने के लिये मॉनीटरिंग और शीघ्र वित्तीय लेखापरीक्षा की जानी चाहिये।
  • जोखिम को कम करने के पहलुओं को सुधार योजनाओं में शमिल किया जाना चाहिये। निवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली भूमि उपयोग योजनाओं को पुनर्निर्माण के दौरान कार्यान्वित किया जाना चाहिये।
  • सभी नए निर्माणों को निर्धारित मापदंडों के अनुसार आपदा रोधी बनाया जाए।
  • स्थानीय और ज़िला स्तरों पर शिकायत निवारण तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
  • एनआईडीएम को सभी बड़ी आपदाओं के संबंध में स्वतंत्र पेशेवर अभिकरणों के ज़रिये एक विस्तृत मूल्यांकन करवाना चाहिये।

वित्तीय कार्यविधियों पर पुनर्विचार

(Revisiting the Financial Procedures)

वित्त आयोग ने ऐसी सिफारिशें की है जिससे राज्य ऐसी आपदाओं द्वारा उत्पन्न आपातिक स्थितियों से निपटने के लिये प्रत्युत्तर देने में समर्थ हो सकें। ये सिफारिशें इन रूपों में हैं-

आपदा राहत निधि (सीआरएफ) केंद्र और राज्यों के बीच 3:1 के अनुपात में बांटा जाने वाले तत्काल व्यय हेतु शीघ्र उपलब्ध स्रोत, राष्ट्रीय आपदा आकस्मिकता निधि जो विशेष रूप से गंभीर प्राकृतिक आपदाओं के लिये निधि की अतिरिक्त आवश्यकताओं को पूरा करने का स्रोत है। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 46 में दो निधियों अर्थात राष्ट्रीय आपदा-प्रत्युत्तर निधि और राष्ट्रीय आपदा शमन निधि की स्थापना की बात की गई है।

  • 1 अप्रैल 2007 से दोनों निधियाँ प्रारंभ कर दी जाए। दोनों निधियों में से प्रत्येक को भारत सरकार से 5000 करोड़ रुपए का आरंभिक वार्षिक अंशदान दिया जाए।
  • एनडीएमए भारत सरकार को इन नई निधियों से जारी की जाने वाली सहायता की मात्रा, मापदंड तथा शर्तों के साथ-साथ विभिन्न स्रोतों से इन निधियों की प्रतिपूर्ति के तरीकों की भी सिफारिश कर सकता है।
  • आपदा के संबंध में राहत व्यय के प्रत्येक शीर्ष के संदर्भ में लेखा विवरण संकलित करने की प्रणाली शुरू की जानी चाहिये। भारत के नियंत्रक और महा लेखापरीक्षक इन संबंध में मानक प्रारूप निर्धारित कर सकते हैं।
  • उपर्युक्त लेखा विवरण निर्धारित समय अंतराल पर राज्य स्तर के नोडल केंद्र की वेबसाइट पर उपलब्ध होने चाहिये।
  • निधियों से सहायता का परिकलन करने का आाधार वेबसाइटों पर उपलब्ध होना चाहिये।

लैंगिक मुद्दे और कमजोर वर्गों की सुभेद्यता

(Gender Issues and Vulnerability of Weaker Sections)

आपदाओं में विशेषकर प्राकृतिक आपदाओं से महिलाओं और बच्चों पर सबसे बुरा असर पड़ता है और परिणामत: वे ही सबसे अधिक पीड़ा सहते हैं। भारत में सुनामी के दौरान यह तथ्य प्रकाश में आया कि नागपट्टिनम जिले में 1883 पुरूषों की तुलना में 2406 महिलाओं की जानें गईं। इस स्थिति का मूल कारण हमारे समाज में मौजूद स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव की भावनाएँ हैं।

जिनके चलते महिलाओं की निर्णय लेने में कोई भूमिका नहीं होती वे अधिकतर मामलों में पुरूषों प्र आश्रित होती है। प्रतिकूल स्थिति संकट के दौरान और बिगड़ जाती है।

सिफारिशें

  • सुभेद्यता संबंधी विश्लेषण में महिलाओं की समस्याएँ सामने आनी चाहिये और किसी भी शमन प्रयास में इनका समाधान किया जाना चाहिये।
  • बचाव और राहत कार्य कमजोर वर्गों-महिलाओं, बच्चों, वयोवृद्धों और शारीरिक रूप से अपंग लोगों पर केंद्रित होने चाहिये।
  • राहत उपायों में महिलाओं एवं अन्य कमजोर वर्गों की विशेष ज़रूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिये।
  • सुधार के चरण में महिलाओं को आय सृजन के अवसरों को उपलब्ध कराकर कौशल प्रशिक्षण देना होगा तथा स्व-सहायता समूह बनाकर, लघु वित्त, विपणन सुविधाएँ इत्यादि प्रदान करके उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र बनाने का प्रयास करना चाहिये।
  • नव निर्मित संपत्ति का मालिकाना हक पति और पत्नी दोनों के नाम में होना चाहिये।
  • शिविर प्रबंधन समितियों में महिला प्रतिनिधियों की पर्याप्त संख्या होनी चाहिये।
  • पीड़ित, विधवाओं और महिलाओं तथा अन्य व्यक्तियों को मानसिक आघात संबंधी परामर्श और मनोवैज्ञानिक देखरेख मुहैया करानी चाहिये।
  • अनाथ बच्चों के लिये दीर्घकालिक आधार प्र व्यवस्था की जानी चाहिये। गैर-सरकारी संगठनों को उनके पुनर्वास में मुख्य भूमिका निभाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।

सूखा-प्रबंधन (Drought Managment)

सूखे की बाढ़, भूकंप और चक्रवात के विपरीत कुछ विशेषताएँ होती हैं-

  1. इसकी शुरुआत धीमी होती है जिससे पर्याप्त चेतावनी मिल जाती है,
  2. यह बहुत बड़े क्षेत्र में लोगों की आजीविका को प्रभावित करता है,
  3. इस आपदा की अवधि लंबी होती है और इसलिये राहत प्रयास भी इसी लंबी समयावधि में किये जाने होते हैं,
  4. यह मूलत: ग्रामीण जीवन से जुड़ा है सिवाय इसके कि बहुत गंभीर सूखे का स्रोत सूख जाने पर और भूमिगत जल-स्रोतों वाले क्षेत्र में जल स्तर कम होने पर शहरी जलापूर्ति पर असर पड़ सकता है।
  5. ऐसी संभावना है कि सूखा प्रबंधन के प्रयासों में आर्द्रता के सरंक्षण और वानस्पतिक आवरण इत्यादि में सुधार करके सूखे के प्रभाव सुरक्षा को कम कर सकते हैं।
  • सूखे के विभिन्न पहलुओं पर बहु-विषयी नेटवर्किंग परस्पर क्षेत्रकों पर अध्ययन करने, सूखे से संबंधित संसाधन केंद्र के रूप में कार्य करने एवं सूखा प्रबंधन प्रयासों के प्रभाव का आकलन करने के लिये राष्ट्रीय सूखा प्रबंधन संस्थान की स्थापना की जा सकती है। यह सुनिश्चित किये जाने की ज़रूरत है कि इस प्रस्तावित संस्थान का अधिदेश और कार्यसूची राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के प्रयासों की पुनरावृत्ति न हो।

अत्यधिक सूखा-प्रवण क्षेत्रों में आजीविका प्रबंधन हेतु सिफारिशें

(Recommendation of Management in Extrenly Droguth Prone Areas)

  • लोग अपने पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप आजीविका साधन अपनाए, इसके लिये एक कार्यनीति विकसित किये जाने की ज़रूरत है। इस दिशा में उठाए गए कुछ ठोस कदम निम्न हैं:
  • ऐसे गांव जहाँ मृदा एवं जलवायु स्थितियाँ पारम्परिक कृषि को अवहनीय बना देती है, की विशेष रूप से पहचान करने के लिये पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा एक बहुविषयी दल तत्काल गठित किये जाने की ज़रूरत है।
  • ऐसे क्षेत्रों में समुदायों के साथ परामर्श करके आजीविका के वैकल्पिक साधन विकसित किये जाने चाहिये।

प्रबंधन विधियों के संहिताकरण संबंधी सिफारिशें

(Recommendation for Codification of Management Methadologies)-

  • राज्य सरकारों को हाल के घटनाक्रमों के आलोक में, एनडीएमए से सूचना प्राप्त करके तथा अपने अनुभव के आधार पर राहत नियमपुस्तिका दोबारा लिखने और उसे समय-समय पर अद्यतन करने की ज़रूरत है।
  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को समय-समय पर ऐसा दस्तावेज संकलित करना चाहिये जिसमें सूखे की शुरूआत और उसके बढ़ने का पता लगाने के लिये उपलब्ध वैज्ञानिक और तकनीकी साधन/सुविधाओं का ब्यौरा शामिल हो, और केंद्र एवं राज्य सरकारों के आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों के साथ वैज्ञानिक एवं तकनीकी संगठनों का प्रत्यक्ष संपर्क होना चाहिये।

सूखे की घोषणाओं का युक्तिकरण

(Rationalization of Drought Declarations)

राजस्व कानूनों या अकाल/अभाव संहिताओं के कार्यकारी अनुदेशों के अनुसार सूखे की औपचारिक घोषणा किये जाने की बात है। कई राज्यों में, राहत कार्य ऐसी घोषणा के बाद ही शुरु किया जा सकता है।

आयोग का विचार है कि सूखे की घोषणा संबंधी प्रक्रिया का युक्तिकरण किया जाना चाहिये और सभी राज्योें में यह एकसमान होनी चाहिये।

सिफारिशें

  • सूखे की घोषणा के तरीके और तंत्र को एनडीएमए के मार्गदर्शन में संशोधित किये जाने की ज़रूरत है। हालाँकि यह काम राज्य सरकारों का है कि अपनेी कृषि जलवायु स्थितियों की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ये तौर-तरीके निर्धारित करेें, लेकिन आयोग यह सिफारिश करता है कि संशोधित तंत्र में निम्नलिखित व्यापक मार्गदर्शी सिद्धांत शामिल किये जाएँ-
  1. जहाँ जुलाई या दिसंबर के अंत तक क्रमश: खरीफ और रबी के लिये सामान्यता खेती किये जाने वाले क्षेत्र का कुछ प्रतिशत (कहें कि बीस प्रतिशत) बिना बोआई के रह जाता है, तो प्रभावित तहसील/ ताल्लुका/मंडल को सरकार द्वारा सूखा-प्रभावित घोषित किया जा सकता है।
  2. शुरुआती तौर पर ‘देखकर लगाए गए अनुमान को इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे अनुमानों को सुदूर संवेदन से, जैसे-जैसे इन सुवधिाओं की उपलब्धता में सुधार होगा सत्यापित किया जा सकता है। अंतिम उद्देश्य यह होना चाहिये कि सूखे का जल्द पता लगाने के लिये सुदूर संवेदन को मुख्य उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाए और देखकर लगाए गए अनुमान को केवल सत्यापन के गौण तरीके के रूप में ही रखा जाए।

सूखे की स्थिति के निदान और पूर्वानुमान के लिये दूर संवेदन का प्रयोग

(Deployment of Remote Sensing for Diagnosis and Prognosis of Drought Situations)

सुदूर संवेदन को अभी तक नैमित्तिक संस्थागत ढांचे में शामिल नहीं किया गया है जैसाकि, संचार प्रौद्योगिकियों के मामले में हो चुका है। इस प्रक्रिया में नवीन समाधान ढूंढने की ज़रूरत होगी जो कम लागत के होने के अलावा प्रौद्योगिकीय और व्यावसायिक परिवर्तनों के अनुकूल भी हों।

सिफारिशें

सूखे का पता लगाने, उसके मार्ग का अनुवीक्षण करने और पूर्वानुमान लगाने के लिये मुख्य उपकरण के रूप में सुदूर संवेदन का प्रयोग करना ऐसा लक्ष्य है जिसे तेजी से और व्यवस्थित रूप में हासिल किये जाने की ज़रूरत है। इसके लिये सुदूर संवेदन को सूखा प्रबंधन की नैमित्तिक संरचना में शामिल किये जाने की जरूरत होगी। ऐसा अभिज्ञात सूखा-संभावित ज़िलों में एनआरएसए सेल स्थापित करके किया जा सकता है। ज़िलों में एनआरएसए के कार्यकलाप में अन्य आपदाओं का अनुवीक्षण भी शामिल होना चाहिये।

नदियों को बारहमासी बनाना

(Making Rivers Perennial)

प्रायद्वीपीय क्षेत्र में बार-बार पड़ने वाले सूखे का कारण क्षेत्र के अनेक इलाकों का वर्षा छाया क्षेत्र में पड़ना तथा इस क्षेत्र की नदियों का मौसमी स्वरूप का होना है।

बारहमासी नदियों पर आधारित सिंचाई तंत्र भंयकर सूखे में भी काम करते रहते हैं जबकि मौसमी नदियों के ज़रिये सिंचित क्षेत्रों में यह तंत्र पूरी तरह ठप्प हो जाता है। इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं कि मौसमी नदियों को बारहमासी का दर्जा देने के मुद्दे पर वैज्ञानिक, इंजीनियर और नीति-निर्माता समय-समय पर विचार करते रहे हैं।

आयोग के अनुसार इस उपेक्षित पहलू पर अधिक ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है और इसे हासिल करने के लिये दृष्टिकोण और विधियों को मानकीकृत तथा आकलित किया जाना चाहिये।

सिफारिशें

  • जल संसाधन, पर्यावरण एवं वन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालयों के तहत तकनीकी अभिकरणों को मौसमी नदियों को बारहमासी बनाने के विभिन्न पर्यावासों में इस दृष्टिकोण के पास्थितिकीय तथा जल-विज्ञान संबंधी परिणामों का पता लगाने के लिये तत्काल नदी-विशिष्ट व्यवहारिक अध्ययन करने चाहिये।

विशिष्ट संकटपूर्ण स्थितियों (महामारियों और आवश्यक सेवाओं में बाधा) के प्रबंधन के संबंध में सिफारिशें

[Recommendation for Crisis Situations (Epidemics and Disruption of Essential Services)]

महामारियाँ भंयकर रूप ले सकती हैं यदि वे भौगोलिक रूप से बहुत तेज पैली हों। लेकिन यह बात भी स्पष्ट है लोक-स्वास्थ्य की संपूर्ण व्यवस्था इस मान्य आधार पर टिकी है कि निगरानी और रक्षोपायों की पर्याप्त व्यवस्था के चलते महामारियों को भंयकर रूप धारण करने से रोका जा सकता है।

  • महामारियों के पैलाव की कारगर रोकथाम के लिये, यह ज़रूरी है कि लोक स्वास्थ्य पर व्यापक संशोधित अधिनियम को जल्द अंतिम रूप दिया जाए और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय राज्यों द्वारा इसे स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप बनाते हुए इसके प्रावधानों को लोग करने को व्यवस्था करे।
  • राज्यों से प्राप्त सूचना के आलोक में लोक स्वास्थ्य संबंधी केंद्रीय कानून जल्द-से-जल्द अंतिम रूप में विचारार्थ प्रस्तुत किया जाए।
  • स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत अपेक्षित योजनाएँ महामारियों के संबंध में भी बनाई जाएँ और यह भी कि ज़िला प्रशासन की भूमिका का लोक स्वास्थ्य आपातिक स्थिति विधेयक में स्पष्ट उल्लेख किया जाए। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 द्वारा निर्मित संरचना का उपयोग महामारियों के प्रबंधन में भी इस्तेमाल किया जाना चाहिये।
  • हालाँकि महामारियों की निगरानी और प्रबंधन लोक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवर व्यक्तियों की जिम्मेदारी होती है, यह स्पष्ट है कि बहुत की गंभीर महामारी संबंधित संगठनों की क्षमता को भी प्रभावित कर देती है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि जब भी आवश्यक हो, संबंधित संगठनों के परिधि से बाहर के अभिकरणों एंव कार्मिकों को कार्य और जिम्मेदारियाँ सौंपने के लिये मानक प्रचालन प्रक्रियाएँ तैयार की जाएँ।
  • आपदा प्रबंधन से संबंधित राज्य स्तर की पुस्तिकाओं और नियमपुस्तिकाओं में महामारी से जुड़ी आपातिक स्थिति पर एक अध्याय होना चाहिये। राज्यों के मार्गदर्शन के लिये स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा एक अध्याय परिचालित किया जा सकता है। प्रत्युत्तर तंत्रों के मानकीकरण को सुसाध्य बनाने के लिये प्लेग (सूरत) और जापानी एन्सेपेलाइटिस (पूर्वी उत्तर प्रदेश) जैसी महामारियों की विगत में की गई प्रबंधन व्यवस्था का प्रलेखन करना उपयोगी होगा।

निष्कर्ष

व्यवस्थित तैयारी, शीघ्र चेतावनी, तीव्र, प्रत्युत्तर और स्थाई सुधार संकट प्रबंधन के प्रति आयोग के दृष्टिकोण का आधार रहे हैं।

किसी भी संकट का प्रबंधन करना मुख्यतया सरकार की जिम्मेदारी होती है। लेकिन समाज, स्थानीय निकाय और स्वैच्छिक संगठन भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

उन कार्यतंत्रों पर विशेष ध्यान रखा जाए जो आपदा से पूर्व और आपदा के बाद के कार्यकलापों में सहक्रिया लाते हैं। आयोग का यह विचार है कि संकट प्रबंधन कोई पृथक विषय नहीं है बल्कि यह सामूहिक प्रत्युत्तर सुनिश्चित करने के लिये ऐसे तरीके से इसके सभी क्षेत्रों को शामिल करके समस्याओं को सुलझाने का एक दृष्टिकोण विकसित किये जाने का प्रयास किया जाएगा।

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