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Sambhav-2023

  • 05 Jan 2023 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस- 50

    प्रश्न.1 19वीं शताब्दी के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों का आधार क्या था? आधुनिक भारत में इन आंदोलनों के महत्त्व की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न.2 सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों और उनके नेताओं ने परंपरागत सामाजिक मानदंडों को चुनौती दी थी। इस संदर्भ में किन्हीं दो व्यक्तित्वों का उदाहरण देते हुए उनके योगदान की व्याख्या कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    दृष्टिकोण:

    • सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलन की प्रकृति का परिचय दीजिये।
    • सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों के आधार और आधुनिक भारत में इन आंदोलनों के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • भारत में 19वीं शताब्दी के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलन सामाजिक सुधार के विचार पर आधारित थे और इसका उद्देश्य शिक्षा, महिलाओं के अधिकार और जाति व्यवस्था सहित समाज के विभिन्न पहलुओं में बदलाव लाना था।
    • ये सुधार विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं से प्रेरित थे। जिनमें पश्चिमी उदारवाद, राष्ट्रवाद और पारंपरिक हिंदू विचार शामिल थे। इन आंदोलनों के कई नेता प्रबोधन और फ्रांसीसी क्रांति के विचारों से प्रभावित थे। उनका मानना था कि भारत को प्रगति करने के लिये पश्चिम के कई मूल्यों और संस्थानों को आधुनिक बनाने और अपनाने की आवश्यकता है।

    मुख्य भाग:

    सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों का आधार:

    • मध्य-वर्ग का आधार: उभरता हुआ मध्य वर्ग और शिक्षित (पारंपरिक रूप से शिक्षित और पश्चिमी शिक्षित दोनों) बुद्धिजीवी, 19वीं शताब्दी के सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों के आधार थे। इन आंदोलनों के माध्यम से समाज में व्यापक परिवर्तन लाए गए थे।
    • बौद्धिक मानदंड: तर्कवाद, धार्मिक सार्वभौमिकता और मानवतावाद द्वारा इन आंदोलनों को वैचारिक एकता प्राप्त हुई थी। सामाजिक प्रथाओं की प्रासंगिकता का पता लगाने हेतु तर्कवाद का सहारा लिया गया था। राजा राममोहन राय सत्य की एकमात्र कसौटी के रूप में पूरे अभूतपूर्व ब्रह्मांड और प्रत्यक्षता को जोड़ने वाले कार्य-कारण के सिद्धांत में दृढ़ता से विश्वास करते थे।
      • अक्षय कुमार दत्त ने परंपरागत प्रथाओं का अध्ययन करने के लिये तर्कसंगत दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया था। उन्होंने सामाजिक उपयोगिता के दृष्टिकोण से समकालीन सामाजिक धार्मिक प्रथाओं का मूल्यांकन किया और विश्वास को तर्कसंगतता से बदलने पर बल दिया था।
      • सैय्यद अहमद खान ने इस बात पर जोर दिया था कि धार्मिक सिद्धांत अपरिवर्तनीय नहीं हैं।
      • बहुत से बुद्धिजीवियों ने धर्म की सत्ता को दरकिनार कर दिया और किसी भी धर्म का तर्क या विज्ञान की कसौटी पर अध्ययन किया गया था।
    • सुधार आंदोलनों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है (उनके बीच एकमात्र अंतर यह है कि वह किस हद तक परंपरा और तर्क एवं विवेक पर निर्भर था) -
      • ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, अलीगढ़ आंदोलन जैसे सुधारवादी आंदोलन और
      • आर्य समाज आंदोलन और देवबंदी आंदोलन जैसे पुनरुत्थानवादी आंदोलन।
    • सामाजिक सुधार की दिशा: सामाजिक समानता और सभी व्यक्तियों के समान मूल्य के मानवतावादी आदर्शों ने नव शिक्षित मध्य वर्ग को प्रेरित किया जिसने सामाजिक सुधार के क्षेत्र को प्रमुख रूप से प्रभावित किया था।
      • सामाजिक सुधार आंदोलनों को मुख्य रूप से धार्मिक सुधारों से जोड़ा गया था क्योंकि अस्पृश्यता और लिंग आधारित असमानता जैसी लगभग सभी सामाजिक बुराइयों ने किसी न किसी रूप में धर्म से वैधता प्राप्त की थी।
      • हालांकि बाद के वर्षों में, सामाजिक सुधार आंदोलन ने धीरे-धीरे खुद को धर्म से अलग कर लिया और एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाया था।
        • शुरु में सुधार आंदोलनों का सामाजिक आधार काफी संकीर्ण था, जो उच्च और मध्यम वर्गों और उच्च जातियों तक सीमित था, जिन्होंने अपने आधुनिक विचारों और मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों को संतुलित करने की कोशिश की थी।
        • लेकिन बाद में सामाजिक सुधार आंदोलनों ने सामाजिक क्षेत्र में क्रांति और पुनर्निर्माण के लिये समाज के निचले तबके को भी शामिल किया था।
        • इन सुधारकों ने जनता तक पहुँचने और अपने विचारों को प्रचारित करने के लिये भारतीय भाषाओं का उपयोग किया था। उन्होंने अपने विचारों को प्रचारित करने के लिये विभिन्न प्रकार के मीडिया-उपन्यास, नाटक, कविता, लघु कथाएँ, प्रेस और आगे चलकर 1930 के दशक में सिनेमा का उपयोग किया गया था।

    आधुनिक भारत में इन आंदोलनों का महत्त्व:

    • महिलाओं की स्थिति की बेहतरी के लिये संघर्ष: इस दौरान महिलाओं को आमतौर पर निम्न दर्जा दिया जाता था और उन्हें पुरुषों की तुलना में हीन समझा जाता था, उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती थी। पत्नियों और माताओं के रूप में ही समाज ने महिलाओं के योगदान को मान्यता दी थी।
    • सुधारकों ने मूल रूप से व्यक्तिवाद और समानता के सिद्धांतों की अपील की थी। इन्होंने तर्क दिया कि सच्चा धर्म, महिलाओं को हीन स्थिति में रखने की मंजूरी नहीं देता है।
    • सुधारकों के अथक प्रयासों के कारण, सरकार द्वारा महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिये कई प्रशासनिक उपाय किये गए थे।
    • सती प्रथा का उन्मूलन: राजा राममोहन राय के प्रभाव के कारण गवर्नर-जनरल विलियम बेंटिक ने सती प्रथा को वर्ष 1829 (बंगाल संहिता,1829 के विनियम XVII) के विनियमन द्वारा द्वारा गैर-कानूनी और दंडनीय घोषित किया गया था।
    • कन्या भ्रूण हत्या को रोकना: वर्ष 1795 और 1804 के बंगाल विनियमों में शिशुहत्या को अवैध घोषित किया गया था।
    • विधवा पुनर्विवाह: पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर (1820–91) के प्रयासों के कारण हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 पारित किया गया था। इसमें विधवाओं के विवाह को वैध कर दिया गया और ऐसे विवाहों से होने वाली संतानों को वैध घोषित किया गया था।
    • बाल विवाह को नियंत्रित करना: नेटिव मैरिज एक्ट या नागरिक विवाह अधिनियम, 1872 द्वारा बाल विवाह को प्रतिबंधित करने में विधायी कार्रवाई पर बल दिया गया था।

    जाति आधारित भेदभाव को कम करने में सहायक:

    • ब्रिटिश शासन द्वारा कुछ ऐसी स्थितियाँ बनीं जिनसे जातिगत चेतना को कमजोर करने में सहायता मिली थी। उदाहरण के लिये भूमि को निजी संपत्ति के रुप में मान्यता और भूमि बिक्री से जातिगत समीकरणों में बदलाव आया था।
    • सामाजिक सुधार आंदोलनों द्वारा भी जाति-आधारित शोषण को कम करने का प्रयास किया गया था।
    • समाज को बांटने वाली ताकतों के खिलाफ होने वाले राष्ट्रीय आंदोलन को स्वतंत्रता और समानता जैसे सिद्धांतों से प्रेरणा मिली थी।
    • शिक्षा और जागरूकता में वृद्धि के साथ, निम्न जातियों में स्वयं परिवर्तन को बढ़ावा मिला था।
    • स्वतंत्र भारत के संविधान द्वारा समानता पर बल देने के साथ भेदभाव को निषेध किया गया था।

    निष्कर्ष:

    • ये सुधार आंदोलन आधुनिक भारत में कई कारणों से महत्त्वपूर्ण थे। सबसे पहले, उन्होंने राष्ट्रीय चेतना की भावना पैदा करके और अखंड भारत के विचार को बढ़ावा देकर स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखी थी।
    • दूसरे, उन्होंने पारंपरिक रीति-रिवाजों को चुनौती देने के साथ तर्कसंगतता, समानता और न्याय के मूल्यों को बढ़ावा देकर सामाजिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में योगदान दिया था।
    • अंत में उन्होंने देश के राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ कानूनों, नीतियों और संस्थानों के गठन को प्रभावित किया जो आज भी भारत को प्रभावित कर रहे हैं।

    उत्तर 2:

    दृष्टिकोण:

    • सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों का परिचय दीजिये।
    • सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों से संबंधित किन्हीं दो व्यक्तित्वों के बारे में बताते हुए उनके योगदानों की चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • 19वीं शताब्दी की शुरुआत भारतीय समाज के कुछ प्रबुद्ध वर्गों के बीच आधुनिक दृष्टिकोण विकसित हुआ था। यह आधुनिक दृष्टिकोण आने वाले दशकों के घटनाओं का आधार बना था। इसे 'पुनर्जागरण' के रूप में परिभाषित किया जाता है।

    मुख्य भाग:

    ऐसे कई नेता थे जिन्होंने उदार परिवर्तन लाने के लिये आंदोलन शुरू किया था। जैसे:

    • राजा राम मोहन राय: राजा राम मोहन राय 19वीं सदी की शुरुआत के भारत के अग्रणी समाज सुधारक थे। उन्हें आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। भारतीय समाज में सुधार और आधुनिकीकरण के उनके प्रयासों का उस समय के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था।
      • राम मोहन राय ब्रह्म समाज के संस्थापक थे। यह एकेश्वरवादी हिंदू सुधार आंदोलन था जिसमें वेदों, जाति व्यवस्था और मूर्ति पूजा को खारिज कर दिया गया और इसके बजाय हिंदू धर्म की अधिक तर्कसंगत और प्रगतिशील व्याख्या की वकालत की थी।
      • वह सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे और पारंपरिक हिंदू धर्म को लोकतंत्र, समानता और न्याय के आधुनिक पश्चिमी विचारों के साथ मिलाने की कोशिश करते थे। राम मोहन राय सती प्रथा के मुखर आलोचक भी थे। वर्ष 1829 में इसके उन्मूलन में इन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
      • भारतीय समाज में सुधार और आधुनिकीकरण के उनके प्रयासों ने पारंपरिक सामाजिक मानदंडों को चुनौती दी थी और स्वतंत्रता आंदोलन और एक आधुनिक, लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण की नींव रखी थी।
    • स्वामी दयानंद सरस्वती: स्वामी दयानंद सरस्वती 19वीं शताब्दी के अंत में भारत के हिंदू आध्यात्मिक नेता और समाज सुधारक थे। उनके विचारों का उस समय के सामाजिक और राजनीतिक विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था।
      • स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की थी। इस सुधार आंदोलन द्वारा जाति व्यवस्था और मूर्ति पूजा को खारिज करके हिंदू धर्म में सुधार पर जोर दिया गया था। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था, भ्रष्ट और दमनकारी सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है जिसने हिंदू धर्म के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। इन्होंने निम्न जातियों की शिक्षा और उत्थान की वकालत की थी। दयानंद सरस्वती भी सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे और आध्यात्मिक ज्ञान एवं भाईचारे के सार्वभौमिक संदेश को बढ़ावा देने पर बल देते थे।
      • भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलन में स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान महत्त्वपूर्ण और दूरगामी था। उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी व्यक्तियों में से एक के रूप में याद किया जाता है, और उनकी विरासत आज भी समाज सुधारकों और कार्यकर्ताओं को प्रेरित करती है।
    • इन नेताओं और उनके आंदोलन के अलावा निम्न व्यक्तित्वों द्वारा अन्य आंदोलनों का नेतृत्व किया गया था:
      • आत्माराम पांडुरंग के प्रार्थना समाज, मैडम ब्लावात्स्की और कर्नल ओल्कोट की थियोसोफिकल सोसायटी और हेनरी लुइस विवियन डेरोजियो के यंग बंगाल आंदोलन ने भी सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों में योगदान दिया था।

    निष्कर्ष:

    इन सुधार आंदोलनों और उनके नेताओं ने भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और धर्मनिरपेक्षीकरण को बढ़ावा देने के साथ रूढ़िवादी और अनैतिक प्रथाओं के उन्मूलन एवं शिक्षा, तर्कवाद और समानता की वकालत करके पारंपरिक सामाजिक मानदंडों को चुनौती दी थी। उनके प्रयासों से स्वतंत्रता आंदोलन और आधुनिक, लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण की नींव रखी गई थी।

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