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Sambhav-2023

  • 28 Dec 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    दिवस- 43

    प्रश्न.1 कला और साहित्य में विजयनगर साम्राज्य के योगदान की चर्चा कीजिये। विजयनगर के शासक दोआब और मराठवाड़ा के लिये अपने समकालीन शासकों से युद्धरत क्यों रहते थे। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    प्रश्न.2 मध्यकालीन इतिहास में होने वाले दक्षिण भारत के सांस्कृतिक विकास की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    दृष्टिकोण:

    • विजयनगर साम्राज्य का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • कला और साहित्य में विजयनगर साम्राज्य के योगदान की चर्चा कीजिये।
    • उन कारणों का भी उल्लेख कीजिये जिससे विजयनगर के शासक दोआब और मराठवाड़ा के लिये युद्धरत रहते थे।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    जब मोहम्मद बिन तुगलक दौलताबाद से दिल्ली चला गया था तब वर्ष 1336 में संगम वंश के हरिहर और बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की थी। विजयनगर साम्राज्य पर शासन करने वाले चार राजवंशों में संगम, सुलुव, तुलुव और अराविडु शामिल थे।

    कृष्णदेव राय को विजयनगर साम्राज्य के महानतम राजाओं में से एक माना जाता है और उनके शासन को अक्सर दक्षिण भारत के इतिहास में स्वर्ण काल के रुप में संदर्भित किया जाता है। महान शासक होने के साथ साहित्य और संस्कृति में भी उनका बहुत योगदान था।

    मुख्य भाग:

    कला और साहित्य में विजयनगर साम्राज्य का योगदान:

    इस साम्राज्य की उत्कृष्ट और अद्वितीय स्थापत्य शैली को विजयनगर स्थापत्य शैली के रूप में जाना जाता है।

    विजयनगर शैली: विजयनगर साम्राज्य (1336-1565 ई.) के शासकों की राजधानी हम्पी (कर्नाटक) में थी। इसमें चोल, होयसल, पांड्य और चालुक्य स्थापत्य शैली के तत्त्व मिलते हैं।

    यह शैली बीजापुर की इंडो-इस्लामिक शैली से भी प्रभावित थी जो इस अवधि के दौरान बने मंदिरों में परिलक्षित होती है। इन मंदिरों की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं:

    • मंदिरों की दीवारों को अलंकृत करने के साथ इन्हें ज्यामितीय पैटर्न से सजाया गया था।
    • गोपुरम, जिन्हें पहले मंदिर के सामने की तरफ बनाया जाता था को इस दौरान सभी तरफ बनाया जाने लगा था।
    • इस दौरान एकाश्म शैलकृत स्तंभ बनाए गए थे। इनके चारो ओर की दीवारें बड़ी होती थीं।
    • प्रत्येक मंदिर में एक से अधिक मंडप बनाए गए थे। केंद्रीय मंडप को कल्याण मंडप के रूप में जाना जाने लगा था।
    • इस अवधि के दौरान मंदिर परिसर में धर्मनिरपेक्ष भवनों के निर्माण की अवधारणा भी प्रस्तुत की गई थी।
    • मंदिर परिसर दीवारों से घिरा हुआ रहता था।
      • उदाहरण: हम्पी में विट्ठलस्वामी मंदिर परिसर, लोटस महल, विरुपाक्ष मंदिर और रघुनाथ मंदिर। हम्पी में चट्टान को काटकर बनाई गई नरसिंह की मूर्ति अपने आप में एक आश्चर्य है।
    • संगीतमय स्तंभ (सारेगामा (SaReGaMa) स्तंभ): ये हम्पी में विट्टलस्वामी मंदिर परिसर के स्तंभ हैं जिसमें 56 संगीतमय स्तंभ शामिल हैं जिन्हें सारेगामा स्तंभ भी कहा जाता है। इन स्तंभों पर चोट मारने से संगीतमय स्वर उत्पन्न होता है। इन्हें देवराय द्वितीय (1422-1446 ई.) के शासनकाल के दौरान बनाया गया था।
    • महानवमी डिब्बा: दशहरा डिब्बा या महानवमी डिब्बा हम्पी के शाही परिसर में स्थित एक सुंदर और विशाल पत्थर का मंच है। इसे विजयनगर साम्राज्य के दौरान राजा कृष्णदेवराय ने उदयगिरि पर अपनी जीत के उपलक्ष्य में बनवाया था। इसे लगभग 11,000 वर्ग फुट के आधार पर 40 फुट ऊँचा बनाया गया है। इस मंच के आधार को अलंकृत किया गया है।
    • कृष्णदेव राय का साहित्य में योगदान: उन्होंने तेलुगु भाषा में 'अमुक्तमाल्यद' नामक एक साहित्यिक कृति की रचना की थी, जिसे तेलुगु साहित्य के पंचकाव्यों में से एक माना जाता है। इसके लिये उन्हें आंध्रभोज की उपाधि से विभूषित किया गया था।
      • उन्होंने संस्कृत भाषा में उषा परिणयम और जाम्बवती कल्याणम जैसे अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की थी।
    • कवियों और साहित्यिक विद्वानों का संरक्षण: उन्होंने अल्लासानी पेद्दाना को संरक्षण दिया था, जिन्होंने तेलुगु भाषा में मनुचरित्रम की रचना की थी।
      • इन्होंने व्यास राय जैसे संगीतकारों को आश्रय प्रदान करके कर्नाटक संगीत शैली के विकास में योगदान दिया था।
      • इन्होंने भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों को प्रोत्साहित किया था, जो कृष्णदेव राय के शासनकाल के दौरान अपनी विकसित अवस्था में पहुँचे थे।

    विजयनगर के शासकों का उनके समकालीन शासकों के साथ संघर्ष:

    • विजयनगर के शासकों और बहमनी सुल्तानों के हित तीन अलग-अलग और विशिष्ट क्षेत्रों में प्रतिद्वंदी के रुप में थे जैसे:
      • तुंगभद्रा दोआब
      • कृष्णा-गोदावरी डेल्टा
      • मराठवाड़ा क्षेत्र
    • तुंगभद्रा दोआब, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का क्षेत्र था और इसमें 30,000 वर्ग मील का क्षेत्र शामिल था।
      • संसाधनों के कारण यह क्षेत्र शुरुआत में पश्चिमी चालुक्यों और चोलों के बीच और आगे चलकर यादवों और होयसलों के बीच विवाद का बिंदु रहा था।
    • उपजाऊ होने के साथ कई बंदरगाहों की उपस्थिति के कारण विदेशी व्यापार को नियंत्रित करने में निर्णायक भूमिका वाले कृष्णा-गोदावरी बेसिन के लिये होने वाले संघर्ष को अक्सर तुंगभद्रा दोआब के संघर्ष से जोड़कर देखा जाता था।
    • मराठा क्षेत्र में मुख्य विवाद कोंकण और उन क्षेत्रों पर नियंत्रण को लेकर था, जो इस क्षेत्र तक पहुँच प्रदान करते थे।
      • कोंकण के तहत पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच की भूमि की संकरी पट्टी शामिल थी। यह अत्यधिक उपजाऊ क्षेत्र था जिसके अंतर्गत गोवा का बंदरगाह भी शामिल था। यह बंदरगाह इस क्षेत्र के उत्पादों के निर्यात के साथ-साथ ईरान और इराक से होने वाले घोड़ों के आयात का महत्त्वपूर्ण स्थल था।

    निष्कर्ष:

    • विजयनगर और बहमनी साम्राज्य के बीच अक्सर सैन्य संघर्ष होते रहते थे।
    • इन सैन्य संघर्षों के परिणामस्वरूप विवादित क्षेत्रों और पड़ोसी क्षेत्रों में व्यापक तबाही हुई जिससे जन और धन का काफी नुकसान हुआ था।
    • वर्ष 1565 में विजयनगर और बहमनी साम्राज्य के सभी उत्तराधिकारियों के बीच हुए तालीकोटा के युद्ध से विजयनगर साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

    उत्तर 2:

    दृष्टिकोण:

    • दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • मध्यकाल में विभिन्न शासकों के अंतर्गत दक्षिण भारत में होने वाले सांस्कृतिक विकास की विवेचना कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    दक्षिण भारत में मध्यकाल की शुरुआत को आठवीं शताब्दी ईस्वी में राष्ट्रकूटों के उदय से चिह्नित किया जाता है। आगे चलकर दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, चोल, चेर और विजयनगर जैसे विभिन्न साम्राज्यों का उदय हुआ था।

    इन सभी वंशों का दक्षिण भारत के विकास में अनूठा योगदान था और इनमें से कई ने एक संस्कृति के दूसरी संस्कृति में सम्मिलन में भूमिका निभाई।

    मुख्य भाग:

    राष्ट्रकूटों का योगदान:

    • राष्ट्रकूट शासक शिक्षा और साहित्य के महान संरक्षक थे। इनके शासनकाल में कन्नड़ और संस्कृत साहित्य की काफी प्रगति हुई थी।
    • अमोघवर्ष ने कविराजमार्ग की रचना की थी जो कन्नड़ में कविताओं पर पहली पुस्तक थी।
    • इन्होंने संरचनात्मक मंदिर और गुफा मंदिर का निर्माण कराया था। एलोरा, अजंता और एलिफेंटा इनकी कलात्मक उत्कृष्टता के केंद्र हैं।
    • कैलाश मंदिर को 8वीं शताब्दी के राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम द्वारा निर्मित कराया गया था। इसे पूरी तरह से एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया है।
    • एलीफेंटा गुफा, सात गुफाओं का समूह हैं। इस मंदिर की सबसे प्रभावशाली आकृति ‘त्रिमूर्ति’ की है। ऐसा कहा जाता है कि यह शिव के तीनों रुपों अर्थात सृजक, संरक्षक और विध्वंसक को दर्शाती है। यह यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल है।

    बहमनी साम्राज्य का योगदान: अलाउद्दीन हसन गंगू बहमन शाह ने वर्ष 1347 ईस्वी में बहमनी साम्राज्य की स्थापना की थी।

    • इस काल में फारसी, अरबी और उर्दू साहित्य का विकास हुआ था।
    • मोहम्मद गवन ने फारसी भाषा में कविताओं की रचना की थी। रियाज-उल-इंशा और मनजीर-उल-इंशा उनकी रचनाओं में शामिल हैं।
    • कुछ परिवर्तनों के साथ इन्होंने वास्तुकला की इंडो-इस्लामिक शैली का अनुसरण किया था। भवनों के निर्माण के लिये इन्होंने स्थानीय सामग्री का उपयोग किया था।
    • इनकी वास्तुकला पर फारसी वास्तुकला काअत्यधिक प्रभाव था।
      • इस शैली की कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं जैसे- ऊँची मीनारें, मजबूत मेहराब, विशाल गुंबद और विशाल हजारा आदि।
      • उदाहरण: गुलबर्ग में स्मारक: शाह बाजार मस्जिद, हफ्ता गुंबज, जामा मस्जिद आदि

    नायकों का योगदान: 16वीं और 18वीं शताब्दी ईस्वी के बीच की अवधि में नायक शासकों के अधीन वास्तुकला का विकास हुआ था। इसे मदुरै शैली के नाम से भी जाना जाता था। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

    • गर्भगृह के चारों ओर बरामदे में प्रकारम या विशाल गलियारों की उपस्थिति।
    • नायक शासकों के अधीन निर्मित कुछ गोपुरम काफी बड़े थे। मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में विश्व का सबसे ऊँचा गोपुरम है।

    उत्तरवर्ती चालुक्य शासकों का योगदान या वेसर शैली: इसका विकास सातवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में उत्तरवर्ती चालुक्य शासकों के अधीन हुआ था। इस शैली में नागर और द्रविड़ शैली की विशेषताओं को शामिल किया गया था जिसके परिणामस्वरूप एक मिश्रित शैली का विकास हुआ था। इसकी कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

    • विमान और मंडप पर अधिक बल दिया जाना।
    • गमन के लिये खुले मार्गों का निर्माण।
    • इस दौरान स्तंभों, दरवाजों और छतों को अलंकृत किया गया था।
    • वक्रीय शिखर और वेसर शैली के मंदिरों का वर्गाकार आधार, नागर शैली से प्रेरित है।
    • द्रविड़ शैली का प्रभाव जटिल नक्काशी और मूर्तियों, विमान के डिजाइन और वेसर मंदिरों के सीढ़ीदार शिखर में देखा जा सकता है।
    • उदाहरण: डंबल का डोड्डाबासप्पा मंदिर, ऐहोल का लडखन मंदिर और बादामी के मंदिर।

    होयसल का योगदान: इसका विकास 1050 से 1300 ईस्वी की अवधि में बेलूर, हैलेबिडु और श्रृंगेरी में हुआ था। इनकी कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

    1. केंद्रीय स्तंभ वाले कक्ष के चारो ओर कई पूजनीय स्थल बनाए गए थे।
    2. पंचायतन शैली के विपरीत इसके तहत मंदिर जटिल रूप से डिजाइन किये गए तारे के आकार में बने थे। इसे स्टेलेट योजना के रूप में जाना जाता था।
    3. सॉफ्ट सोपस्टोन (क्लोराइट शिस्ट) इनकी मुख्य निर्माण सामग्री थी।
    4. मूर्तियों के माध्यम से मंदिर की साज-सज्जा पर विशेष बल दिया जाता था। आंतरिक और बाहरी दोनों दीवारें, यहाँ तक कि देवताओं द्वारा पहने जाने वाले आभूषण भी काफी उत्कृष्टता के साथ बनाए गए थे।
    5. मंदिरों को जगती नामक एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया था, जो लगभग 1 मीटर ऊँचा था। मंदिर की दीवारें और सीढ़ियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बनाई गईं थीं।
         उदाहरण: हैलेबिडु का होयसलेश्वर मंदिर, बेलूर का चेन्नाकेशव मंदिर, सोमनाथपुर का चेन्नाकेशव मंदिर।

    निष्कर्ष:

    मध्यकालीन इतिहास की कला एवं संस्कृति में दक्षिण भारतीय राज्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। इस समय प्रायद्वीपीय भारत की मध्यपाषाणकालीन संस्कृति का स्थान स्थापत्य ने ले लिया था। मध्ययुगीन शासकों की स्थापत्य कला को यूनेस्को की सूची में स्थान मिलने के साथ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त हुई है।

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