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Sambhav-2023

  • 30 Nov 2022 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस 19

    प्रश्न- 1. सहकारी समितियाँ क्या हैं? चर्चा कीजिये। सहकारी समितियों को मज़बूत करने के लिये क्या उपाय किये जाने की आवश्यकता है? (250 शब्द)

    प्रश्न- 2. जाति आधारित आरक्षण और सकारात्मक कार्रवाई से समाज के व्यक्तियों का सामाजिक उत्थान हो सकता है। आर्थिक नुकसान के आधार पर सकारात्मक कार्रवाई पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले के आधार पर इस कथन का विश्लेषण कीजिये। (250 Words)

    उत्तर

    उत्तर 1:

    हल करने का दृष्टिकोण

    • सहकारी समितियों से संबंधित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों की चर्चा कीजिये।
    • भारत में सहकारी समितियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा करते हुए, सहकारी आंदोलन की क्षमता का उपयोग करने के लिये उठाए जाने आवश्यक कदमों के बारे में बताइए ।
    • उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय

    • सहकारी समिति साझी जरूरतों वाले व्यक्तियों की एक स्वैच्छिक संस्था होती है जो साझे आर्थिक हित के लिये एक साथ आते हैं। इनका उद्देश्य स्वयं सहायता और पारस्परिक सहायता के सिद्धांत के माध्यम से अपने सदस्यों को (मुख्य रूप से समाज के गरीब वर्गों को) सहायता प्रदान करना है।
    • विश्व की 12 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 30 लाख से अधिक सहकारी समितियों के माध्यम से सहकारिता से जुड़ी हुई है। भारत में कार्यरत विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियाँ- उपभोक्ता सहकारी समितियाँ, उत्पादक सहकारी समितियाँ, आवास सहकारी समितियाँ हैं। भारत की विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त दो संस्थाएँ- अमूल और इफको (Amul, and IFFCO) हैं।

    मुख्य भाग

    सहकारी समितियों के लिये संवैधानिक और कानूनी प्रावधान:

    सहकारी समितियों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान: 97वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2011 के द्वारा सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा दिया गया।

    • इसने सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया (अनुच्छेद 19)।
    • इसमें सहकारी समितियों के संवर्धन को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 43-B) में शामिल किया गया था।
    • इसके द्वारा संविधान में एक नया भाग IX-B शामिल किया गया (जिसका शीर्षक "सहकारी समितियाँ" है) (अनुच्छेद 243- ZH से 243- ZT)।
    • राज्य स्तर की सहकारी समितियाँ 7वीं अनुसूची की राज्य सूची के तहत आती हैं और बहु-राज्य सहकारी समितियाँ 7वीं अनुसूची की संघ सूची के अंतर्गत आती हैं।

    कानूनी प्रावधान: बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002 के साथ सहकारी समितियों को विनियमित करने के लिये संबंधित राज्यों द्वारा कई कानून पारित किये हैं।

    यद्यपि भारत में कई विश्व स्तर की सहकारी समितियाँ हैं, लेकिन सहकारी समितियों के समक्ष आने वाली निम्नलिखित चुनौतियों के कारण यह भारतीयों में जमीनी स्तर पर सहकारी भावना और सहकारी संस्कृति को स्थापित करने में असफल हैं :

    भारत में सहकारी समितियों के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ:

    • लोकतांत्रिक भावना का अभाव:
    • विभिन्न नियमों के साथ वित्त के प्रमुख स्रोत होने के कारण सरकार का सहकारी समितियों में अधिक हस्तक्षेप बना रहता है।
    • मजबूत राजनीतिक संबद्धता के साथ समाज के स्थानीय रूप से शक्तिशाली सदस्यों के प्रभुत्व के कारण सहकारी समितियों का राजनीतिकरण होना।
    • विकास में क्षेत्रीय असंतुलन: पूर्वोत्तर और उत्तरी क्षेत्रों की तुलना में सहकारी समितियाँ महाराष्ट्र और गुजरात में अधिक हैं।
    • कम प्रसार: अधिकांश सहकारी समितियों में सदस्यों का दायरा काफी सीमित होता है और उनका कार्य क्षेत्र केवल एक या दो गाँवों तक सीमित रहता है।
    • अपर्याप्त मानव संसाधन: कुशल कार्यबल की कमी और कुशल कर्मियों को आकर्षित करने में सहकारी संस्थाओं की अक्षमता सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है।
    • सहकारी विनियमन से संबंधित चुनौतियाँ:
      • दोहरा विनियमन: राज्य में समितियों के रजिस्ट्रार और भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा इनके विनियमन के परिणामस्वरूप जवाबदेहिता में कमी आई है।
        • उदाहरण के लिये जवाबदेहिता में कमी के कारण पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी बैंक (PMC) विफल हो गया।
      • सिंकिंग बैलेंस शीट: वाणिज्यिक बैंकों की तुलना में कई सहकारी बैंकों की गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) अधिक है।

    इन चुनौतियों को कम करने हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कुछ कदम हैं:

    • सहकारिता मंत्रालय की स्थापना "सहकारिता आंदोलन को मज़बूत करने हेतु एक अलग प्रशासनिक, कानूनी और नीतिगत ढाँचा बनाने" के लिये की गई है।
    • बैंकिंग विनियमन (संशोधन) अधिनियम, 2020 RBI को सहकारी बैंकों के बोर्डों को समाप्त करने और सहकारी बैंकों को इक्विटी या वरीयता शेयरों के सार्वजनिक निर्गम और निजी प्लेसमेंट के माध्यम से धन जुटाने की अनुमति देता है।

    हालाँकि सहकारी आंदोलन की क्षमता का दोहन करने के लिये कई कदम उठाए जाने की आवश्यकता है:

    • सहकारी समितियों के राजनीतिक प्रभाव को कम करने और इसमें समावेशिता हेतु लोकतांत्रिक भावना को बढ़ावा देना चाहिये।
    • सहकारी समितियों को सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के दायरे में लाना चाहिये।
    • सहकारी समितियों के निदेशक को प्रतिवर्ष अपनी संपत्ति घोषित करना अनिवार्य करना चाहिये।
    • सदस्यों में अधिकारों के साथ-साथ सहकारी समितियों के उद्देश्य के बारे में जागरूकता का प्रसार करना।
    • समाज के सदस्यों के बीच नैतिक व्यवहार और सहयोग की भावना सुनिश्चित करने के लिये मूल्य-आधारित शिक्षा प्रदान करना।
    • बहुउद्देशीय समाजों को अपने सदस्यों की जरूरतों के बारे में संतुलित एवं एकीकृत दृष्टिकोण रखने के लिये प्रोत्साहित करना और तदनुसार इस क्रम में कमजोर व अक्षम समाजों को मज़बूत तथा कुशल समाजों के साथ विलय भी किया जा सकता है।
    • सहकारी समितियों के कर्मचारियों को कुशल बनाने के साथ उन लोगों को प्रशिक्षण प्रदान करना जो सहकारी समितियों का गठन करना चाहते हैं।
    • देश में चार्टर्ड अकाउंटेंसी के पेशे को विनियमित करने के लिये बार काउंसिल फॉर एडवोकेट्स (Bar Council for Advocates) और इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (The Institute of Chartered Accountants of India- ICAI) जैसी सहकारी समितियों के लिये स्व-विनियमन निकाय की आवश्यकता है।

    निष्कर्ष

    अन्य संगठनात्मक व्यवस्थाओं की तरह सहकारी समितियों को अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने हेतु गतिशील और अत्याधुनिक विश्व में उपयुक्त विनियमन, बेहतर बुनियादी ढाँचे और कुशल मानव संसाधनों की आवश्यकता है।


    उत्तर 2:

    दृष्टिकोण:

    • भारत में आरक्षण की अवधारणा का परिचय दीजिये।
    • आरक्षण के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा करते हुए आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण के पक्ष में तर्क दीजिये।
    • उपयुक्त रूप से निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    • आरक्षण सकारात्मक कार्रवाई का एक रूप है जिसके तहत धार्मिक/भाषाई, अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, विभागों और सभी सार्वजनिक और निजी शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों और अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये सीटों का कुछ प्रतिशत आरक्षित किया जाता है, जिनका सेवाओं और संस्थानों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व होता है।
      • भारत की संसद में प्रतिनिधित्व हेतु अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये भी आरक्षण नीति का विस्तार किया गया है।

    मुख्य बिन्दु:

    आरक्षण के लिये कई संवैधानिक प्रावधान हैं जैसे:

    • संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) द्वारा सरकारों को अनुसूचित जाति व जनजति के लोगों के लिये सार्वजनिक सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाया गया है।
    • अनुच्छेद 16 (4 A): यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में राज्य के अधीन सेवाओं में किसी भी वर्ग या पदों के वर्गों में पदोन्नति के मामले में आरक्षण के लिये प्रावधान करता है।

    103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनारक्षित श्रेणियों से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिये 10% आरक्षण प्रदान किया गया है। इससे संविधान में कुछ प्रावधान शामिल किये गए जैसे:

    • इससे "आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों" (EWS) की उन्नति के लिये सरकार को विशेष उपबंध (आरक्षण तक सीमित नहीं) करने में सक्षम बनाने के लिये अनुच्छेद 15 में संशोधन किया गया है।
      • शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश हेतु ऐसे वर्गों के लिये 10% तक सीटें आरक्षित की जा सकती हैं।
    • इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 (6) जोड़ा गया जो सरकार को "आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों" के लिये सभी पदों को 10% तक आरक्षित करने की अनुमति देता है।
    • EWS के लिये दिया जाने वाला 10% तक का आरक्षण SC,ST और OBC के लिये 50% आरक्षण की मौजूदा सीमा के अतिरिक्त होगा।

    जाति आधारित आरक्षण बहुत लंबे समय से लागू है और इसके पक्ष और विपक्ष हैं। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले (जिसमें आर्थिक मानदंडों के आधार पर EWS के 10% आरक्षण को बरकरार रखा गया है) से इस बारे में बहस शुरु हो गई है कि क्या आर्थिक स्थिति आरक्षण के लिये एकमात्र मानदंड हो सकती है?

    आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण के पक्ष में तर्क:

    • अभाव मूल्यांकन हेतु नए मानदंडों की आवश्यकता: राम सिंह बनाम भारत संघ (2015) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सामाजिक अभाव जाति से परे मौजूद हो सकते हैं (उदाहरण के लिये आर्थिक स्थिति /लैंगिक पहचान जैसे कि ट्रांसजेंडरों की स्थिति)।
      • अतः पिछड़ेपन की जाति-केंद्रित परिभाषा को बदलने के लिये, नए मानदंड विकसित करने की आवश्यकता है ताकि यह सूची गतिशील बनी रहे और अभावग्रस्त व्यक्तियों को सकारात्मक कार्रवाई का लाभ मिल सके।
    • कृषि संकट (उत्पादकता और मजदूरी दर में कमीं के कारण) और प्रमुख किसान जातियों द्वारा आरक्षण की मांग से बढ़ती आर्थिक असमानता और भी स्पष्ट होती है। उदाहरण के लिये गुजरात में पाटीदार, हरियाणा में जाट आरक्षण की माँग आदि।
    • वर्ग-जाति भेद: वर्ग (आर्थिक परिस्थितियों द्वारा निर्मित) और पहचान ( पहचान जन्म व जाति द्वारा बनाई गई) की राजनीति में हाल के दिन में संघर्ष तीव्र हुआ है, सकारात्मक कार्रवाई और वर्ग आंदोलनों से प्राप्त लाभ प्रमुख रूप से मध्यम वर्ग और अभिजात वर्ग को ही मिल पाए हैं। इसने समान या कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले ऐसे समुदायों के बीच असंतोष की भावना पैदा की है जिन्हें जाति आधारित आरक्षण से बाहर रखा गया है।

    हालाँकि इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जाति आधारित आरक्षण समावेशी विकास का समाधान नहीं है साथ ही आरक्षण के लिये एकमात्र मानदंड के रूप आर्थिक स्थिति को स्वीकार करना भी सामाजिक-ऐतिहासिक आदि जैसे कारकों के कारण उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

    • समानता के मानदंड के खिलाफ: पिछड़े वर्गों के अवसर की समानता को हर किसी के समानता के अधिकार के खिलाफ संतुलित करने के लिये, आरक्षित सीटों पर 50% की सीमा लगाई गई थी। जब कोटा 50% सीमा से अधिक हो जाता है तो इससे इस समानता मानदंड का उल्लंघन होता है।
    • पर्याप्त प्रतिनिधित्व:सरकारी रोजगार में उच्च जाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है।
    • आय सीमा के साथ समस्या: पात्रता के लिये आय सीमा 8 लाख रुपये प्रति वर्ष तय करके ('क्रीमी लेयर' सीमा के समान), जिसके ऊपर ओबीसी उम्मीदवार आरक्षण के लिये अयोग्य हो जाते हैं – आरक्षण में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के बीच समानता की ही स्थिति उत्पन्न करता है।
    • आय के गलत विवरण के कारण लाभार्थियों की पहचान में चुनौतियाँ, आर्थिक पात्रता मानदंड लागू करना जटिल बना देता है।
    • अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों ने अपने-अपने कोटे के भीतर आर्थिक मानदंडों के आधार पर इसी प्रकार के उप-वर्गीकरण शुरू करने की मांग की है।
    • योग्यता विरोधी: आम धारणा में आरक्षण भी अभाव वाली स्थिति का पर्याय बन गया है और EWS आरक्षण के बाद जनता के मन में आरक्षण की भावना और गहरी हो सकती है।
    • लोकलुभावनवाद का उपकरण: आरक्षण देना, राजनीति में राजनीतिक लाभ का एक उपकरण बन गया है।

    आगे की राह

    लाभार्थियों का निष्पक्ष और पारदर्शी सत्यापन और निजी क्षेत्र में रोजगार सृजन में सुधार, आरक्षण प्रणाली से बाहर निकलने का एकमात्र उपाय है इसीलिये भारत को सशक्त करने के लिये, निजी क्षेत्र में औपचारिकता और अधिक बेहतर नौकरियों के सृजन के लिये एक सक्षम वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है।

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