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क्या बढता हुआ संरक्षणवाद वैश्वीकरण के अंत का सूचक है?

  • 13 Jun 2017
  • 15 min read

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन ने इतिहास को साक्षी मानते हुए कहा था- “आज तक किसी भी पीढ़ी को ऐसा सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ जो हमें प्राप्त हुआ है; वह है- एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था के निर्माण का जिसमें कोई पिछड़ा हुआ नहीं रहेगा। यह हमारे लिये गंभीर उत्तरदायित्व निभाने का एक बेहतरीन अवसर है।“ इसी को हम वैश्वीकरण कहते है, जो विश्व के एकीकरण की एक प्रक्रिया है। इस एकीकृत विश्व में लोग वस्तुओं और सेवाओं से लेकर विचारों एव नवाचारों तक का आदान-प्रदान करते हैं।

अब, इस संदर्भ में अगर हम वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दृष्टिकोण की बात करें तो उनके विचारों का मुख्य सार ‘एकला चलो’ अर्थात् ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति है। इसके तहत विभिन्न वस्तुओं, सेवाओं एवं नागरिकों के निर्बाध आवागमन पर प्रशुल्क, कोटा एवं वीज़ा के माध्यम से विभिन्न प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिये गए हैं। इसी नीति के तहत ट्रंप सरकार ने प्रशान्त-पारीय, उत्तरी अटलांटिक एवं अटलांटिक-पारीय देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौंतो जैसे- टीपीपी, एनएएफटीए और टीटीआईपी को भी समाप्त करने की घोषणा कर दी है। इन सभी कदमों का मुख्य उद्देश्य अमेरिकी उत्पादकों, व्यापारियों एवं कार्मिकों को आयात प्रतिस्पर्द्धा से संरक्षण प्रदान करना है, यही विचारधारा संरक्षणवाद कहलाती है।

क्लिंटन बनाम ट्रंप अर्थात् वैश्वीकरण बनाम संरक्षणवाद की यह दुविधा अमेरिका ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान है। वर्तमान वैश्विक परिवेश को अगर हम व्यापक दृष्टि से देखें तो सम्पूर्ण विश्व मुख्यतः दो भागों में बंटा हुआ नज़र आता है-

संरक्षणवादी पश्चिम- इसमें पश्चिमी दुनिया के विकसित देश सम्मिलित हैं, जो संरक्षणवादी विचारधारा को प्रोत्साहन दे रहे हैं, मसलन- ब्रिटेन का ‘ब्रेक्जिट’, अमरिका का ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ बाई ‘अमेरिका फर्स्ट’। कुछ इसी तरह विश्व के विकसित एवं उभरते देशों के समूह जी-20 ने भी संरक्षणवादी नीतियों को अपनाने पर बल दिया है। यूरोपीय संघ के देशों द्वारा टीटीआई एवं टीपीपी का विरोध यह स्पष्ट करता है कि सम्पूर्ण पश्चिमी जगत वैश्वीकरण के विरोध में लामबंद हो चुका है, इसी का परिणाम है कि पेरिस इटली की ऊर्जा-फर्म के मुँह पर दरवाज़ा बन्द कर रहा है, तो अमेरिकी सीनेटर अपने बंदरगाहों पर विदेशी नागरिकों एवं माल के विरोध में मार्च निकाल रहे हैं एवं यूरोप में पहुँचने वाले चीनी माल को टैरिफ से रोककर स्थानीय उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है।

वैश्वीकृत पूर्व- इसमें एशिया, मध्य एशिया एवं अफ्रीका महाद्वीप के विकासशील एवं अल्पविकसित देश शामिल हैं। जहाँ मुक्त व्यापार समझौंते, उदारीकृत कर व्यवस्था एवं निवेश आकृष्ट करने हेतु नियमों के सरलीकरण की प्रक्रिया आज भी बदस्तूर जारी है। यह यहाँ की जनता एवं सरकार का वैश्वीकरण में बढ़ते विश्वास को अभिव्यक्त करता है। हम निस्संकोच कह सकते हैं कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था एशिया में स्थानांतरित हो चुकी है। इस क्षेत्र में सर्वप्रमुख है- ‘एशियन टाइगर्स’ जो इस क्षेत्र में मुक्त व्यापार की सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है। दूसरा, विश्व का सबसे बड़े बाज़ार एवं मैन पावर से युक्त भारत है, जो स्वयं में एक विश्व है। इसकी विविधता ने ही यहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की संस्कृति को पल्लवित एवं पोषित किया है। चीन एवं जापान इस क्षेत्र की महाशक्तियाँ हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी है। वहीं दूसरी ओर अफ्रीका एवं एशिया के विकासशील व अल्पविकसित राष्ट्र हैं, जो विकास के लिये विदेशी निवेश एवं विदेशी व्यापार पर निर्भर हैं। अतः संरक्षणवादी नीतियाँ इन राष्ट्रों के लिये वज्रपात के समान होंगी।

उपर्युक्त दोनों स्थितियों का विश्लेषण करने के पश्चात् अगर हम यह सोचें कि ऐसा अचानक क्या हो गया कि वैश्वीकरण के स्थान पर संरक्षणवाद नीति-निर्माताओं की नीतियों का मुख्य आधार बन गया है तो जवाब है- 2007-08 की वैश्विक आर्थिक मंदी जिसने दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों को अपनी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करने हेतु बाध्य कर दिया, और इस विचार-मंथन से जो निष्कर्ष उभरकर आया है, वह है- ‘वैश्वीकरण का अंत और संरक्षणवाद का प्रारम्भ।’

यह सत्य है कि संरक्षणवाद लघुकाल के लिये लाभप्रद हो सकता है लेकिन इसके साथ यह भी सत्य है कि इससे महज घरेलू समस्याओं का ही समाधान हो पाएगा, जबकि वैश्विक समस्याएँ अधिक विकराल रूप धारण करके हमारे समक्ष उपस्थित होंगी, मसलन- जब बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी एक देश में सिमट जाएंगीं तो पहले से जिन-जिन देशों में कार्यरत थीं, वहाँ अनुत्पादकता, बेरोज़गारी एवं अभावों को छोड़कर जाएंगी, जबकि अपने गृह राष्ट्र में ये अनावश्यक बोझ के समान होंगी। इसी प्रकार, अगर ट्रंप सरकार अमेरिका में आई-फोन का निर्माण करना चाहे तो कच्चे माल एवं सस्ते श्रम जैसी अनेक समस्याओं से जूझकर जिन आई-फोन्स का उत्पादन होगा वे इतने महँगे होंगे कि आम नागरिक की पहुँच से दूर हो जाएंगे। अतः आज विश्व इस हद तक एकीकृत हो चुका है कि अनेक वस्तुओं का उत्पादन राष्ट्रों पर निर्भर करता है जैसे- फोर्ड कार, सोनी म्यूजिक सिस्टम एवं अनेक मशीनों का भविष्य भी धर्मसंकट में फँस जाएगा। सारांशतः कहें तो अनेक कम्पनियों को अपने उत्पादों के लिये बाज़ार नहीं मिलेंगे, वहीं कई बाज़ारों को उत्पाद नहीं मिलेंगे। ऐसी स्थिति में यह घोषित करना कि वैश्वीकरण अपने अंत की ओर उन्मुखी है, एक अपरिपक्व सोच होगी।

वैश्वीकरण महज मुक्त सीमाओं या मुक्त व्यापार से युक्त आर्थिक एकीकरण तक सीमित नहीं रहा है वरन् इससे विविध रूपों में विश्व का एकीकरण किया है जैसे- 

वैचारिक वैश्वीकरण
इसमें समस्त इन्टरनेट उपयोगकर्ता सम्मिलित हैं, जो एक ऐसे विश्व की वकालत करते हैं जो अधिक खुला एवं अधिक कनेक्टेड हो।

नव-आर्थिक वैश्वीकरण
इसमें ई-कॉमर्स में सलंग्न एक लाख से अधिक कंपनियाँ सम्मिलित हैं, जो वैश्वीकरण की ओर अधिक उदार एवं विश्व को ओर अधिक करीब लाने की ओर उन्मुख हैं ताकि वैश्विक अवसरों का लाभ उठाकर स्वयं को अधिक सशक्त बनाया जा सके।

सामाजिक वैश्वीकरण
आज विश्व के सभी नागरिक व्यापार, शिक्षा, अनुसंधान एवं रोज़गार हेतु विदेशों में निवास कर रहे है। ऐसे निवासी अपने गृहराष्ट्र से भी सम्बद्ध होते हैं जो दोनों देशों के समाजों के मध्य कड़ी का कार्य करते हुए समाज के वैश्वीकरण को सफल बनाते हैं।

राजनीतिक वैश्वीकरण
विश्व के लगभग सभी राष्ट्रों में सभी देशों के नागरिक निवास कर रहे हैं। इन निवासी नागरिकों को उन देशों में मतदान का अधिकार भी प्राप्त है, जिनके माध्यम से एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की नीतियों को प्रभावित कर रहा हैं। ऐसे में संरक्षणवाद कहाँ तक सफल हो पाएगा, यह तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा है।

इस विश्लेषण के पश्चात् हम यह निष्कर्ष तो कतई नहीं निकाल सकते कि वैश्वीकरण अन्तर्मुखी है। माना कि पश्चिमी देशों में निवेश एवं रोज़गार में कमी आई है, लेकिन संरक्षणवाद को नई वैश्विक व्यवस्था के रूप में प्रचारित करना पश्चिमी देशों की दोगली नीति का परिचायक है। पश्चिमी देशों की मुक्त व्यापार विरोधी नीति के पीछे मुख्यतः संरक्षणवादियों एवं वहाँ की जनता का बेरोज़गारी एवं वेतन-कटौती को लेकर भय है, जिसके परिणामस्वरूप आज पूरा पश्चिमी जगत मुक्त व्यापार के विरोध में सड़कों पर उतर आया है। अतः संरक्षणवादी विचारक यह मानते हैं कि प्रत्येक सरकार को देशहित में अर्थव्यवस्था एवं नागरिकों को संरक्षण प्रदान करने हेतु कुछ वैधानिक प्रतिबंध लगाने का अधिकार होना चाहिये। संरक्षणवादी व्यवस्था का अध्ययन करने के पश्चात् हम कह सकते है कि-

संरक्षणवाद दीर्घकालिक वृद्धि हेतु आवश्यक है
1870-90 के काल में यूरोप में आर्थिक एवं औद्योगिक वृद्धि के लिये संरक्षणवाद को आवश्यक समझा जाता था। इस काल में जहाँ जी.एन.पी. एवं औद्योगिक वृद्धि दर क्रमशः 2.61 प्रतिशत एवं 3.8 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, वहीं उदारीकरण के पश्चात् ये दरें घटकर क्रमशः 1.71 एवं 1.8 प्रतिशत हो गईं। यह तथ्य स्वयं में वैश्वीकरण पर पुनर्विचार करने हेतु पर्याप्त है।

शिशु उद्योगों के संरक्षण हेतु
संरक्षणवादी विचारक विकास की तीव्र प्रतिस्पर्द्धा से नवीन उद्योगों को सरक्षण प्रदान करना आवश्यक मानते हैं जैसा कि ब्रिटेन ने औद्योगिक क्रान्ति हेतु एवं अमेरिका ने आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु संरक्षणवादी नीतियों का आश्रय लिया।

राजनीतिक स्वतंत्रता हेतु आर्थिक स्वतंत्रता प्राथमिक शर्त
यह बहुत ही सामान्य एवं सार्वभौमिक सत्य है कि कोई भी राष्ट्र तब तक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र एवं सम्प्रभु होकर निर्णय नहीं कर सकता, जब तक वह आर्थिक रूप से अन्य राष्ट्रों पर निर्भर है। अतः वैश्वीकरण वैश्विक वित्त तो उपलब्ध करवाता है लेकिन कमज़ोर राष्ट्र इस एवज में अपनी सम्प्रभुता खो बैठते हैं।

आर्थिक सशक्तीकरण
संरक्षणवादी विचारक संरक्षणवाद को एक राष्ट्र की स्थानीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने के लिये भी आवश्यक मानते हैं। इसके माध्यम से जहाँ कोई देश प्रशुल्क, कोटा, वीज़ा एवं अन्य नियमों के माध्यम से अपना व्यापार घाटा कम कर सकता है, तो वहीं रोज़गार व औद्योगिक वृद्धि दर को बढ़ा भी सकता है।

अतः हम कह सकते है, कि एक देश की स्थानीय समस्याओं के लघुकालिक निराकरण हेतु संरक्षणवाद महत्त्वपूर्ण है, लेकिन इसे वैश्वीकरण के ‘साइड-इफेक्ट’ के निवारण हेतु रामबाण औषधि समझना हमारे लिये एक ऐतिहासिक सिद्ध हो सकता है।

निष्कर्ष
आज हमें आवश्यकता है एक ऐसी सन्तुलित व्यवस्था की जिसका दृष्टिकोण वैश्विक हो एवं क्रियान्वयन स्थानीय हो अर्थात् ‘ग्लोकल एप्रोच’ जिसमें ‘थिंक ग्लोबल’ एवं एक्ट लोकल’ पर बल दिया जाता है। ‘ग्लोकल’ वास्तव में आर्थिक गतिविधियिों का वैश्विक एकीकरण है। इसका उद्देश्य दुनिया का कोई भी उत्पादक विश्व के किसी भी कोने में सस्ती एवं बेहतर तकनीक से उत्पादन करे और उसे दुनिया के किसी भी बाज़ार में बेचकर वाजिब लाभ कमाए। अतः सारांश में कह सकते हैं कि ‘ग्लोकल’ में ‘वसुधैव-कुटुम्बकम’ का भाव निहित है। जिसमें अतीत का अनुभव, वर्तमान की ताकत एवं भविष्य की चुनौतियों से निपटने का समाधान समाहित है। हमारे समक्ष ‘ग्लोकल’ दृष्टिकोण का सबसे सफल उदाहरण स्वयं महात्मा गांधी हैं, जिन्होंने यह स्वीकार करते हुए कहा कि-

"मैं, ऐसा घर नहीं चाहता जो चारों-ओर से दीवारों से घिरा हो और जिसकी खिड़कियाँ जाम हो चुकी हों, वरन् मैं एक ऐसा खुला घर पसंद करूँगा जहाँ चारों ओर की स्वस्थ हवाएँ बहें।"

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