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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

कितना प्रासंगिक है ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ का विचार?

  • 02 Feb 2018
  • 12 min read

संदर्भ:

  • चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व माना जाता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र का अभिन्न अंग हैं।
  • आज भारतीय लोकतंत्र उस अवस्था में है जहाँ दिखावे का बोलबाला है, जहाँ चुनाव-दर-चुनाव राजनैतिक दलों का अनैतिक धन पानी की तरह बहाया जाता है।
  • प्रत्येक पाँच वर्षों में संसद और विधानसभाओं में बैठने वाले चेहरे तो बदल जाते हैं, नहीं बदलती है तो बदहाल जनता की किस्मत।
  • वस्तुतः भारत एक बड़ा देश है जहाँ कभी आम चुनाव तो कभी 29 राज्यों में से किसी-न-किसी राज्य के विधानसभा चुनाव वर्ष भर चलते रहते हैं।
  • ऐसे में एक बड़े तबके द्वारा लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित किये जाने का समर्थन किया जा रहा है।

आज हम वाद-प्रतिवाद-संवाद के ज़रिये एक देश एक चुनाव से संबंधित सभी बिंदुओं पर चर्चा करेंगे।

वाद
उचित है ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार

  • लोकतंत्र का मजबूतीकरण:
    ► जनतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य सुशासन सुनिश्चित करना भी है। एक देश एक चुनाव स्थिरता, निरंतरता और सुशासन सुनिश्चित करने में अहम साबित होगा।
    ► जीएसटी लाए जाने से पहले केंद्र एवं राज्यों की अलग-अलग कर व्यवस्थाएँ थीं, लेकिन कर सुधार हेतु संविधान का संशोधन किया गया और आज जीएसटी एक बड़ा सुधार है।
    ► यदि संशोधनों का उद्देश्य लोकतंत्र और शासन को मज़बूत करना है, तो इन्हें लाया जाना चाहिये।
  • भ्रष्टाचार पर लगाम:
    ► एक देश एक चुनाव भ्रष्टाचार को रोकने और एक अनुकूल सामाजिक-आर्थिक वातावरण के निर्माण का साधन भी हो सकता है।
    ► यद्यपि, चुनावों के दौरान होने वाली अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगाने में  निर्वाचन आयोग के प्रयास प्रशंसनीय हैं, फिर भी चुनावों में कालेधन का जमकर इस्तेमाल होता है।
    ► अतः एक साथ चुनाव संपन्न कराए गए तो भ्रष्टाचार और काले धन पर अंकुश लगाया जा सकता है।
  • आदर्श आचार संहिता का मुद्दा:
    ► विदित हो कि चुनाव की तारीखें तय होते ही लागू आदर्श आचार संहिता (model code of conduct) के कारण सरकारें नए विकास कार्यक्रमों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती हैं।
    ► बार-बार होने वाले चुनावों के कारण राजनीतिक दलों द्वारा एक के बाद एक लोक-लुभावन वादे किये जाते हैं, जिससे अस्थिरता तो बढ़ती ही है, साथ में देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है।
  • सुरक्षा संबंधी चिंताएँ :
    ► व्यापक शासन संरचना और कई स्तरों पर सरकार की उपस्थिति के कारण देश में लगभग प्रत्येक वर्ष चुनाव कराए जाते हैं।
    ► देश में एक या एक से अधिक राज्यों में होने वाले चुनावों में यदि स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल कर दिया जाए तो ऐसा कोई भी साल नहीं होगा जिसमें कोई चुनाव न हुआ हो।
    ► गौरतलब है कि बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों को भी चुनाव कार्य में लगाना पड़ता है, जबकि देश की सीमाएँ संवेदनशील बनी हुई हैं और आतंकवाद का खतरा बढ़ गया है।
  • सरकारी खज़ाने पर अतिरिक्त दबाव:
    ► विदित हो कि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च हुए और वर्ष 2014 में यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़ रुपए हो गया।
    ► बार-बार चुनाव कराने से एक ओर जहाँ सरकारी खज़ाने पर बोझ बढ़ता है, वहीं शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में भी काम-काज प्रभावित होता है।
    ► ऐसा इसलिये क्योंकि बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हैं।

प्रतिवाद
उचित नहीं है ‘एक देश, एक चुनाव’

  • संघीय ढाँचे के विरुद्ध:
    ► भारत में संघीय ढाँचे के साथ-साथ एक बहु-पक्षीय लोकतंत्र है जहाँ राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिये चुनाव अलग-अलग होते हैं।
    ► विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, जहाँ जनता पार्टियों और नेताओं को राज्य में किये गए उनके कार्यों के आधार पर उन्हें वोट करती है।
    ► लोकसभा और विधानसभा दोनों के ही चुनाव यदि एक साथ संपन्न कराए जाते हैं तो जनता के बीच एक द्वंद्व कायम रहेगा जो स्थानीय मुद्दों से उसका ध्यान भटका सकता है और यह संघीय ढाँचे के अनुरूप नहीं होगा।
  • कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं:
    ► दरअसल, संविधान में कोई प्रावधान नहीं है जो यह कहता हो कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं।
    ► भारत में वर्ष 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते अवश्य थे।
    ► लेकिन इसका कारण कोई सांविधिक प्रावधान नहीं, बल्कि लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं का एक ही समय पर विघटित होना था।
    ► चुनाव आयोग के मुताबिक एक साथ चुनाव कराने के लिये संविधान संशोधन की भी आवश्यकता होगी।
  • नियंत्रण एवं संतुलन व्यवस्था का लोप संभव:
    ► बार-बार होने वाले चुनाव सरकार के लिये एक नियंत्रण एवं संतुलन की व्यवस्था कायम रखने का कार्य करते हैं।
    ► दरअसल, इससे जन-प्रतिनिधियों के मन से यह भय जाता रहेगा कि किसी एक राज्य में काम न करने की सज़ा पार्टी को दूसरे राज्य में मिल सकती है।
    फलस्वरूप  केद्र एवं राज्य दोनों ही स्तरों पर एक ही साथ काम-काज़ कम हो सकता है और इससे जनता के हितों को आघात पहुँचेगा।
  • अन्य महत्त्वपूर्ण कारण:
    ► चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को वैकल्पिक रोज़गार प्राप्त होता है एक साथ चुनाव न कराए जाने से बेरोज़गारी में वृद्धि होगी।
    ► यदि किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो इन परिस्थितियों में भी चुनाव आवश्यक हो जाता है।
    ► ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ के लिये राजनीतिक पार्टियों में मतैक्यता का अभाव है, जिससे पार पाना काफी मुश्किल कार्य है।
    ► देश भर में एक साथ चुनाव कराने के लिये पर्याप्त संख्या में अधिकारियों व कर्मचारियों की आवश्यकता होगी।
    ► एकीकृत चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है।

संवाद:
क्या है वस्तुस्थिति?

  • वांछनीय किंतु संभव नहीं:
    ► एक देश एक चुनाव वास्तव में वांछनीय है, लेकिन संभव प्रतीत नहीं हो रहा है। इसके लिये सभी राजनीतिक दलों की सहमति अनिवार्य है लेकिन ऐसा शायद ही हो।
    ► इसके लिये संवैधानिक और वैधानिक संशोधनों का मसौदा तैयार करना होगा। एक साथ चुनाव कराने के लिये संभव कार्य-योजना भी तैयार करनी होगी और यह सब आसान नज़र नहीं आ रहा है।
    ► एक साथ चुनाव संपन्न कराना पदाधिकारियों की नियुक्ति, ई.वी.एम. की आवश्यकताओं व अन्य सामग्रियों की उपलब्धता के दृष्टिकोण से एक कठिन कार्य है।
  • पक्ष और विपक्ष दोनों के ही मज़बूत तर्क:
    ► ‘एक देश, एक चुनाव’ कई मायनों में अहम है, जैसे- सरकारी खज़ाने पर आरोपित बेवज़ह का दबाव कम होगा, कर्मचारियों को उनके प्राथमिक दायित्वों के निर्वहन का मौका मिलेगा और सीमित आचार संहिता के कारण प्रशासन सक्षम बनेगा।
    ► दरअसल, एक देश एक चुनाव के विपक्ष में भी कई मज़बूत तर्क दिये गए हैं। यह राज्यों की राजनीतिक स्वायत्तता को प्रभावित करेगा जो कि संघवाद के मूल्यों के खिलाफ है।

आगे की राह

  • स्थायी संसदीय समिति की रिपोर्ट 
    ► स्थायी संसदीय समिति की यह अनुशंसा कि चुनाव दो चरणों में आयोजित किये जाने चाहियें, काफी उचित नज़र आती है।
    ► पहले चरण में आधी विधानसभाओं के लिये लोकसभा के मध्यावधि में और शेष का लोकसभा के साथ चुनाव संपन्न कराने की सिफारिश की गई है।
  • विधि आयोग की अनुशंसा 
    ► यहाँ विधि आयोग की उस अनुशंसा को भी महत्त्व दिया जाना चाहिये।
    ► जिन विधानसभाओं के कार्यकाल आम चुनावों के 6 माह पश्चात् खत्म होने हो, वहाँ एक साथ चुनाव करा दिये जाएँ।
    ► लेकिन, 6 माह पश्चात् जब विधानसभाओं के कार्यकाल पूरे हो जाएँ, तब परिणाम जारी किये जाएँ।
    ► इससे संसाधनों का अपव्यय भी नहीं होगा और लोकतांत्रिक गतिशीलता भी बनी रहेगी।

निष्कर्ष:

  • प्रथम दृष्टया एक साथ चुनाव कराने का विचार अच्छा प्रतीत होता है पर यह व्यावहारिक है या नहीं, इस पर विशेषज्ञों की राय बँटी हुई है।
  • बार-बार होने वाले चुनावों के कारण एक व्यवस्था और स्थायित्व की ज़रूरत महसूस होती है। लेकिन इसके लिये सबसे ज़रूरी है सभी राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति का होना, जिसे बनाना बेहद मुश्किल है।
  • संविधान के अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 85 (संसदीय सत्र को स्थगित करना और खत्म करना), अनुच्छेद 172 (विधानसभा का कार्यकाल) और अनुच्छेद 174 (विधानसभा सत्र का स्थगित करना और खत्म करना) में संशोधन करना होगा।
  • इसके बाद दो-तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन की भी ज़रूरत पड़ेगी, जिसे आम सहमति के बिना नहीं किया जा सकता। अतः अन्य व्यवहार्य विकल्पों पर गौर करने की ज़रूरत है।
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