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भारतीय अर्थव्यवस्था

लोकमंच/न्याय चक्र : बैंकों पर भारी एनपीए; डिफॉल्टरों के लिये चेतावनी

  • 27 Feb 2018
  • 21 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि

एक रिपोर्ट के अनुसार सितंबर 2017 में सूचीबद्ध बैंकों का कुल एनपीए 8.36 लाख करोड़ रुपए आँका गया था। इसमें सरकारी बैंकों का एनपीए 7,33,874 करोड़ और निजी बैंकों का 1,02,808 करोड़ रुपए था। रिज़र्व बैंक ने ऐसे 12 खातों की पहचान की है, जिनके पास कुल एनपीए का लगभग 25 प्रतिशत फंसा है। एनपीए का मुद्दा कोई नया नहीं है, लेकिन जब भी कोई व्यक्ति देश में बैंकों के साथ भारी-भरकम राशि का घपला कर विदेश में जा बैठता है, तो यह मुद्दा फिर से सतह पर आ जाता है।

क्या है एनपीए?

  • गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ (Non-Performing Assets-NPA) वित्तीय संस्थानों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक ऐसा वर्गीकरण है जिसका सीधा संबंध कर्ज़/ऋण/लोन न चुकाने से होता है। जब ऋण लेने वाला व्यक्ति 90 दिनों तक ब्याज अथवा मूलधन का भुगतान करने में विफल रहता है तो उसको दिया गया ऋण एनपीए माना जाता है। एनपीए को ऐसी परिसंपत्ति कहा जा सकता है जो मूल रूप से वसूली की अनुमानित अवधि तक नकद मौद्रिक प्रवाह का हिस्सा नहीं बनती।

ऑडिट में हुई अनदेखी

पीएनबी घोटाले में कुछ जानकारों का कहना है कि कुछ कर्मचारियों ने 11,500 करोड़ रुपए की निकासी का एलओयू जारी करने का कारनामा कैसे अंजाम दिया? फिलहाल यही मानकर चला जा रहा है कि स्विफ्ट सिस्टम (जिसके ज़रिये एलओयू का सत्यापन किया जाता है) और बैंक के अपने आईटी सिस्टम (कोर बैंकिंग सिस्टम) के बीच किसी प्रकार का तालमेल नहीं था और इस चूक की वजह से हुआ फ़र्ज़ीवाड़ा ऑडिटर्स की पकड़ में क्यों नहीं आया? रिज़र्व बैंक को सात सालों तक इसकी भनक तक नहीं लगी। बैंकों की भाषा में कहें तो यह एक ऑपरेशनल रिस्क था और इसे जुड़े प्रबंधों की ज़िम्मेवारी बैंक के बोर्ड और देश में बैंकिंग की निगरानी करने वाली संस्था की बनती है, लेकिन ये दोनों ही संस्थाएँ अपने दायित्व के निर्वाह में नाकाम हुईं।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी कहा कि पीएनबी घोटाले में नियामकों और निगरानी तंत्र ने आँखें बंद कर ली थीं और ऊपर से ऑडिटरों की अनदेखी और चलताऊ रवैये के कारण यह घोटाला इतना विशाल हो गया। कई चरणों का ऑडिटिंग तंत्र होने की बावजूद ऐसा हो जाना जानबूझकर अनदेखी करने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।

बैंकों में सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है, यह सुनिश्चित करने के लिये बराबर उनका ऑडिट चलता रहता है। कॉनकरेंट ऑडिट, इंटरनल ऑडिट, एक्सटर्नल ऑडिट, स्टेचुटरी ऑडिट और रिज़र्व बैंक के ऑडिट की एक लंबी श्रृंखला है, लेकिन इस मामले में ऑडिट (लेखा-परीक्षण) करने वाला कोई भी तंत्र अपने दायित्व निर्वाह में नाकाम रहा। बैंक के अपने ऑडिटर्स को स्विफ्ट सिस्टम के पेपर ट्रेल्स का मिलान करके देखना चाहिये था, खोजना चाहिये था कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं है? कोई कड़ी गायब तो नहीं दिख रही? जो ऑडिटर्स पिछली ऑडिट के सही होने की परीक्षा करते हैं और जो ऑडिटर्स बाहर से भेजे जाते हैं, उनको स्विफ्ट सिस्टम के माध्यम से हुए भारी-भरकम लेन-देन पर गौर करना चाहिये था।

(टीम दृष्टि इनपुट)

रिज़र्व बैंक ने जारी किये नए नियम

फँसे कर्ज़ यानी एनपीए के जल्दी समाधान के लिये रिज़र्व बैंक ने नए नियम जारी किये हैं, जो 1 मार्च से लागू होंगे। रिज़र्व बैंक ने निम्नलिखित नए नियमों की अधिसूचना जारी कर दी है:

  • हर बैंक के बोर्ड को एनपीए समाधान की नीति बनानी पड़ेगी, जिसमें समय-सीमा भी होगी। 
  • यदि तय समय में एनपीए का समाधान नहीं होता है तो बैंक को 15 दिन में कंपनी के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई की शुरुआत करनी होगी। 
  • बैंकों के समूह (Joint Lenders Forum-JLF) की व्यवस्था खत्म कर दी गई है। अभी तक किसी प्रोजेक्ट के लिये बड़े कर्ज़ कई बैंक मिलकर देते थे, जिनमें एक लीड बैंक होता था। 
  • यदि किसी कंपनी ने कई बैंकों से कर्ज़ ले रखा है और वह किसी एक बैंक का कर्ज़ लौटाने में डिफॉल्ट करती है तो दूसरे बैंक भी इससे बचने के लिये कदम उठाएंगे। 
  • एनपीए के समाधान के लिये अब तक जितनी योजनाएँ थीं, उन सबको खत्म कर दिया गया है। इनमें स्ट्रैटजिक डेट रिस्ट्रक्चरिंग (Strategic Debt Restructuring-SDR), स्कीम फॉर सस्टेनेबल स्ट्रक्चरिंग ऑफ स्ट्रेस्ड एसेट्स-एस4ए (Scheme for Sustainable Structuring of Stressed Assets-S4A) और कॉरपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग (Corporate Debt Restructuring-CDR) भी शामिल हैं। 
  • बैंक 1 अप्रैल से हर महीने आरबीआई को बड़े कर्ज़ों की जानकारी देंगे। इसके लिये सेंट्रल रिपोज़िटरी ऑफ इन्फॉर्मेंशन ऑन लार्ज क्रेडिट्स (Central Repository of Information on Large Credits-CRILC) व्यवस्था होगी। 
  • 23 फरवरी से 5 करोड़ या इससे ज़्यादा के डिफॉल्ट की जानकारी रिपोज़िटरी को हर सप्ताह देना ज़रूरी कर दिया गया है। 
  • अब रिस्ट्रक्चरिंग वाले अकाउंट को तत्काल एनपीए की श्रेणी में डालना होगा। 
  • कोई कंपनी कर्ज़ लौटाने में किस्त का एक हिस्सा देती है, तो उसे डिफॉल्ट माना जाएगा। 
  • डिफॉल्ट होते ही बैंक को वह अकाउंट स्पेशल मेंशन अकाउंट (Special Mention Account-SMA) श्रेणी में रखना होगा और इसकी जानकारी रिज़र्व बैंक की रिपोज़िटरी को देनी पड़ेगी। 
  • 100 करोड़ रुपए या ज्यादा का कर्ज़ डिफॉल्ट होने पर बाकी बचे कर्ज़ का रिज़र्व बैंक द्वारा अधिकृत क्रेडिट रेटिंग एजेंसी से मूल्यांकन करवाना पड़ेगा। 
  • कर्ज़ 500 करोड़ रुपए या अधिक का है तो दो एजेंसियाँ उसका मूल्यांकन करेंगी। 
  • 2,000 करोड़ या अधिक का कर्ज़ डिफॉल्ट होता है तो डिफॉल्ट के 180 दिनों के भीतर समाधान योजना पेश करनी होगी। 
  • समाधान नहीं हुआ तो 15 दिनों में कंपनी के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई शुरू करनी पड़ेगी। 

जल्दी होगा समाधान 

  • माना जा रहा है कि इन नए नियमों से एनपीए का जल्दी समाधान होगा। विदित हो कि पिछले साल भी सरकार ने एनपीए से निपटने के लिये रिज़र्व बैंक के अधिकार बढ़ाए थे। 
  • अभी तक लगभग 40 बड़ी डिफॉल्टर कंपनियों के खिलाफ बैंकों को कार्रवाई के निर्देश दिये जा चुके हैं। 
  • इनमें से कई कंपनियों के खिलाफ दिवालिया कानून के तहत कार्रवाई भी चल रही है। 
  • जिन कंपनियों के खिलाफ यह कार्रवाई शुरू की जा चुकी है, उन मामलों में नए नियम लागू नहीं होंगे।

इससे पहले रिज़र्व बैंक ने आंतरिक सलाहकार समिति का गठन किया था, जिसमें केंद्रीय बैंक के निदेशक मंडल के अधिकांश स्वतंत्र निदेशक रखे गए हैं। दिवाला तथा दिवालियापन संहिता के तहत एनपीए मामलों में क्या कार्रवाई की जानी है, समिति ने इस पर विचार-विमर्श कर अपनी सिफारिशें दी हैं।

चीन की तरह कठोर कार्रवाई होनी चाहिये

पिछले वर्ष जब चीन में एनपीए की समस्या ने सिर उठाया तो वहाँ के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर लगभग 67 लाख ऐसे डिफॉल्टरों को काली-सूची में डालकर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई। चीन ने 2015 में क़र्ज़ वसूली का अभियान छेड़ा था, जिस पर यह लगाईं ही है, साथ ही उनके सामाजिक बहिष्कार का फैसला भी किया है। अब वहाँ कर्ज़ नहीं चुकाने वालों को न तो किराये पर मकान मिलेगा, न ही होटल में कमरा। ऐसे लोग हवाई जहाज़ और बुलेट ट्रेन में यात्रा नहीं कर सकेंगे और उनके बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला भी नहीं मिलेगा। कर्ज़ नहीं चुकाने वालों का पर्सनल आईडी नंबर ब्लॉक किया जाएगा और ऐसा होने पर वे नागरिक सुविधाओं का लाभ भी नहीं उठा पाएंगे।

कर्ज़ के बोझ के मामले में आज भारत की जितनी जीडीपी है, उससे आधे से ज़्यादा कर्ज़ है। अपनी आर्थिक सेहत दुरुस्त करने के लिये जब चीन ऐसे सख्त फैसले ले सकता है तो हम क्यों नहीं? बढ़ते एनपीए की समस्या को देखते हुए चीन की तरह भारत में भी ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की ज़रूरत है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

केवल 12 खातों में है 25 प्रतिशत एनपीए

  • बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की वसूली को तेज करने के लिये रिज़र्व बैंक सक्रिय हो गया है। देश में 9339 ऐसे कर्ज़दार हैं, जिन्होंने 1,11,738 करोड़ रुपए का कर्ज़ जानबूझकर नहीं चुकाया है यानी कि वे willful defaulter हैं। 
  • इसमें से 93397 रुपए का कर्ज़ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने दिया है। माना जाता है कि ये सभी ऋण चुकाने में सक्षम हैं, लेकिन इनकी नीयत में खोट है। 
  • इनके अलावा, रिज़र्व बैंक ने ऐसे 12 खाताधारकों को चिह्नित किया है, जिनके ऊपर बैंकों के कुल एनपीए की एक चौथाई राशि है। 
  • रिज़र्व बैंक ने इन 12 खातों के खिलाफ दिवालियापन संहिता के तहत तत्काल दिवालिया कार्रवाई करने को कहा है। 
  • इन खातों में, प्रत्येक में 5,000 करोड़ रुपए या उससे अधिक का ऋण है। लेकिन रिज़र्व बैंक ने इन बैंक खातों के डिफॉल्टरों को सार्वजनिक नहीं किया है।

दिवाला तथा दिवालियापन संहिता, 2016 

केंद्र सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाते हुए दिवालियापन संहिता संबंधी कानून बनाया है। यह कानून 1909 के 'प्रेसीडेंसी टाउन इन्सॉल्वेन्सी एक्ट’ और 'प्रोवेंशियल इन्सॉल्ववेन्सी एक्ट 1920 को रद्द करता है तथा कंपनी एक्ट, लिमिटेड लाइबिलिटी पार्टनरशिप एक्ट और 'सेक्यूटाईजेशन एक्ट' समेत कई कानूनों में संशोधन करता है।

  • कंपनी या साझेदारी फर्म व्यवसाय में नुकसान के चलते कभी भी दिवालिया हो सकते हैं।
  • यदि कोई आर्थिक इकाई दिवालिया होती है तो इसका मतलब यह है कि वह अपने संसाधनों के आधार पर अपने ऋणों को चुका पाने में असमर्थ है।
  • ऐसी स्थिति में कानून में स्पष्टता न होने पर ऋणदाताओं को भी नुकसान होता है और स्वयं उस व्यक्ति या फर्म को भी तरह-तरह की मानसिक एवं अन्य प्रताड़नाओं से गुज़रना पड़ता है। 
  • देश में अभी तक दिवालियापन से संबंधित कम-से-कम 12 कानून थे जिनमें से कुछ तो 100 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं।

एनपीए से निपटने में कारगर

  • जब कोई देनदार बैंक को अपनी देनदारियाँ चुकाने में असमर्थ हो जाता है तो, तब उसके द्वारा लिया गया ऋण एनपीए कहलाता है। अर्थात् जब किसी ऋण से बैंक को रिटर्न मिलना बंद हो जाता है, तब वह उसके लिये एनपीए या बैड लोन हो जाता है। कई बार ऋणी दिवालिया हो जाता है, ऐसे में बैंक उसकी परिसम्पत्तियों को बेचकर अपने नुकसान की भरपाई कर सकते हैं।
  • दिवालियापन संहिता, 2016 के अनुसार किसी ऋणी के दिवालिया होने पर आसानी से उसकी परिसंपत्तियों को अधिकार में लिया जा सकता है। यदि 75 प्रतिशत ऋणदाता सहमत हों तो ऐसी कोई कंपनी, जो अपने ऋण नहीं चुका पा रही, पर 180 दिनों (90 दिन के अतिरिक्त रियायती समय के साथ) के भीतर कार्रवाई की जा सकती है। यदि तब भी वसूली नहीं हो पाती है तो वह फर्म या व्यक्ति स्वयं दिवालिया हो जाएगा। 
  • दिवालियापन संहिता, 2016 के लागू होने से ऋणों की वसूली में अनावश्यक देरी और उससे होने वाले नुकसानों से बचा जा सकेगा। ऋण न चुका पाने की स्थिति में कंपनी को अवसर दिया जाएगा कि वह एक निश्चित समय में अपने ऋण को चुका दे, अन्यथा स्वयं को दिवालिया घोषित करे। यदि कोई ऋणी दोषी पाया जाता है तो उसे 5 साल की सज़ा का भी प्रावधान है।

(टीम दृष्टि इनपुट) 

  • पिछले कुछ वर्षों में बैंक घोटालों में लगातार तेजी आई है। 2013 में रिज़र्व बैंक के तत्कालीन डिप्टी  गवर्नर डॉ. के.सी. चक्रवर्ती ने बताया था कि एक करोड़ रुपए से ज़्यादा के घोटालों का हिस्सा 2004-05 से 2006-07 के बीच 73 प्रतिशत था, जो 2010-11 और 2012-13 में 90 प्रतिशत हो गया। 
  • 2013 में सार्वजनिक बैंकों का एनपीए 1,55,890 करोड़ रुपए था जो 2017 में बढ़कर 6,41,057 करोड़ रुपए हो गया यानी इन चार वर्षों में इसमें 311.22 प्रतिशत वृद्धि हुई। इसी अवधि में निजी बैंकों का एनपीए 19,986 करोड़ रुपए से 269.47 प्रतिशत बढ़कर 73,842 करोड़ रुपए पहुँच गया।
  • रिज़र्व बैंक की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट, 2017 के अनुसार एक लाख से ऊपर के घोटाले का कुल मूल्य पिछले पाँच वर्षों में 9750 करोड़ से बढ़कर 16,770 करोड़ तक पहुँच गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 2016-17 में घोटाले की कुल राशि का 86 प्रतिशत हिस्सा लोन से जुड़ा था। इस रिपोर्ट के अनुसार, देश का एनपीए कुल जीडीपी का 9.6 प्रतिशत है।

निजीकरण नहीं है समाधान

बढ़ते बैंकिंग घोटालों के साथ बढ़ते एनपीए के मददेनज़र एक राय यह भी सुनने में आ रही है कि क्यों न इन बैंकों को भी निजी हाथों में सौंपकर सारा झंझट ही खत्म कर दिया जाए। यह ठीक है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में उद्योग मंडल ऐसोचैम का कहना है कि सरकार को बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से कम कर देनी चाहिये ताकि ये बैंक भी निजी क्षेत्र के बैंकों की तरह जमाकर्त्ताओं के हितों को सुरक्षित रखते हुए अपने शेयरधारकों के प्रति पूर्ण जवाबदेही बरत सकें। सरकार के लिये करदाताओं के पैसे से इन बैंकों को संकट से उबारते रहने की भी एक सीमा है।

लेकिन निजीकरण इस समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो सकता। सबसे बड़ी परेशानी यह है कि गाँवों और छोटे कस्बों तक अपनी पहुँच बढ़ाना निजी बैंकों के लिये लाभकारी नहीं होता। ऐसे में देश की बड़ी आबादी बैंकिंग सिस्टम से कटने का खतरा होने के अलावा सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित हो जाएगी। आज मनरेगा की मज़दूरी से लेकर लगभग सारी सब्सिडी सीधे लोगों के खाते में जा रही है। यह काम सरकारी बैंकों के ज़रिये ही संभव है। निजी बैंक तो न्यूनतम जमा राशि भी इतनी ज्यादा मांगते हैं कि निम्न वर्ग के लोग उनमें खाता ही नहीं खुलवा सकते। उनका सिस्टम शहरी मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है।

यहाँ यह भी गौरतलब है कि विश्वव्यापी मंदी में भारतीय अर्थव्यवस्था नहीं डगमगाई तो इसका काफी श्रेय सरकारी बैंकों की धीमी रफ्तार को जाता है। ऐसे में सरकारी बैंकों को सुधारने की कोशिश होनी चाहिये...उनके प्रबंधन का ढाँचा बदला जाना चाहिये और नियमन तंत्र को दुरुस्त किया जाना चाहिये। 

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: जहाँ भी पैसों का लेन-देन होता है, वहाँ फ़र्ज़ीवाड़े की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि बैंकिंग घोटाले केवल भारत में ही होते हैं, विश्व के लगभग हर देश में ऐसे फ्रॉड होते हैं। बैंकों में इस तरह की गड़बड़ियों पर पूरी तरह रोक लगाना तो संभव नहीं है, लेकिन इनकी पुनरावृत्ति को कम ज़रूर किया जा सकता है। बैंकों का परिचालन परिपत्रों के माध्यम से किया जाता है और इस आलोक में बैंकों के नियामक भी समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी करते रहते हैं, जिनका अनुपालन करना बैंकों के लिये ज़रूरी होता है। आमतौर पर फ़र्ज़ीवाड़े को तभी अंजाम दिया जाता है, जब विविध परिपत्रों में निर्देशित नियमों की अवहेलना की जाती है।

बढ़ते जा रहे बैंकिंग घोटालों और फ़र्ज़ीवाड़ों पर लगाम लगाने के लिये बैंककर्मियों को प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है। बैंकिंग व्यवस्था में धोखाधड़ी के डेटाबेस को मजबूत करने से भी लाभ हो सकता है, क्योंकि धोखाधड़ी का पता लगाने में डेटाबेस की अहम भूमिका हो सकती है। बैंकों द्वारा संबंधित सूचनाओं को आपस में साझा करने से जोखिम को कम किया जा सकता है। इस संदर्भ में बैंकों को स्वयं को तकनीक कुशल बनाना भी फायदेमंद होगा।

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