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बाढ़ एवं नदी जोड़ो परियोजना

  • 30 Aug 2019
  • 12 min read

संदर्भ

6 जुलाई से 11 जुलाई के मध्य सामान्य से अधिक वर्षा के बाद मानसून फिर कमज़ोर प्रतीत हो रहा है, जिससे कृषि क्षेत्र में चिंताएँ बढ़ रही हैं। 14 जुलाई तक देश में कुल वर्षा की कमी ‘लंबी अवधि के औसत’ (Long Period Average- LPA) से 12.5 प्रतिशत ​​अधिक थी। यह जून माह में दर्ज 33 प्रतिशत की कमी (जो पिछले चार वर्षों में सर्वाधिक थी) से सुधरी हुई स्थिति है।

एक तरफ कमज़ोर मानसून ने ग्रीष्मकालीन फसलों की बुवाई को प्रभावित किया है, तो दूसरी ओर पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ से व्यापक नुकसान हुआ है।

वर्तमान परिदृश्य ऐसा है कि देश के कुछ हिस्से बाढ़ से घिरे हुए हैं तो कुछ अन्य हिस्से जल की अत्यंत कमी की समस्या का सामना कर रहे हैं।

क्या ‘नदी जोड़ो’ परियोजना इसका समाधान है?

यह विचार भ्रामक हो सकता है कि नदी जोड़ो अथवा रिवर-लिंकिंग देश को पूर्वोत्तर में बाढ़ की समस्या से निपटने और दक्कन में जल की कमी की पूर्ति करने का अवसर प्रदान करेगी।

  • तथ्य यह है कि बाढ़ ऐसे समय में आती है जब देश के अधिकांश हिस्सों में जल की कमी की समस्या नहीं होती।
  • इस समय उपलब्ध अतिरिक्त जल को कहीं और संरक्षित कर देश के अन्य हिस्सों में सूखे से निपटने में उपयोग किया जा सकता है।
  • किंतु ब्रह्मपुत्र और गंगा व उसकी सहायक नदियों में अत्यल्प समय में जल की इतनी विशाल मात्रा प्रवाहित होती है कि बाद में इसका उपयोग करने के लिये इसे कहीं संरक्षित कर पाना व्यावहारिक रूप से असंभव है।
  • विभिन्न नदी जोड़ो परियोजनाओं (River Interlinking Projects) के कार्यान्वयन के लिये अत्यधिक धन की आवश्यकता होगी जो अपने आप में एक जटिल मुद्दा है। जब देश में कुपोषण से निपटने जैसी अन्य प्राथमिकताएँ पहले से मौजूद हैं तो क्या सरकार इस व्यय को वहन कर सकेगी अथवा किसी अंतर्राष्ट्रीय स्रोत से ऋण लेगी?
  • नदी जोड़ो से संबद्ध कुछ प्रमुख चुनौतियों में से जैव-विविधता को नुकसान पहुँचाने के साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों का अनाच्छादन और जलमग्न होना भी है।
  • राज्यों के बीच परस्पर संघर्ष: इस बात की भी चिंता है कि जल वितरण एवं अन्य विषयों को लेकर प्रभावित राज्यों के बीच संघर्ष की स्थिति बन सकती है।
  • प्रक्रिया संबंधी समस्याएँ: नदी-जोड़ो परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय, जनजाति मामलों के मंत्रालय आदि से अनुमति प्राप्त करने की लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा।
  • प्रौद्योगिकीय चुनौती: कुछ मामलों में जल को 160-200 मीटर तक ऊपर उठाने की आवश्यकता होगी, जो स्वयं में एक बड़ी चुनौती है।

Flood and river link project

संभावनाएँ

  • देश में नदी-जोड़ो परियोजना की प्रणाली जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (National Water Development Agency- NWDA) द्वारा कार्यान्वित है। एजेंसी ने नदियों को आपस में जोड़ने से संबद्ध कई पहलुओं पर विचार किया है।
    • राष्ट्रीय संदर्शी योजना (National Perspective Plan- NPP) के अंतर्गत NWDA ने व्यवहार्यता रिपोर्ट (Feasibility Reports- FRs) तैयार करने के लिये 30 लिंक्स (प्रायद्वीपीय क्षेत्र के अंतर्गत 16 और हिमालयी क्षेत्र के अंतर्गत 14) की पहचान की है।
    • जल-अधिशेष बेसिन से जल-कमी वाले बेसिन में जल स्थानांतरित करने के लिये राष्ट्रीय संदर्शी योजना अगस्त 1980 में तैयार की गई थी।
  • दक्षिण भारत और देश के अन्य हिस्सों में नदियों को परस्पर जोड़ने का कार्य अतीत में भी करने की कोशिश की गई थी।
  • भारत में इसे कार्यान्वित करने के लिये नदियों का जाल भी मौजूद है।
    • पड़ोसी देशों सहित विश्व के कई देशों में बांधों के निर्माण का लंबा और पुराना अनुभव भारत के पास है और इन बांधों ने न केवल बिजली उत्पादन में सहायता की बल्कि बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान को कम करने में भी योगदान दिया है।
    • भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का विचार था कि कृषि को लाभ पहुँचाने के लिये भारत के कुछ नदी बेसिन को आपस में मिला देना उपयुक्त होगा।
  • यह बहुत अच्छा विचार है और यहाँ तक ​​कि पर्यावरण संबंधी कुछ चिंताओं को वनीकरण जैसे कुछ उपायों के माध्यम से हल किया जा सकता है।
  • चीन ने अपनी नदियों को आपस में जोड़ा है। भारत भी इस दिशा में आगे बढ़ सकता है, यद्यपि इसके लिये संसाधनों, प्रयासों और प्रौद्योगिकी को प्रभावी ढंग से संयोजित करने की आवश्यकता है।

Flood river project

आगे का रास्ता

  • कुछ मामलों में जहाँ लागत अधिक नहीं हो और न्यूनतम प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ हों, दो-तीन परियोजनाओं का पायलट आधार पर परीक्षण किया जा सकता है और इस प्रकार विश्लेषण किया जा सकता है कि ये परियोजनाएँ बाढ़ नियंत्रण, सूखा नियंत्रण आदि के संदर्भ में क्या परिणाम दे रही हैं।
    • गंडक, कोसी जैसी कुछ स्थानीय नदियों को परस्पर जोड़ने पर विचार किया जा सकता है।
  • एक एकीकृत जल प्रबंधन प्रणाली की भी आवश्यकता है। निम्न वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संरक्षण और वाटरशेड विकास योजनाओं की आवश्यकता है, जबकि उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों, जैसे-बिहार, असम, पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा के कुछ हिस्सों में जल प्रबंधन का होना अधिक महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही, देश में और अधिक जलाशयों की आवश्यकता है जहाँ जल का संग्रहण हो।
  • भौम जल स्तर यह सूचना प्रदान कर सकता है कि कोई क्षेत्र बाढ़ आसन्न है या वहाँ सूखे की संभावना है।
  • इज़राइल, जहाँ पेयजल की उपलब्धता अत्यंत सीमित है, ने जल संरक्षण के लिये अत्यंत किफायती साधन विकसित किये हैं। भारत भी जल पुनर्चक्रण के लिये इज़राइल के कुछ निम्न-लागत प्रौद्योगिकियों को अपना सकता है।
    • साफ-सफाई या स्नान के लिये इस्तेमाल हो चुके जल को पुनः साफ करके कृषि के लिये उपयोग किया जाता है। इसे राष्ट्रीय स्तर से लेकर सूक्ष्म स्तर तक प्रयोग किया जा सकता है।
    • एकीकृत उपयोग के लिये जल के पुनर्चक्रण का आंतरिक प्रयोग विश्व में कई स्थानों पर हुआ है और यह सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है। लेकिन इस प्रौद्योगिकी का आगे और प्रचार करने तथा लोगों को इस बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है।
  • भारत को भूमि और जल के प्रति एक सुसंगत दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है तथा भूमि को इसके सभी प्रकार के उपयोगों – आवास, कृषि, वन आदि की समग्रता में देखा जाना चाहिये।
  • स्थानीय स्तर पर जल की मांग के स्वरूप को पहचानने की आवश्यकता है और यह देखा जाना चाहिये कि इस तरह की मांगों की पूर्ति कहाँ से की जा सकती है। इसके अतिरिक्त जब तक आपूर्ति आधार (Supply Base) की स्थिति के समाधान का प्रयास नहीं होगा, तब तक मांग की पूर्ति नहीं हो सकती।
  • चूँकि नदियाँ कई राज्यों से होकर गुज़रती हैं, एक सुसंगत नदी घाटी योजना में सभी राज्यों की भागीदारी एक साथ होना आवश्यक है लेकिन भारत में अभी यह प्रयास नहीं हुआ है।
  • नदी बेसिन प्रबंधन योजनाओं (River Basin Management Plan) पर वर्तमान सरकार सक्रियता से विचार कर रही है।
  • जल प्रबंधन योजनाओं में वर्षा की अनियमितता पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है। भारत में वर्षा का प्रारूप हमेशा एक अनियमित या परिवर्तनशील रहा है और जलवायु परिवर्तन के साथ यह और अधिक अनियमित हो जाएगा।
  • विऔद्योगीकरण के कारण पिछले 15-20 वर्षों से लंदन में भौम जल स्तर में प्रतिवर्ष 1 मीटर की वृद्धि हो रही है। भारत को पुनः वनरोपण/वन संवर्द्धन की ओर लौटने और उद्योगों व मानव जीवन के बीच एक उचित संतुलन निर्माण की आवश्यकता है।
  • भारत वर्तमान में विश्व में सबसे अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश प्राप्त करने वाला देश है (प्रत्येक माह छह बिलियन डॉलर) किंतु अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की ओर से जल निकास और पारिस्थितिक प्रणाली सर्वेक्षण के लिये विशिष्ट रूप से कोई बड़ी राशि अभी तक नहीं मिली है।
  • पर्यावरण भी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है। देश के हर व्यक्ति को इसके बारे में चिंतित होना चाहिये।

आगे बढ़ने का सबसे बेहतर रास्ता यह है कि जल को सतत् विकास के लिये एक रणनीतिक संसाधन के रूप में देखा जाए। स्थानीय स्तर पर जल के उपयोग और उसकी निकासी को उपयुक्त बनाना आवश्यक है। यह फिर भूमि उपयोग, निवास प्रारूप और सामाजिक निष्पक्षता सहित अन्य चीज़ो को उपयुक्त बनाएगा। जल प्रबंधन के विषय में भारत को सभी संबंधित पहलुओं को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक रूप से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: नदी-जोड़ो परियोजना का देश की आर्थिक संवृद्धि में क्या योगदान हो सकता है? चर्चा कीजिये।

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