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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

इंडिया'ज़ वर्ल्ड : वैश्विक शक्ति बनने की राह में भारत के समक्ष चुनौतियाँ

  • 06 Jan 2018
  • 24 min read

संदर्भ

हाल ही में अमेरिकी प्रशासन ने अपनी नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में भारत को वैश्विक शक्ति का दर्ज़ा दिया है। अमेरिका का मानना है कि भारत अब बदल रहा है और कई मंचों पर इसका प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है, इसलिये भारत को एक वैश्विक शक्ति के रूप में देखा जाना चाहिये।

पृष्ठभूमि

विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की स्वीकृति लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिका के अलावा कई अन्य देश भी अब भारत को एक उभरती हुई महाशक्ति के तौर पर देखने लगे हैं और भारत की नीतियों-रणनीतियों पर उनकी निगाहें लगी रहती हैं। 

  • पंचवर्षीय योजना की तरह विदेश नीति को समय-सीमा में बांधकर नहीं बनाया जा सकता, इसका स्वभाव चंचल (Dyanamic) होता है और यह देश, काल और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि इसका स्वरूप कैसा रहेगा।

विदेश नीति की चुनौतियाँ

वैसे विदेश नीति के बारे में माना जाता है कि यह लगभग स्थायी होती है क्योंकि इसका स्वरूप राष्ट्रीय हितों को मद्देनज़र रखकर तय किया जाता है। यह भी माना जाता है कि सरकारें बदलने के साथ विदेश नीति प्रायः नहीं बदलती, लेकिन वैश्विक भू-राजनीतिक परिस्थितियों तथा आंतरिक राजनीति में परिवर्तन होने के कारण विदेश नीतियों में आंशिक परिवर्तन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 

अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता ठीक नहीं

चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिये अमेरिका को एशिया-प्रशांत एवं हिंद महासागर क्षेत्रीय सहयोग की अपनी रणनीतिक योजना के अनुरूप भारत का सहयोग मिल रहा है। लेकिन अमेरिका कभी भी भारत का विश्वसनीय सहयोगी नहीं रहा है और आज भी इस पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है।
इसके अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 'अमेरिका फर्स्ट' नीति पर भारत को बारीक निगाह रखने की आवश्यकता है। रोज़गार और विनिर्माण वापस अमेरिका में लाने तथा कर ढाँचों में प्रस्तावित बदलावों की नीतियों से भारत में अमेरिकी वित्तीय निवेश में और वहाँ भारतीयों को मिलने वाले रोज़गार में कमी आ सकती है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है।  
भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि बदलती दुनिया में विशेष रूप से प्रमुख शक्तियों के बीच नए द्विपक्षीय समीकरण बन सकते हैं, जिनका आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई, वैश्विक अर्थव्यवस्था एवं व्यापार, वर्तमान में जारी संघर्षों या धीमे-धीमे सुलग रहे टकरावों पर प्रभाव सकारात्मक हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता। भारत को वैश्विक पटल पर प्रासंगिक बने रहने के लिये इन जोखिमों को समझ कर अपना रुख तय करना होगा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

पड़ोसी देशों के साथ विदेश नीति

भारत की विदेश नीति को सबसे बड़ी चुनौती उसके पडोसी देशों से ही मिलती रही है। अतः भारत को ‘इंडिया फर्स्ट’ और अपने ‘पड़ोस’ को केंद्र में रखकर अपनी विदेश नीति को आकार देना पड़ता है। 
अस्थिर पड़ोस: भारत के पड़ोस में अस्थिरता बहुत है। पाकिस्तान लगभग असफल राष्ट्र होने के कगार पर है और नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता हमारी चिंता का एक बड़ा कारण है। म्यांमार, बांग्लादेश और श्रीलंका से हमारे संबंध इन देशों में सरकारें बदलने के साथ बनते-बिगड़ते रहते हैं। चीन की अपनी अलग क्षेत्रीय दादागिरी है, जिसे भारत न चाहते हुए भी बर्दाश्त करने को विवश है। सार्क में भूटान एक मात्र ऐसा देश है, जिसके साथ हमारे संबंध मधुर बने रहते हैं। 

  • हमारे पास-पड़ोस में चीन का बढ़ता प्रभाव सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आया है। चीन हर मुश्किल में पाकिस्तान का दोस्त बना रहा है और वैश्विक चिंताओं को नज़रअंदाज़ कर हर परिस्थिति में उसका साथ निभाता रहा है। 

चीन को आज वैश्विक महाशक्तियों में शुमार किया जाता है तो इसके पीछे कुछ ऐसे कारण हैं, जिनका भारत में अभाव दिखाई देता है। भारत और चीन के दृष्टिकोण में अंतर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित यह अंग्रेज़ी कहावत स्पष्ट कर देती है...India Promises but China Delivers अर्थात् भारत केवल वादे करता है, लेकिन चीन वादा करके उन्हें निभाता भी है। पिछले दो दशकों से चीन पूरी दृढ़ता के साथ म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। उसके काम करने का तरीका अलग है, वह केवल धन ही उपलब्ध नहीं कराता, बल्कि इन देशों में बुनियादी ढाँचा बनाने का काम भी करता है। चीन ने इन देशों में सड़कें, पुल, बंदरगाह और हवाई अड्डों की कई परियोजनाएँ पूर्ण की हैं। आज चीन दक्षिण एशिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हुआ दिख रहा है और भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है।

भारत और चीन की तुलना 

  • भारत और चीन दुनिया की सबसे तेज़ी से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्थाएँ हैं, लेकिन दोनों ही देश अलग-अलग विकास पथ का अनुसरण कर रहे हैं। 
  • जहाँ चीन विनिर्मित वस्तुओं का एक बड़ा निर्यातक देश है, वहीं भारत ने सेवाओं के निर्यात में वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल की है। 
  • भारत में ‘उत्पादन वृद्धि’ और ‘रोज़गार वृद्धि’ में विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र का योगदान अधिक है। 
  • विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र का अपेक्षाकृत बड़ा आकार इस बात का परिचायक है कि भारत और पश्चिमी देशों के आर्थिक विकास परिदृश्य में काफी समानताएँ हैं। लेकिन यह भी सच है कि भारत का आर्थिक विकास  इसके स्थापित मानदंडों के सापेक्ष नहीं है। 
  • यह एक स्थापित मान्यता है कि विकासशील देशों में तेज़ आर्थिक विकास के लिये औद्योगिकीकरण ही एकमात्र रास्ता है और द्रुत वृद्धि की संभावना विनिर्माण क्षेत्र में अधिक देखी जा सकती है। 
  • भारत और चीन के आर्थिक विकास की प्रकृति लगभग एक जैसी ही रही है, फिर भी चीन ने बेहतर प्रदर्शन इसलिये किया है क्योंकि वहाँ के विनिर्माण क्षेत्र ने कृषि से पलायन कर चुकी जनसंख्या को रोज़गार के अवसर प्रदान किये, जबकि हम  अपने देश में ऐसा करने में असफल रहे हैं। 
  • भारत को वैश्विक महाशक्ति बनना है तो विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र दोनों के समान विकास के लिये अवसर प्रदान करने होंगे। 

पुरानी दोस्ती को बचाना और नए दोस्त बनाना

विभिन्न देशों की विदेश नीतियों के रणनीतिक उद्देश्य तथा भौगोलिक निर्देश किसी अन्य देश की विदेश नीति को मुख्यतः परिभाषित करते हैं। लेकिन फिर भी विदेश नीति में निरंतर छोटे-मोटे बदलाव होते रहते हैं और इसे घरेलू बाध्यताओं तथा वैश्विक संपर्क की संभावनाओं एवं क्षमताओं के अनुसार और भी दुरुस्त किया जाता है ताकि राष्ट्रीय हितों को तत्कालीन सरकार की धारणा के अनुसार सर्वश्रेष्ठ तरीके से साधा जा सके। ऐसे में विदेश नीति की एक बड़ी चुनौती पुराने मित्र देशों को साथ जोड़े रखना और तेज़ी से बदल रही इस दुनिया में नए देशों को अपने साथ जोड़ने की भी है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल’ रणनीति, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना और बेल्ट एंड रोड परियोजनाओं के लिये सटीक बैठती है। 
  • इससे चीन का प्रभाव और भी आगे तक चला जाता है, जो रणनीतिक रूप से भारत के लिये असहज हो सकता है।
  • चीन ने नेपाल और श्रीलंका के साथ अपने रक्षा संबंध और भी मज़बूत किये हैं। इसका मुकाबला करने के लिये हमें क्षेत्र में हितधारकों को उसी प्रकार का, लेकिन और भी आकर्षक तथा व्यावहारिक प्रोत्साहन देना होगा।

रूस के साथ हमारे संबध और चीन-पाकिस्तान की चुनौती

रूस हमारा पुराना मित्र देश है और उसने इस मित्रता को समय आने पर साबित भी किया है। कुछ समय पहले तक भारत में यह माना जाता था कि चीन और पाकिस्तान के साथ रूस की निकटता होना आसान नहीं है। लेकिन इधर कुछ समय से अमेरिका के साथ हमारी बढ़ती निकटता के कारण रूस हमारे पड़ोसी पाकिस्तान और चीन के साथ संबंधों को बढ़ावा दे रहा है। यह भारत के लिये एक चुनौती तो है ही, साथ ही चिंता का कारण भी है। चीन मौका पाते ही रूस जैसे भारत के पारंपरिक सहयोगी के साथ संबंध बढ़ाने का प्रयास करता रहता है। इन दोनों देशों की सेंधमारी के बाद अब इतना तो स्पष्ट हो चुका है कि भारत-रूस संबध केवल भावनाओं के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते। लेकिन रूस के साथ हमारे आर्थिक-सामरिक और रक्षा संबंध बेहद मज़बूत हैं और भारत इसके लिये अब भी उसके सबसे बड़े बाजारों में  से एक है। लेकिन हमें रूस के साथ अपने संबंधों की मजबूती बहाल करने के लिये नए सिरे से प्रयास करने होंगे। यदि रूस के साथ कहीं भी विश्वास की कमी और गलतफहमी है तो कूटनीतिक संकेतों के बजाय सीधे रूसी नेतृत्व से बात कर उसे दूर करना होगा।

(टीम दृष्टि इनपुट)

वैश्विक महाशक्ति बनने की राह में अन्य प्रमुख चुनौतियाँ

वैश्विक मंचों पर बढ़ रही भारत की स्वीकार्यता महाशक्ति कहलाने की दिशा में एक बड़ा कदम है। इसके अलावा भारत-अमेरिका-जापान त्रिपक्षीय संवाद के साथ संपर्क और भी बढ़ाना चाहिये और समान क्षेत्रीय उद्देश्यों वाले समूह में ऑस्ट्रेलिया को भी शामिल कर संपर्क को और बढ़ाया जाए। इसके अलावा कुछ घरेलू चुनौतियाँ भी हैं, जिनसे पार पाए बिना वैश्विक महाशक्ति का दर्ज़ा हासिल करना हमारे लिये आसान नहीं होगा। ऐसे में अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता और उसके सहयोग से वैश्विक पटल पर महाशक्ति कहलाने के भ्रम में न पड़ते हुए भारत को अपनी उन घरेलू कमज़ोरियों को दूर करना होगा, जो इस राह में प्रमुख बाधा बन सकती हैं।

घरेलू चुनौतियों से निपटना भी ज़रूरी

  • अगर विदेशी निवेशकों को आकर्षित करना है तो घरेलू चुनौतियों से हर हाल में पार पाना होगा। 
  • भारतीय उद्योगों, उद्यमियों और निवेशकों को विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की बाधाओं को पहचानना होगा। 
  • दहाई अंकों में विकास दर हासिल करने के लिये विकास कार्यों को रफ़्तार देनी होगी।
  • बड़ी-छोटी परियोजनाओं को समय पर पूरा करना होगा, जो सबसे बड़ी चुनौती है। 
  • आर्थिक भविष्य को सुदृढ़ करने और 10 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लिये अगले 20 सालों तक जीडीपी की दर को 9 प्रतिशत बनाए रखना होगा। 
  • इससे कम विकास दर के साथ भारत को अपने आर्थिक और सामाजिक भविष्य को सुरक्षित करने में कठिनाइयाँ पेश आ सकती हैं।  
  • देश में तेज़ी से बढ़ती  जनसंख्या के साथ इस विकास दर को बनाए रखने के लिये अगले 20 सालों तक प्रतिवर्ष 10-12 लाख रोज़गार के अवसर बनाने की ज़रूरत होगी।

वित्तीय उद्देश्यों में संतुलन और नीतियों का कार्यान्वयन

वैश्विक महाशक्ति कहलाने के लिये किसी भी देश को अपने वित्तीय उद्देश्यों में उचित संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता होती है।  करों और जीडीपी के अनुपात को बढ़ाने के लिये  वित्तीय घाटे को कम करना होगा ताकि राज्यों को अधिक मदद दी जा सके, लाभ को सीधे खाते में दिया जा सके और अवसंरचना पर पैसा खर्च किया जा सके। नीतियों के कार्यान्यवयन तथा सहयोग और प्रतिद्वंद्विता की प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल करना महत्त्वपूर्ण है। यदि राज्यों के बीच विदेशी निवेश को लेकर स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता हो, तो इससे कारोबारी माहौल बेहतर हो सकता है। जब विभिन्न मदों में किया गया धन आवंटन विकास में योगदान देता है तो चहुँमुखी प्रगति होती है, जो वैश्विक मंच पर मज़बूत दिखने की पहली अनिवार्य शर्त मानी जाती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • रोजगार के अवसर उत्पन्न करने व विकास के लक्ष्य को केवल निजी क्षेत्र के बूते हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिये सरकार को कुछ अन्य प्रयास भी करने होंगे। 
  • देश में नवाचार, शोध एवं विकास और विदेशी निवेश में रुकावट बनने वाली विभिन्न चुनौतियों और मुद्दों में रिश्वत, भ्रष्टाचार और कुशल श्रम का न होना शामिल हैं।
  • मौजूदा समय में देश में विदेशी निवेश लाना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय उद्योग जगत भारत के नियम-कानूनों, भ्रष्टाचार और बुनियादी विकास से जुड़े मुद्दों को लेकर सावधानी बरत रहा है।

आर्थिक विकास की कमज़ोर सामाजिक पहुँच
आर्थिक उदारीकरण के लगभग 25 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश में आर्थिक विकास का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पर्याप्त रूप से नहीं पहुँच पाया है, जो तीव्र आर्थिक विकास के लिये बेहद आवश्यक है। अभी भी भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा जैसे आधारभूत सामाजिक परिणामों को प्राप्त करने की दिशा में प्रयास जारी हैं। इन सभी परिणामों का समावेशी होना नागरिकों के पूर्ण विकास के साथ-साथ बेहतर जीवन यापन हेतु आवश्यक सभी प्रकार की बुनियादी ज़रूरतों के संदर्भ में बेहद आवश्यक है। पिछले कुछ समय से भारत के आर्थिक विकास में आई कमी का कारण वैश्विक आर्थिक संकट बताया जा रहा है, लेकिन विकास दर को बनाए रखने में विफलता का एक बड़ा कारण प्रतिभाओं का समुचित इस्तेमाल न होना और कुशल श्रम की कमी भी है। कोई भी देश अपनी विकास दर को तभी बनाए रख सकता है, जब आधारभूत उद्योगों के सभी मानकों पर उसके प्रदर्शन में निरंतरता बनी रहे।

(टीम दृष्टि इनपुट)

कौशल विकास का अभाव 

  • देश में शिक्षा व्यवस्था की पहली बड़ी चुनौती है, उसमें कौशल विकास का अभाव होना। उत्कृष्ट संस्थानों से हर साल निकलने वाले लाखों छात्रों में कौशल की बेहद कमी है और उन्हें अंतरराष्ट्रीय मानकों पर बेहद कमज़ोर माना जाता है। 
  • अगले दो दशकों तक कुशल श्रम की आवश्यकता को पूरा करने के लिये लगभग 70  लाख  लोगों को विशिष्ट शिक्षा और प्रशिक्षण उपलब्ध कराने की आवश्यकता होगी। पारंपरिक शिक्षा नीतियों के साथ ऐसा करना संभव नहीं होगा। 

नवाचार को प्रोत्साहन

पारंपरिक व सीधे रास्ते से भारत की अर्थव्यवस्था उस तेज़ी से नहीं बढ़ सकती, जिसकी अपेक्षा और आवश्यकता वैश्विक महाशक्ति कहलाने के लिये आवश्यक मानी जाती है। इसके लिये सार्वजनिक और निजी क्षेत्र को उत्पादकता और निवेश बढ़ाने के लिये नवाचार को अपनाना होगा और इसके लिये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आवश्यक होगा, जो तकनीकी विकास और लगातार नवाचार को बढ़ावा देगा। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत नवाचार व शोध को मज़बूती से आगे बढ़ाए बिना ऐसी जीडीपी दर को हासिल नहीं कर पाएगा। इसके लिये अगले दो दशक तक शोध एवं विकास में कुल जीडीपी के वर्तमान में खर्च हो रहे 0.8 प्रतिशत की तुलना में 2.4 प्रतिशत राशि खर्च करने की ज़रूरत होगी।

(टीम दृष्टि इनपुट)

  • यह इसलिये और भी कठिन प्रतीत होता है क्योंकि विश्वभर में कुल जीडीपी के औसतन छह प्रतिशत की तुलना में भारत में केवल तीन प्रतिशत राशि ही शिक्षा पर खर्च की जाती है।
  • देश में शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने के लिये सरकार प्रयासरत है,  जिसमें उद्योग जगत को भी मिलकर शिक्षित और कुशल प्रतिभा को तैयार करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।  
  • नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के माध्यम से कौशल विकास करना कुशल श्रमबल तैयार करने की दिशा में एक ऐसा ही प्रयास है। 

हथियारों के मामले में आत्मनिर्भर होना ज़रूरी 

भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है, और यह भी उतना ही सत्य है कि हथियारों के मामले में आत्मनिर्भर हुए बिना कोई भी देश वैश्विक महाशक्ति होने का दावा नहीं कर सकता। अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि कोई भी महाशक्ति हथियारों की अपनी तकनीक किसी भी देश से साझा नहीं करती। वैसे रक्षा अर्थशास्त्र का एक बुनियादी नियम यह है कि किसी हथियार या रक्षा उत्पाद को बनाना उसे खरीदने से ज्यादा महंगा पड़ता है। इसलिए हथियार को  विकसित करना तभी ठीक रहता है, जब वह अंतरराष्ट्रीय बाजार में आने से पहले आपकी सेना के पास आ जाए। देश की नई रक्षा नीति में सेना, डीआरडीओ, सार्वजनिक उपक्रमों/सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों और निजी कंपनियों के बीच सहयोग के ज़रिये अनुसंधान एवं विकास में प्रयास करने की पहल की है। लेकिन इतने मात्र से काम नहीं चलने वाला, ऐसे में भारत के लिये यह बेहद ज़रूरी है कि इस मामले में आत्मनिर्भरता पाने के लिए डिज़ाइन तैयार करने की क्षमता के साथ-साथ उत्पादन करने की क्षमता को भी हासिल किया जाए।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: इधर कुछ वर्षों से भारत सरकार ने इंडिया फर्स्ट को सारगर्भित तरीके से विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य बना दिया है। विदेश नीति के मामले में भारत की सबसे बड़ी चुनौती केवल यह नहीं है कि अपने पड़ोसियों तथा आसियान एवं पश्चिम एशिया सहित अन्य देशों के साथ सामंजस्य किस प्रकार बनाए रखा जाए, बल्कि विश्व की प्रमुख शक्तियों के साथ अपने संबंधों को बढ़ाना भी एक चुनौती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि चीन ने अपनी वित्तीय एवं सैन्य ताकत के ज़रिये तथा भारी मात्रा में निवेश कर भारत के पड़ोस में अपना प्रभाव मज़बूत किया है, जो वैश्विक महाशक्ति कहलाने और हमारी विदेश नीति के उद्देश्यों की राह में बाधक बन सकता है। लेकिन बड़े भौगोलिक क्षेत्र, आर्थिक एवं सैन्य शक्ति, मानव संसाधन तथा रणनीतिक लाभ के चलते अंतरराष्ट्रीय पटल पर चीन के विरोध के बावजूद भारत ऐसी भूमिका में आ गया है, जहाँ उसे वैश्विक महाशक्ति स्वीकार करने की औपचारिकता ही शेष रह गई है। 

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