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जैव विविधता और पर्यावरण

बॉन सम्मेलन (COP-23) का हासिल

  • 23 Nov 2017
  • 11 min read

संदर्भ

  • जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के वैश्विक समझौते को लागू करने के उद्देश्य से हाल ही में जर्मनी के शहर बॉन में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change-UNFCCC) के दलों के 23वें सम्मेलन (23rd Conference of Parties-COP) का आयोजन किया गया है।
  • COP-23 में जहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनी वहीं वित्तपोषण और समीक्षा तंत्र से जुड़े अहम् बिन्दुओं पर कुछ चिंताएँ ज्यों की त्यों हैं।

COP-23 में इन मुद्दों पर हुई चर्चा (The questions raised in COP-23)

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  • इस सम्मलेन में विवाद के मुख्य विषय वित्तीय सहायता, (financial support) शमन कार्रवाई, (mitigation action) विभेदीकरण, (differentiation) और नुकसान एवं क्षति (loss and damage) से संबंधित थे।
  • बोन सम्मलेन में यह सवाल उठाया गया था कि उपलब्ध कार्बन स्पेस के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर चुके विकसित देश क्या गरीब और विकासशील देशों को सहायता देंगे?
  • अमीर देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये अब तक क्या कार्रवाई की गई है और क्या कोयले का उपयोग सीमित नहीं किया जाना चाहिये?

क्या है कार्बन स्पेस (What is carbon space)?

  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change-IPCC) ने अपने 5वें आकलन रिपोर्ट में एक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन बजट (carbon dioxide emission budget) प्रकाशित किया था।
  • यह बजट बताता है कि ग्लोबल वार्मिंग को औद्योगिक क्रांति से पहले के तापमान के मुकाबले अधिकतम 2 डिग्री सेल्सियस तक और इससे कम रखने के लिये CO2 के उत्सर्जन की सीमा क्या होनी चाहिये?
  • बजट के अनुसार इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु औद्योगिक क्रांति के उतरार्द्ध के समय से लेकर वर्ष 2100 तक CO2 उत्सर्जन की सीमा 2900 गीगाटन होनी चाहिये।
  • विदित हो कि 2011 तक विश्व में 1,900 गीगाटन कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जित हो चुकी है। इसका अर्थ यह है कि वर्ष 2011 और 2100 के बीच अब केवल 1,000 गीगाटन का ही उत्सर्जन संभव है।

दरअसल, CO2 उत्सर्जन की 2900 गीगाटन की यह सीमा ही कार्बन स्पेस है। इसे कार्बन बजट के नाम से भी जाना जाता है।

  • COP-23 में हुई प्रगति (progress made in COP-23)

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  • यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण होगा इस सम्मेलन में चर्चा के सभी मुद्दों पर प्रगति हुई है, लेकिन जिन मुद्दों पर महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है वे हैं:

► चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को सीमित करने (coal phase-out) पर सहमति बनी।
► हरित इमारतों (green-buildings) को स्थापित करने और इको- गतिशीलता (eco-mobility) में तेज़ी लाने का निर्णय लिया गया।
► मुद्दों के समाधान की दिशा में कार्य करने के दौरान लिंग संबंधी कारकों की पहचान करने का निर्णय हुआ।
► जलवायु वार्ताओं में स्थानीय लोगों की राय को अहमियत देने का निर्णय लिया गया।
► कृषि कार्यों के माध्यम से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मुद्दे पर विचार-विमर्श का निर्णय।
► सम्मलेन में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति ‘टलानोआ वार्ता’ (Talanoa Dialogue) के रूप में हुई।

क्या है ‘टलानोआ वार्ता’ (What is Talanoa Dialogue)?

  • इस सम्मलेन में देशों द्वारा 'टलानोआ वार्ता' के लिये एक रोड मैप लाया गया है जो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विभिन्न देशों द्वारा किये जा रहे प्रयासों एवं इस संबंध में प्रगति का आकलन करने के लिये एक वर्षीय प्रक्रिया है।
  • इसके तहत यह सहमति व्यक्त की गई है कि वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में होने वाले अगले दो जलवायु सम्मेलनों में विशेष 'स्टॉक टेकिंग' सत्र (stock-taking session) होंगे।
  • इस स्टॉक-टेकिंग सत्र में ‘प्री-2020 एक्शन्स’ (pre-2020 actions) यानी ग्रीनहाउस गैस-उत्सर्जन से संबंधित वर्तमान प्रतिबद्धताओं के संबंध में विभिन्न देशों द्वारा उठाए जा रहे कदमों की समीक्षा की जाएगी।
  • उल्लेखनीय है कि 'टलानोआ', फिजी एवं प्रशांत क्षेत्र में प्रयोग होने वाला एक परंपरागत शब्द है जो एक समावेशी, सहभागी एवं पारदर्शी वार्ता की प्रक्रिया को निर्दिष्ट करता है|    

क्या है ‘प्री-2020 एक्शन्स’?

  • दरअसल, पेरिस समझौते से यह तय होगा कि वर्ष 2020 के बाद क्या किया जाना चाहिये, लेकिन अभी यानी वर्ष 2017 के अंत से लेकर वर्ष 2020 तक क्या किया जाए? क्या इस समयावधि के अन्दर ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के लिये कुछ भी नहीं किया जाएगा?
  • वर्ष 2017 के अंत से लेकर वर्ष 2020 तक ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के लिये किये जा रहे प्रयास क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण के हिस्सा हैं। 
  • विदित हो कि क्योटो प्रोटोकॉल के प्रथम चरण (2005-2012) और दूसरे चरण (2013-2020) में तय किया गया है कि उत्सर्जन को कम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी अमीर और विकसित देशों की है।

COP-23 में क्या कमियाँ रह गईं (shortfalls of COP-23)?

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  • पेरिस समझौते की तहत तय की गई प्रतिबद्धताओं में अमेरिका की अहम् भूमिका है, लेकिन अमेरिका द्वारा पहले ही पेरिस समझौते से हटने की घोषण कर दी गई है।
  • COP-23 में इस संबंध में कोई प्रगति नहीं हुई जबकि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक देश है।
  • कुछ वर्षों तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में स्थिरता दिखाई दी थी, लेकिन इसमें वर्ष 2017 में 2% की वृद्धि हुई। सम्मलेन में इसके कारणों की पहचान और इसे कम करने को लेकर समन्वय का अभाव दिखा है।
  • चीन जो कि  दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है कोयले के उपयोग को सीमित करने की बात तो करता है, लेकिन अन्य देशों में वह निवेश कर रहा है और वहाँ कोयले से प्राप्त बिजली का उपयोग हो रहा है।
  • दरअसल, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution-NDC) को पूरा करने हेतु विकासशील देशों को ‘मज़बूत वित्तीय एवं तकनीकी सहायता’ (cross-border funding and technology flows) की आवश्यकता होगी, लेकिन बॉन सम्मलेन इसकी पहचान करने में असफल रहा है।

क्या है राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (what is Nationally Determined Contribution)?

  • पेरिस समझौते के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution) की संकल्पना को प्रस्तावित किया गया है।
  • इसमें प्रत्येक राष्ट्र से यह अपेक्षा की गई है कि वह ऐच्छिक तौर पर अपने लिये उत्सर्जन के लक्ष्यों का निर्धारण करे। 
  • भारत ने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution-NDC) के तहत वर्ष 2030 तक अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है।
  • भारत ने वृक्षारोपण और वन क्षेत्र में वृद्धि के माध्यम से 2030 तक 2.5 से 3 बिलियन टन CO2 के बराबर कार्बन सिंक बनाने का वादा किया है।
  • भारत कर्क और मकर रेखा के बीच अवस्थित सभी देशों के एक वैश्विक सौर गठबंधन के मुखिया (anchor of a global solar alliance) के तौर पर कार्य करेगा।

निष्कर्ष

  • भले ही हम मानवों ने धरती की सतह पर लकीरें खींच कर अलग-अलग देश और राज्य बना लिये हों, लेकिन यदि वायु, जल और भूमि प्रदूषित हुई तो इनका विश्वव्यापी प्रभाव देखने को मिलेगा।
  • वस्तुतः विकसित देश जो कि जलवायु परिवर्तन के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं, उन्हें विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करनी चाहिये।
  • भारत एक विकासशील देश है और यह जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील भी है। ऐसे में उसे जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध जारी इस लड़ाई का नेतृत्व करना चाहिये।
  • दरअसल, वार्ताकारों को अब उन नियमों को अंतिम रूप देने पर काम करना होगा जो वर्ष 2018 में पोलैंड में होने वाले दलों के अगले सम्मेलन (COP-24) के दौरान अपनाए जाएंगे।
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