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भारतीय अर्थव्यवस्था

बढ़ती असमानताएँ

  • 29 Jan 2021
  • 9 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में वैश्विक स्तर पर बढ़ती असमानता और इस पर COVID-19 महामारी के प्रभाव व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

वर्तमान में वैश्विक अर्थव्यवस्था COVID-19 महामारी की तबाही से धीरे-धीरे उबर रही है। हालाँकि विश्व के अलग-अलग देशों और देशों के विभिन्न हिस्सों द्वारा इस चुनौती से उबरने की प्रक्रिया में भारी असमानता देखने को मिली है। COVID-19 महामारी के बाद विश्व के अधिकांश देशों में आर्थिक असमानता में तीव्र वृद्धि देखी गई है।   

इस तथ्य को ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट के आधार पर समझा जा सकता है। जिसके अनुसार, विश्व के शीर्ष 1,000 सबसे धनी लोग COVID-19 महामारी के कारण हुई आर्थिक क्षति से सिर्फ 9 माह में उबरने में सफल रहे हैं, जबकि विश्व की सबसे गरीब आबादी को इस महामारी के दुष्प्रभाव से उबरने और पूर्व COVID-19 स्थिति को प्राप्त करने में एक दशक का समय लग सकता है। 

इस संदर्भ में विश्व आर्थिक मंच ने ‘द ग्रेट रीसेट ऑफ कैपिटलिज़्म’ (The Great Reset of Capitalism) नामक एक पहल का प्रस्ताव रखा है। WEF के अनुसार,  यह अधिक निष्पक्ष, स्थायी और लचीले भविष्य के लिये हमारी आर्थिक तथा सामाजिक प्रणाली की नींव को संयुक्त और तात्कालिक रूप से स्थापित करने की प्रतिबद्धता है। 

पूर्व में भी इस प्रकार के आदर्श वाक्य जारी किये गए थे, हालाँकि यह नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का जोखिम है जो विश्व भर में असमानताओं को बढ़ा रहा है।  

नोट: 

  • वर्तमान विश्व आर्थिक व्यवस्था को नव-पूंजीवाद या नव-उदारवाद कहा जा सकता है, जो  बाज़ार की स्वतंत्रता, वैश्वीकरण, बौद्धिक संपदा अधिकारों, माल, सेवाओं, निवेश और विचारों की मुक्त आवाजाही पर केंद्रित है।

भारत में असमानता:  

COVID-19 महामारी की शुरुआत के पहले से ही विश्व भर में असमानता चिंताजनक रूप से उच्च स्तर पर थी और यह असमानता सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था की अस्थिरता का एक प्रमुख कारक रही थी। विश्व भर में असमानता की व्यापकता में वृद्धि देखी गई है और भारत भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। 

  • ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में असमानता बढ़कर उपनिवेश काल के स्तर के बराबर पहुँच गई है। 
    • मार्च 2020 में लॉकडाउन लागू होने के बाद से भारत के 100 अरबपतियों द्वारा अर्जित की गई अतिरिक्त संपत्ति देश के 138 मिलियन अपेक्षाकृत गरीब आबादी में से प्रत्येक को 94,045 रुपए देने के लिये पर्याप्त है। 
    •  पिछले वर्ष भारत के सबसे अमीर व्यक्ति द्वारा मात्र एक सेकंड में अर्जित धन के बराबर कमाई करने में देश के एक अकुशल श्रमिक को तीन वर्ष लगेंगे।

असमानताओं के साथ संबंधित चिंताएँ:   

असमानताओं का सामान्यीकरण:  विश्व भर में कई प्रमुख अर्थशास्त्रियों द्वारा बढ़ती असमानताओं को आर्थिक विकास, जिससे संपूर्ण गरीबी में कमी आई है, के एक अपरिहार्य उपोत्पाद के रूप में सही ठहराने का प्रयास किया जाता है।

  • इसके अतिरिक्त असमानता के बारे में उठाई जा रही चिंताओं को भी आसानी से समाजवाद प्रेरित विचारों के रूप में अस्वीकार किया जा सकता है, जिसे लोकतंत्र के लिये खतरा माना जाता है।
  • इसके कारण पूंजी और श्रम के बीच धन का वितरण इतना अधिक एकतरफा हो गया है कि यह श्रमिकों को लगातार निर्धनता की ओर धकेलता जा रहा है, जबकि धनी लोगों की संपत्ति में लगातार वृद्धि हो रही है।
  • इसके अतिरिक्त लिंग, जाति और अन्य कारकों के आधार पर होने वाले भेदभाव के कारण आय और अवसरों के मामलों में बढ़ती असमानता कुछ वर्गों को असमान रूप से प्रभावित करती है।

एकाधिकार का निर्माण: 

  • बाज़ार प्रतिस्पर्द्धा के प्रति अपनी कथित प्रतिबद्धता के बावजूद नव-उदारवाद के आर्थिक एजेंडे ने प्रतिस्पर्द्धा की गिरावट और अर्थव्यवस्था के विशाल क्षेत्र (जैसे-फार्मास्यूटिकल्स, दूरसंचार, एयरलाइंस, कृषि, बैंकिंग, औद्योगिक, खुदरा आदि) में शक्ति के एकाधिकार को बढ़ावा दिया है।

अस्थायी आर्थिक विकास: वर्तमान में आर्थिक विकास के प्रमुख लक्षणों में से एक ऊर्जा उपयोग का तीव्रता से बढ़ना है।

  • इन आर्थिक गतिविधियों को गति प्रदान करने के लिये अधिकांश ऊर्जा गैर-नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त की जाती है। 
  • विकसित विश्व का प्राथमिक उद्देश्य विश्व भर के विभिन्न हिस्सों से ऊर्जा-उत्पादक संसाधनों की खोज करना और उनका उपयोग अपनी जीडीपी की वृद्धि को अधिक ऊँचाइयों पर पहुँचाने के लिये करना है।
  • यह अस्थायी आर्थिक विकास मॉडल सतत् विकास की अवधारणा के खिलाफ है, क्योंकि यह वर्तमान पीढ़ी के कल्याण हेतु भविष्य की पीढ़ियों की ज़रूरतों की अनदेखी कर देता है।

आगे की राह: 

  • नॉर्डिक आर्थिक मॉडल (Nordic Economic Model):  धन के पुनर्वितरण को अधिक न्यायसंगत बनाने के लिये वर्तमान नव-उदारवादी मॉडल को 'नॉर्डिक आर्थिक मॉडल' द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। 
    • नॉर्डिक आर्थिक मॉडल में सभी के लिये प्रभावी कल्याण सुरक्षा नेट, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा का मौलिक अधिकार, अमीरों के लिये उच्च कर इत्यादि शामिल हैं।
  • पूंजीवाद का 4 पी मॉडल:  केवल बयानबाज़ी के बजाय, नए पूंजीवाद मॉडल को 4P अर्थात् लाभ (Profit), लोग (People), ग्रह (Planet), प्रयोजन (Purpos)] पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये और यह सुनिश्चित करने का दायित्त्व सरकार का होना चाहिये कि कॉर्पोरेट द्वारा इस मॉडल का पालन किया जाए।

निष्कर्ष:  

20वीं शताब्दी के विपरीत भारत वैश्विक पूंजीवाद के लिये नए नियमों के निर्धारण और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के पुनर्गठन में सक्रिय रूप से योगदान कर सकता है तथा भारत को इस दिशा में अवश्य ही कदम बढ़ाना चाहिये।

इसके अतिरिक्त जैसे-जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष यह नया बदलाव (द ग्रेट रीसेट) खुलकर सामने आता है तो इसके साथ ही भारत को भी अपनी अर्थव्यवस्था और समाज में आवश्यक सुधार करना होगा ताकि इसे अधिक न्यायसंगत, टिकाऊ एवं तीव्र वाह्य परिवर्तनों का मुकाबला करने में सक्षम बनाया जा सके।

अभ्यास प्रश्न:   ‘लिंग, जाति और अन्य कारकों के आधार पर भेदभाव के कारण आय और अवसरों के मामलों में बढ़ती असमानता कुछ वर्गों को असमान रूप से प्रभावित करती है।’ चर्चा कीजिये।

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