प्रारंभिक परीक्षा
सोहराय, पट्टचित्र और पटुआ चित्रकला
- 26 Jul 2025
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झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कलाकारों ने राष्ट्रपति भवन में कला उत्सव 2025 के दूसरे संस्करण 'आवासीय कलाकार कार्यक्रम' में भाग लिया, जिसमें सोहराय खोवर, पट्टचित्र और पटुआ जैसी पारंपरिक चित्रकलाओं का प्रदर्शन किया गया।
- यह कार्यक्रम भारत की जीवंत कला परंपराओं का सम्मान करता है तथा लोक, जनजातीय और पारंपरिक कलाकारों को अपना काम प्रदर्शित करने के लिये एक मंच प्रदान करता है।
सोहराय, पट्टचित्र और पटुआ चित्रकला के संबंध में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- सोहराय चित्रकला: यह झारखंड के हजारीबाग क्षेत्र के विभिन्न जनजातीय समुदायों की महिलाओं द्वारा प्रचलित एक पारंपरिक स्वदेशी कला है, जिसमें कुर्मी, संथाल, मुंडा, उरांव, अगरिया और घटवाल समूह शामिल हैं।
- इसे "हार्वेस्ट आर्ट" (Harvest Art) के नाम से जाना जाता है और कृषि और पशुपालन से इसका गहरा संबंध है। 'सोह' या 'सोरों' (Soh या Soro) शब्द का अर्थ है "भगाना" या "दूर करना", जबकि 'राई' (Rai) का अर्थ है "छड़ी" या "डंडा"।
- इस अनुष्ठान के एक हिस्से के रूप में, मांडला या अरीपन चावल के माड़ (चावल के पतले घोल) से बनाए जाते हैं ताकि मवेशियों का घरों में स्वागत किया जा सके। यह कार्य गाँव की महिलाएँ अपने हाथों की उँगलियों से करती हैं।
- सोहराय खोवर चित्रकला को वर्ष 2020 में भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्राप्त हुआ है।
- पट्टचित्र: ओडिशा में उत्पन्न यह एक पारंपरिक चित्रकला शैली है, जो पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से गहराई से जुड़ी हुई है। परंपरागत रूप से इसका उपयोग मंदिर के गर्भगृह (संनिधान) को सजाने के लिए किया जाता है।
- पट्टचित्र एक पारंपरिक चित्रकला शैली है, जिसे कपड़े (पट) पर बनाया जाता है। इस कपड़े को पहले चूने (चॉक पाउडर) और इमली के बीजों की गोंद से लेपित किया जाता है, जिससे उसकी सतह चित्र बनाने के लिये उपयुक्त हो जाती है।
- विषयों में धार्मिक, पौराणिक और लोक कथाएँ, विशेष रूप से कृष्ण लीला और भगवान जगन्नाथ शामिल हैं।
- पेंसिल या चारकोल के बिना, कलाकार बॉर्डर से शुरुआत करते हैं और हल्के लाल और पीले ब्रश से सीधे स्केच बनाते हैं तथा चमक और जल प्रतिरोध के लिये लैकर कोटिंग के साथ समाप्त करते हैं।
- पटुआ चित्रकला: यह पश्चिम बंगाल की एक लोककला परंपरा है, जिसका अभ्यास पटुआ या चित्रकार समुदाय (हिंदू और मुस्लिम दोनों) द्वारा किया जाता है।
- पटुआ कारीगर समुदाय बिहार, झारखंड, ओडिशा और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में भी पाया जाता है।
- यह चित्रकला कपड़े की लंबी पट्टियों पर बनाई जाती है, जिन्हें पटी या पट्टा कहा जाता है। इन पट्टियों के पीछे पुराने साड़ी के कपड़े की परत लगाई जाती है, जिससे उन्हें मज़बूती मिलती है।
- इसका प्रयोग विशेष रूप से कालीघाट और कुमारतुली में हिंदू पटुआओं द्वारा मंगल कथा सुनाने के लिये किया जाता है।
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